http://web.archive.org/web/20140419155600/http://hindini.com/fursatiya/archives/169
हम जब भी कोई लेख लिखकर देवताओं से जुड़ने का प्रयास करते हैं हमारे आशीष तथा रवि रतलामी हमें
पकड़कर घसीट लेते हैं। स्पीड ब्रेकर बन कर खड़े हो जाते हैं कि पहले
साइकिल चलाओ। हमें स्वर्ग से घसीटकर जमीन पर खड़ा कर देते हैं तथा साइकिल
का हैंडिल पकड़ा देते हैं। यह कुछ ऐसा ही है कि एड्रस से बचाव के लिये
प्रचार करते हुये से कोई कहे- अरे पहले टी.बी.,मलेरिया,खांसी,पीले-बुखार से
निपट लो तब एड्स से निपटने के लिये उछल- कूद करना।
बहरहाल, बात फिर से साइकिल यात्रा की।
जैसा कि हमने बताया कि हम पारसनाथ पहाड़ पर चढ़े लेकिन बिना मंदिर का दर्शन किये हमें चढ़ने के तुरंत बाद नीचे उतरना पड़ा। इससे अहसास होता है कि हमें नीचे घसीटने वाली शक्तियाँ आज से नहीं वर्षों से सक्रिय हैं। किस-किस को कोसे!
जिस दिन यह घटना हुई तारीख थी ७ जुलाई,१९८३। उस दिन हमारे साथी विनय अवस्थी का जन्मदिन था। सागर चंद नाहर बतायें कि उस दिन कितनी मोमबत्ती बुझाकर उन्होंने केक काटा था उस दिन,कितने गुलगुले खाये थे!
सबेरे हम थके थे लेकिन साइकिलों के पास पहँचने की जल्दी थी । मधुबन से बस में बैठकर साइकिलों के पास पहुँचे निमियाघाट पहुँचे तथा वहाँ से आगे के लिये पैडलियाने लगे। निमियाघाट से चलकर धनबाद होते हुये न्यामतपुर पहुँचे। वहां रात एक पुलिस स्टेशन में बिताई। अगले दिन यानि कि ९ जुलाई को हम न्यामतपुर से वर्धमान पहुँचे तथा वहाँ एक गुरुद्वारे में रुके। १० जुलाई को हम सबेरे वर्धमान से चलकर हम शाम को कलकत्ता पहुँचे जहाँ आज के ठेलुहा नरेश उन दिनों के इंद्र अवस्थी बिना फूल-माला हमारा स्वागत करने को तत्पर तैनात थे।
कलकत्ता पहुँचने के पहले एकाध उल्लेखनीय घटनायें हुईं। हम रास्ते में दुर्गापुर में अपने मित्र आशीष नंदी के घर कुछ देर रहे। मैं तो वहाँपहुँचते ही सो गया। शाम को पता चला कि आशीष के पिताजी को उसी दिन प्रमोशन मिला । हमारे कदम उनके घर में शुभ माने गये।
वैसे आज भी यह संयोग कुछ हमारे पीछे हाथ धोकर पीछे पड़ा है। खासकर पिछले डेढ़ सालों में कम से कम दो दर्जन वाकये ऐसे हुये कि जब हम किसी जगह पहुँचे ,काम उसी समय पूरा हुआ । जैसे ही हम किसी पम्प हाउस पहुँचे,पम्प चालू हो गया। बिजली आ गई आदि,इत्यादि।। यह शुक्र है कि इस संयोग की हवा अभी तक हमारे अधीनस्थों तक ही है। वर्ना इसका मानकीकरण करके सैकड़ों असफलतायें हमारे पल्ले पड़ जायेंगी- तुम वहाँ पहुँचे नहीं इसीलिये काम बिगड़ा इसके लिये तुम जिम्मेदार हो।
रास्ते में बिहार में बाराचट्टी नामक जगह में कुछ स्थानीय लोगों से मुलाकात हुई। उन लोगों ने बताया:-
वे सब लगभग जवान उम्र के लोग थे। लेकिन सबमें उनकी वर्तमान हालत के प्रति दयनीयता के भाव थे। किसी में स्थिति के प्रति आक्रोश या बदलाव के लिये कोई ललक नहीं दिखी।
