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अनूप शुक्ला: पैदाइश तथा शुरुआती पढ़ाई-लिखाई, कभी भारत का मैनचेस्टर कहलाने वाले शहर कानपुर में। यह ताज्जुब की बात लगती है कि मैनचेस्टर कुली, कबाड़ियों,धूल-धक्कड़ के शहर में कैसे बदल गया। अभियांत्रिकी(मेकेनिकल) इलाहाबाद से करने के बाद उच्च शिक्षा बनारस से। इलाहाबाद में पढ़ते हुये सन १९८३में ‘जिज्ञासु यायावर ‘ के रूप में साइकिल से भारत भ्रमण। संप्रति भारत सरकार के रक्षा मंत्रालय के अंतर्गत लघु शस्त्र निर्माणी ,कानपुर में अधिकारी। लिखने का कारण यह भ्रम कि लोगों के पास हमारा लिखा पढ़ने की फुरसत है। जिंदगी में ‘झाड़े रहो कलट्टरगंज’ का कनपुरिया मोटो लेखन में ‘हम तो जबरिया लिखबे यार हमार कोई का करिहै‘ कैसे धंस गया, हर पोस्ट में इसकी जांच चल रही है।
वो तो अपनी कहानी ले बैठा…
जून में फिराक़ गोरखपुरी के बारे में लिखे लेख पर टिप्पणी करते हुये राजीव खरे जी ने लिखा है:-
तुम मुखातिब भी हो करीब भी हो ,
तुमको देखूँ कि तुमसे बात करुँ
शेर फिर से पढ़कर पुरी गज़ल पाने की इच्छा तेज हो गई। हमने फिर शाहजहाँपुर फोन किया। मैं वहाँ २००१ तक रहा करीब आठ साल। तमाम शायर दोस्त मेरे परिचित हैं वहाँ। उनमें से एक अख्तर ‘शाहजहाँपुरी’ भी हैं। करीब पैंसठ साल के अख्तर साहब नौकरी से रिटायर होकर नये सिरे से जवान हो रहे हैं तथा खूब लिखने में जुटे हैं। उनकी दो किताबें छप चुकी हैं। मैं जब शाहजहाँपुर में था तब तक एक छपी थी। दूसरी अभी १३ अगस्त को लोकार्पित हुई है।
मैंने जब फोन किया तो लाइन पर अख्तर साहब ही थे। हमने दुआ-सलाम,खैरियत-वैरियत के बाद फिराक़ साहब की ग़ज़ल की बात की तो बताया कि दो दिन में खोजकर वे हमें बतायेंगे। लिहाजा भाई राजीव खरे को दो दिन इंतजार करना पड़ेगा अपनी पसंदीदा ग़ज़ल पढ़ने के लिये।
फिराक साहब को किनारे करके अख़्तर साहब अपने किस्से सुनाने लगे। बताया कि कैसे विमोचन हुआ ,कहाँ हुआ,कौन आया था आदि-इत्यादि।पता चला कि विमोचन गाँधी लाइब्रेरी में हुआ था।
शाहजहाँपुर में गांधी लाइब्रेरी वहाँ की साहित्यिक गतिविधियों का केन्द्र है।
यह लाइब्रेरी चौक मुहल्ले में है। बगल में ही हृदयेशजी का घर है जो कि अक्सर टहलते हुये वहाँ आ जाते हैं जहाँ उनको चच्चा कहने वाले अरविंद मिश्र के अलावा तमाम लोग मिलते हैं।लाइब्रेरी के सचिव अजय गुप्त जी बहुत अच्छे गीतकार हैं। उनके दो गीतों की पंक्तियाँ मुझे अक्सर याद आती हैं:-
१.वामन हुये विराट चलो वंदना करें
ज़र्रे हैं शैलराट चलो वंदना करे ।
२. सूर्य जब-जब थका हारा मुझे ताल के तट पर मिला,
सच कहूँ मुझे वो बेटियों के बाप सा लगा।
गांधी लाइब्रेरी में अक्सर कवि-गोष्ठियाँ तथा अन्य साहित्यिक कार्यक्रम आयोजित होते रहते हैं। अपनी कुल जमा दो-तीन कविताओं के कारण मुझे लोग वहाँ ‘शाहजहाँपुर का गुलेरी’कहते थे।
बहरहाल,अख्तर साहब अपने पूरे मूड में थे। सो किस्सा-ए-लोकार्पण तफसील से सुनाते रहे। फिर उन्होंने टेप चालू कर दिया जिसमें उनकी ग़ज़ल को वहीं के एक शायर राशिद नदीम ने तरन्नुम में पढ़ा था। मैंने एक बार सुनकर उसे लिख लिया फिर दुबारा फोन पर माइक लगाकर लैपटाप में भी टेप कर ली। गज़ल यहाँ पेश है:-
वो तो अपनी कहानी ले बैठा,
दास्ताँ अपनी क्या सुनाते हम।
खैर, यह तय हुआ कि एक-दो दिन में अख्तर साहब मुझे फिराक़ गोरखपुरी की फरमाइशी ग़ज़ल नोट करायेंगे।
इसके बाद मैं अपने पास उपलब्ध एक पत्रिका शब्दयोग के पन्ने पलटने लगा। उसमें ग्वालियर के कवि पवन करण की कुछ प्रेम कवितायें पढ़ीं। उनमें से एक जो मुझे कुछ ज्यादा जमीं वो यहाँ पोस्ट कर रहा हूँ। इस कविता में देखा जाये कि प्रेमिका की आकांक्षायें किस भावभूमि की हैं। उस पर प्रेम पुष्टि के सिनेमाई फार्रमूले किस तरह अनजाने में हावी हो गये हैं:-
तुम अपने आपको समझते क्या हो
पीछे से कमर को जोर से पकड़ते हुये उसने पूछा
मैंने उत्तर दिया तुम्हारा प्रेमी।
नहीं नहीं तुम मुझे सच-सच बताओ
तुम अपने आपको समझते क्या हो
कहा न तुम्हारा प्रेमी,मैंने दोहराया।
कैसे मान लूँ तुम मेरे प्रेमी हो
मुझे सच्चा प्रेम करते हो
बात खींचते हुये उसने कहा
मैंने कहा ,अच्छा तुम्ही बताओ मैं तुम्हें
किस तरह बताऊँ कि मैं तुम्हें प्रेम करता हूँ?
मैं नहीं मानती कि तुम मुझे प्रेम करते हो
अच्छा एक काम है जिसे तुम इसी वक्त कर सको
तो मुझे लगेगा कि तुम मुझे प्रेम करते हो
मैंने कहा बताओ,मुझे क्या करना है।
तुम इसी तरह मोटर साइकिल को चलाते हुये
पीछे मेरे होंठों को चूमकर दिखाओ तब मानूंगी
मैंने कहा नहीं ऐसा नहीं हो सकता
उसने कहा ठीक,गाड़ी रोको,मुझे उतारो।
मैंने कहा ठीक चलो कोशिश करके देखता हूँ
फिर मैंने जैसे ही उसके होंठ चूमने के लिये
अपने सिर को घुमाया पीछे की तरफ
वह चीखते हुये बोली क्या करते हो
मरना चाहते हो क्या,क्या मेरे कहने पर कुयें में कूद जाओगे
कोई जरूरत नहीं कुछ करने की
मैं जानती हूँ तुम मुझे बेहद प्यार करते हो।
पुनश्च: अनूप भार्गव जी ने पवन करण की कविताओं के बारे में बताया है कि उनकी कुछ कवितायें प्रसिद्ध पत्रिका कृत्या में उपलब्ध हैं।
एक अच्छे ज्ञानवर्धक लेख के लिए धन्यवाद |यह देखते ही मैं अपने पास उपलब्ध किताबों में फिराक़ साहब की गजल खोजने में जुट गया। बहुत खोजने पर यह गजल नहीं मिली। इससे मिलते जुलते शेर समेटे एक गजल दिखी। मिलता-जुलता शेर था:-
वैसे तो फ़िराक साहब के हजारों अच्छे शेर हैं , पर एक शेर याद आता है जिसे एक बार आई के गुजराल जो समय प्रधानमंत्री थे ने संसद में सुनाया था