आगे जैसे हम बंगाल के अंदर घुसते गये हमें घरों के पीछे तालाब,तालाब में खिले कुछ फूल,उनमें नहाते बच्चे,महिलायें,पुरुषों के दृश्य बहुतायत में दीखने शुरू हुये। चाय की दुकानों पर न जाने किन-किन बातों पर घंटों अड्डेबाजी करते जवान,बूढे़ लोग दिखे। एक बात खतम हुई नहीं कि दूसरी की डोर खुल गयी। लगता है बंगाल की अड्डेबाजी को ही कम्प्यूटराइज करके बाद में तरह-तरह के परिचर्चा के मंच बने।
रास्ते में एक जगह हम लोग खेत में लगे पम्पिंग सेट के पानी की धार में घंटों नहाते रहे।वहीं इक जगह मेरे पैर के घुटने में कुछ चोट लग गई। हम पट्टी बांधे टहलते रहे दो दिन। एक दोपहर को गर्मी के मौसम के कारण गोलानी को काफी उल्टियाँ हुईं। रास्ते में कई बार जमीन पर बैठ-बैठ कर बेचारे ने उल्टियाँ कीं।
ऐसी ही भयानक उमस भरी गर्मी में हमने एकाध बार सोचा भी कि कहाँ चले आये इस सड़ी गर्मी में साइकिल चलाने। लेकिन इस तरह के नकारात्मक भाव ज्यादा देर तक टिके नहीं।हम कलकत्ता की तरफ बढ़ते रहे।
कलकत्ता,वर्षों से, बिहार तथा आसपास लोगों के लिये रोजगार का बहुत बड़ा आसरा रहा है। जिसका काम-काज में मन नहीं लगा,कमाई का कोई जरिया नहीं मिला वह सत्तुआ बांध के ट्रेन में बैठकर कलकत्ता चल देता था। अभी भी शायद ऐसा ही है। सालों लोग कलकत्ता में रहते कमाई करते। केवल तीज-त्योहार घर आते । कलकत्ता जाने वाले लोगों की घरवालियाँ अपनी व्यथा कथा प्रकट करते हुये कहती हैं-
मेरी पसंद
[मेरी पसंद में आज बचपन शीर्षक से पढ़ी गईं सुमन सरीन की कवितायें दे रहा हूँ। मुझे पता नहीं है कि ये सुमन सरीन जी वहीं है जिनका जिक्र शशि सिंह में अपनी पोस्ट में किया है या कोई दूसरी हैं।]
बहरहाल, बात फिर से साइकिल यात्रा की।
जैसा कि हमने बताया कि हम पारसनाथ पहाड़ पर चढ़े लेकिन बिना मंदिर का दर्शन किये हमें चढ़ने के तुरंत बाद नीचे उतरना पड़ा। इससे अहसास होता है कि हमें नीचे घसीटने वाली शक्तियाँ आज से नहीं वर्षों से सक्रिय हैं। किस-किस को कोसे!
जिस दिन यह घटना हुई तारीख थी ७ जुलाई,१९८३। उस दिन हमारे साथी विनय अवस्थी का जन्मदिन था। सागर चंद नाहर बतायें कि उस दिन कितनी मोमबत्ती बुझाकर उन्होंने केक काटा था उस दिन,कितने गुलगुले खाये थे!
सबेरे हम थके थे लेकिन साइकिलों के पास पहँचने की जल्दी थी । मधुबन से बस में बैठकर साइकिलों के पास पहुँचे निमियाघाट पहुँचे तथा वहाँ से आगे के लिये पैडलियाने लगे। निमियाघाट से चलकर धनबाद होते हुये न्यामतपुर पहुँचे। वहां रात एक पुलिस स्टेशन में बिताई। अगले दिन यानि कि ९ जुलाई को हम न्यामतपुर से वर्धमान पहुँचे तथा वहाँ एक गुरुद्वारे में रुके। १० जुलाई को हम सबेरे वर्धमान से चलकर हम शाम को कलकत्ता पहुँचे जहाँ आज के ठेलुहा नरेश उन दिनों के इंद्र अवस्थी बिना फूल-माला हमारा स्वागत करने को तत्पर तैनात थे।
कलकत्ता पहुँचने के पहले एकाध उल्लेखनीय घटनायें हुईं। हम रास्ते में दुर्गापुर में अपने मित्र आशीष नंदी के घर कुछ देर रहे। मैं तो वहाँपहुँचते ही सो गया। शाम को पता चला कि आशीष के पिताजी को उसी दिन प्रमोशन मिला । हमारे कदम उनके घर में शुभ माने गये।
वैसे आज भी यह संयोग कुछ हमारे पीछे हाथ धोकर पीछे पड़ा है। खासकर पिछले डेढ़ सालों में कम से कम दो दर्जन वाकये ऐसे हुये कि जब हम किसी जगह पहुँचे ,काम उसी समय पूरा हुआ । जैसे ही हम किसी पम्प हाउस पहुँचे,पम्प चालू हो गया। बिजली आ गई आदि,इत्यादि।। यह शुक्र है कि इस संयोग की हवा अभी तक हमारे अधीनस्थों तक ही है। वर्ना इसका मानकीकरण करके सैकड़ों असफलतायें हमारे पल्ले पड़ जायेंगी- तुम वहाँ पहुँचे नहीं इसीलिये काम बिगड़ा इसके लिये तुम जिम्मेदार हो।
रास्ते में बिहार में बाराचट्टी नामक जगह में कुछ स्थानीय लोगों से मुलाकात हुई। उन लोगों ने बताया:-
उन स्थानीय लोगों के नाम थे- महरू तुरी,कैलू,काकत,पाँचू तुरी,सरजू यादव,जगन्नाथ तुरी,नगेश्वर तुरी,जगदीश,धनेश्वर तुरी।उस समय हमें याद नहीं रहा पूछना। आज सोच रहा हूँ कि तुरी कौन सी जाति के लोग होते हैं।जंगल से लकड़ी काटना उनका पेशा है। जंगल से लकड़ी चुरा कर सस्ते दाम में बेच देते हैं। सिपाही लोग इस बात को जानते हैं।लेकिन घूस लेकर छोड़ देते हैं। मेहनत से नहीं डरते लेकिन काम नहीं मिलता इसलिये मजबूरन चोरी करते हैं। रोजी-रोटी के लिये उत्तर प्रदेश की तरफ जाना चाहते हैं लेकिन साधन का अभाव है। शिक्षा बहुत कम है।इलाके में पानी की कमी है। वोट जबरदस्ती दिलाये जाते हैं। नेता धमकी देते हैं। लोग तमाम आश्वासन देते हैं लेकिन चुनाव होते ही सब लापता हो जाते हैं। कर्जे पर पैसा दिलाने के लिये ब्लाक डेवेलपमेंट अधिकारी तथा जनसेवक पैसा मांगते हैं। बंधुआ मजदूरी भी होती है। न करने पर झोपड़ी जलाने की धमकी देते हैं।हर आदमी परेशान करता है। इसी तरह जिंदगी कट रही है।
वे सब लगभग जवान उम्र के लोग थे। लेकिन सबमें उनकी वर्तमान हालत के प्रति दयनीयता के भाव थे। किसी में स्थिति के प्रति आक्रोश या बदलाव के लिये कोई ललक नहीं दिखी।
आगे जैसे हम बंगाल के अंदर घुसते गये हमें घरों के पीछे तालाब,तालाब में खिले कुछ फूल,उनमें नहाते बच्चे,महिलायें,पुरुषों के दृश्य बहुतायत में दीखने शुरू हुये। चाय की दुकानों पर न जाने किन-किन बातों पर घंटों अड्डेबाजी करते जवान,बूढे़ लोग दिखे। एक बात खतम हुई नहीं कि दूसरी की डोर खुल गयी। लगता है बंगाल की अड्डेबाजी को ही कम्प्यूटराइज करके बाद में तरह-तरह के परिचर्चा के मंच बने।
रास्ते में एक जगह हम लोग खेत में लगे पम्पिंग सेट के पानी की धार में घंटों नहाते रहे।वहीं इक जगह मेरे पैर के घुटने में कुछ चोट लग गई। हम पट्टी बांधे टहलते रहे दो दिन। एक दोपहर को गर्मी के मौसम के कारण गोलानी को काफी उल्टियाँ हुईं। रास्ते में कई बार जमीन पर बैठ-बैठ कर बेचारे ने उल्टियाँ कीं।
ऐसी ही भयानक उमस भरी गर्मी में हमने एकाध बार सोचा भी कि कहाँ चले आये इस सड़ी गर्मी में साइकिल चलाने। लेकिन इस तरह के नकारात्मक भाव ज्यादा देर तक टिके नहीं।हम कलकत्ता की तरफ बढ़ते रहे।
कलकत्ता,वर्षों से, बिहार तथा आसपास लोगों के लिये रोजगार का बहुत बड़ा आसरा रहा है। जिसका काम-काज में मन नहीं लगा,कमाई का कोई जरिया नहीं मिला वह सत्तुआ बांध के ट्रेन में बैठकर कलकत्ता चल देता था। अभी भी शायद ऐसा ही है। सालों लोग कलकत्ता में रहते कमाई करते। केवल तीज-त्योहार घर आते । कलकत्ता जाने वाले लोगों की घरवालियाँ अपनी व्यथा कथा प्रकट करते हुये कहती हैं-