“तुम मुखातिब भी हो करीब भी हो ,
तुमको देखूँ कि तुमसे बात करुँ ”
मुझे अगर ये पूरी नज्म अगर मिल सके तो बड़ी मेहरबानी होगी |
हम उसको देख के भी आह किस तरह देखें,पहले तो हमें लगा कि शायद इसी गज़ल फरमाइश है लेकिन जब फिर मैंने फरमाइशी शेर देखा तो हमें अपना विचार बदलना पड़ा। बाद में फिराक़ साहब के बारे में जो किताब मेरे पास है उसमें आखिरी में उन शेरों की लिस्ट दी थी जो उसमें संकलित नहीं हैं। उसमें यह शेर भी था:-
नजारा-ए-रुख़े-जानाँ हुआ,हुआ भी नहीं ।
तुम मुखातिब भी हो करीब भी हो ,
तुमको देखूँ कि तुमसे बात करुँ
शेर फिर से पढ़कर पुरी गज़ल पाने की इच्छा तेज हो गई। हमने फिर शाहजहाँपुर फोन किया। मैं वहाँ २००१ तक रहा करीब आठ साल। तमाम शायर दोस्त मेरे परिचित हैं वहाँ। उनमें से एक अख्तर ‘शाहजहाँपुरी’ भी हैं। करीब पैंसठ साल के अख्तर साहब नौकरी से रिटायर होकर नये सिरे से जवान हो रहे हैं तथा खूब लिखने में जुटे हैं। उनकी दो किताबें छप चुकी हैं। मैं जब शाहजहाँपुर में था तब तक एक छपी थी। दूसरी अभी १३ अगस्त को लोकार्पित हुई है।
मैंने जब फोन किया तो लाइन पर अख्तर साहब ही थे। हमने दुआ-सलाम,खैरियत-वैरियत के बाद फिराक़ साहब की ग़ज़ल की बात की तो बताया कि दो दिन में खोजकर वे हमें बतायेंगे। लिहाजा भाई राजीव खरे को दो दिन इंतजार करना पड़ेगा अपनी पसंदीदा ग़ज़ल पढ़ने के लिये।
फिराक साहब को किनारे करके अख़्तर साहब अपने किस्से सुनाने लगे। बताया कि कैसे विमोचन हुआ ,कहाँ हुआ,कौन आया था आदि-इत्यादि।पता चला कि विमोचन गाँधी लाइब्रेरी में हुआ था।
शाहजहाँपुर में गांधी लाइब्रेरी वहाँ की साहित्यिक गतिविधियों का केन्द्र है।
यह लाइब्रेरी चौक मुहल्ले में है। बगल में ही हृदयेशजी का घर है जो कि अक्सर टहलते हुये वहाँ आ जाते हैं जहाँ उनको चच्चा कहने वाले अरविंद मिश्र के अलावा तमाम लोग मिलते हैं।लाइब्रेरी के सचिव अजय गुप्त जी बहुत अच्छे गीतकार हैं। उनके दो गीतों की पंक्तियाँ मुझे अक्सर याद आती हैं:-
१.वामन हुये विराट चलो वंदना करें
ज़र्रे हैं शैलराट चलो वंदना करे ।
२. सूर्य जब-जब थका हारा मुझे ताल के तट पर मिला,
सच कहूँ मुझे वो बेटियों के बाप सा लगा।
गांधी लाइब्रेरी में अक्सर कवि-गोष्ठियाँ तथा अन्य साहित्यिक कार्यक्रम आयोजित होते रहते हैं। अपनी कुल जमा दो-तीन कविताओं के कारण मुझे लोग वहाँ ‘शाहजहाँपुर का गुलेरी’कहते थे।
बहरहाल,अख्तर साहब अपने पूरे मूड में थे। सो किस्सा-ए-लोकार्पण तफसील से सुनाते रहे। फिर उन्होंने टेप चालू कर दिया जिसमें उनकी ग़ज़ल को वहीं के एक शायर राशिद नदीम ने तरन्नुम में पढ़ा था। मैंने एक बार सुनकर उसे लिख लिया फिर दुबारा फोन पर माइक लगाकर लैपटाप में भी टेप कर ली। गज़ल यहाँ पेश है:-