लागा झुलनियाँ का धक्का ,बलम कलकत्ता गये।इस तरह होते करते हम १० जुलाई को ऐतिहासिक हावड़ा ब्रिज के ऊपर से धड़धड़ाते हुये कलकत्ता में घुसे। पुल पार करते ही स्ट्रैंड रोड पर अवस्थी का घर पड़ता है। ५२,स्ट्रैंड रोड के नीचे अपने चेहरे से ठेलुहई के भाव छिटकाते हुये खड़े अवस्थी पूरी बेहयाई मुस्कराते हुये हमारे स्वागत के लिये खड़े थे।
मेरी पसंद
[मेरी पसंद में आज बचपन शीर्षक से पढ़ी गईं सुमन सरीन की कवितायें दे रहा हूँ। मुझे पता नहीं है कि ये सुमन सरीन जी वहीं है जिनका जिक्र शशि सिंह में अपनी पोस्ट में किया है या कोई दूसरी हैं।]
१.तितली के दिन,फूलों के दिन
गुड़ियों के दिन,झूलों के दिन
उम्र पा गये,प्रौढ़ हो गये
आटे सनी हथेली में।
बच्चों के कोलाहल में
जाने कैसे खोये,छूटे
चिट्ठी के दिन,भूलों के दिन।
२.नंगे पांव सघन अमराई
बूँदा-बांदी वाले दिन
रिबन लगाने,उड़ने-फिरने
झिलमिल सपनों वाले दिन।
अब बारिश में छत पर
भीगा-भागी जैसे कथा हुई
पाहुन बन बैठे पोखर में
पाँव भिगोने वाले दिन।
३.इमली की कच्ची फलियों से-सुमन सरीन
भरी हुई फ्राकों के दिन
मोती-मनकों-कौड़ी
टूटी चूड़ी की थाकों के दिन।
अम्मा संझा-बाती करतीं
भउजी बैठक धोती थीं
बाबा की खटिया पर
मुनुआ राजा की धाकों के दिन।
वो दिन मनुहारों के
झूलों पर झूले और चले गये
वो सोने से मंडित दिन थे
ये नक्सों-खाकों के दिन।
Posted in जिज्ञासु यायावर, संस्मरण | 17 Responses
बहुत संक्षिप्त है, जल्दी समाप्त करने की, और लोगों की मांग को दबाने की साजिश नजर आती है।
बहरहाल अगले अंक के इंतजार में।
उस दिन मेरी ११ वीं वर्ष गाँठ थी, और मोमबत्तियाँ?
गाफ़िल! तुझे घड़ियाल ये देता है मुनादी।
गर्दू ने घड़ी उम्र की एक और घटा दी॥
जेरेगर्दू उम्र अपनी दिन-ब-दिन कटी गई।
जिस क़दर बढ़ते गये हम, जिंदगी घटती गई॥
*जेरेगर्दू = आकाश के नीचे
लागा साइकिलिया में धक्का, हम कलकत्ता गये फ़ुरसतिया
हा हा है ना मज़ेदार – आपके लेख ऐसे होते हैं कि सांस लेने को भी रुकना पडता है
बहुत संक्षिप्त है, जल्दी समाप्त करने की, और लोगों की मांग को दबाने की साजिश नजर आती है।…
मुझे भी यही साज़िश नजर आती है….
गुरुदेव, आपके तो पाठक भी मंज गए है – क्वालिटी पे कांप्रोमाईज ससुर इम्पासिबल हुई गवा.
बहुत खूब ई-छाया!
या तो इ लेख तुम ठेके पर किसी और से लिखावाए हो।
या फिर तुम्हरि साइकिल की हवा निकल गयी है।
या जबरन लिखाए गए है (रवि/आशीष द्वारा)
या डायरी गुमा गयी है।
या बेमन से लिखे हो, बहुत थक गए हो तो ब्रेक ले लो।
अमां अब इस पर हम वाह! वाह! नही करेंगे।
जल्दी से वापस अपने रंग मे लौटो।
बकिया चकाचक।
नोट: डन्डा लेकर हमारे पीछे मत दौड़ना, हम तुम्हारे असली पाठक है, हमरि आलोचना तो झेलबे के परिहै।
मेरे पास और कोई कविता नहीं है सुमनजी की। मिलेगी तो भेज दूंगा। इस कविता की आडियो फाइल अलग से भेज रहा हूँ।