किसके हाथों के हैं खिलौने हम,ग़ज़ल के बाद अख़्तर साहब ने फिर वह तक़रीर भी सुनाई सो विमोचन के अवसर पर अध्यक्ष महोदय ने उनके सम्मान में पढ़ी थी। हमें लगा कि हमारी बातचीत में ग़ज़ल का दूसरा शेर बिल्कुल फिट बैठ रहा था:-
बात ये आजतक न समझे हम।
वो तो अपनी कहानी ले बैठा,
दास्ताँ अपनी क्या सुनाते हम।
शामियाने धूप के हरसू हैं,
ढूँढ लाये कहीं से साये हम।
चाँद-तारों की हमसरीखी है,
जर्रा होकर भी खूब चमके हम।
पैरहन तीरगी(अंधेरे)का बक्सा
चाहते थे मगर उजाले हम।
दो कदम रह गयी है बस मंजिल
पाँव के गिन रहे हैं छाले हम।
अपने माँझी को भूलकर ‘अख्तर‘
हो गये हैं कहानी किस्से हम।
वो तो अपनी कहानी ले बैठा,
दास्ताँ अपनी क्या सुनाते हम।
खैर, यह तय हुआ कि एक-दो दिन में अख्तर साहब मुझे फिराक़ गोरखपुरी की फरमाइशी ग़ज़ल नोट करायेंगे।
इसके बाद मैं अपने पास उपलब्ध एक पत्रिका शब्दयोग के पन्ने पलटने लगा। उसमें ग्वालियर के कवि पवन करण की कुछ प्रेम कवितायें पढ़ीं। उनमें से एक जो मुझे कुछ ज्यादा जमीं वो यहाँ पोस्ट कर रहा हूँ। इस कविता में देखा जाये कि प्रेमिका की आकांक्षायें किस भावभूमि की हैं। उस पर प्रेम पुष्टि के सिनेमाई फार्रमूले किस तरह अनजाने में हावी हो गये हैं:-
तुम अपने आपको समझते क्या हो
पीछे से कमर को जोर से पकड़ते हुये उसने पूछा
मैंने उत्तर दिया तुम्हारा प्रेमी।
नहीं नहीं तुम मुझे सच-सच बताओ
तुम अपने आपको समझते क्या हो
कहा न तुम्हारा प्रेमी,मैंने दोहराया।
कैसे मान लूँ तुम मेरे प्रेमी हो
मुझे सच्चा प्रेम करते हो
बात खींचते हुये उसने कहा
मैंने कहा ,अच्छा तुम्ही बताओ मैं तुम्हें
किस तरह बताऊँ कि मैं तुम्हें प्रेम करता हूँ?
मैं नहीं मानती कि तुम मुझे प्रेम करते हो
अच्छा एक काम है जिसे तुम इसी वक्त कर सको
तो मुझे लगेगा कि तुम मुझे प्रेम करते हो
मैंने कहा बताओ,मुझे क्या करना है।
तुम इसी तरह मोटर साइकिल को चलाते हुये
पीछे मेरे होंठों को चूमकर दिखाओ तब मानूंगी
मैंने कहा नहीं ऐसा नहीं हो सकता
उसने कहा ठीक,गाड़ी रोको,मुझे उतारो।
मैंने कहा ठीक चलो कोशिश करके देखता हूँ
फिर मैंने जैसे ही उसके होंठ चूमने के लिये
अपने सिर को घुमाया पीछे की तरफ
वह चीखते हुये बोली क्या करते हो
मरना चाहते हो क्या,क्या मेरे कहने पर कुयें में कूद जाओगे
कोई जरूरत नहीं कुछ करने की
मैं जानती हूँ तुम मुझे बेहद प्यार करते हो।
पुनश्च: अनूप भार्गव जी ने पवन करण की कविताओं के बारे में बताया है कि उनकी कुछ कवितायें प्रसिद्ध पत्रिका कृत्या में उपलब्ध हैं।
Posted in बस यूं ही | 7 Responses
करें क्या मगर तब तक देर हो चुकी थी बडी
मोटर साइकिल लहराई और जोरों से गिर पडी
प्रेम का इम्तहान क्या जान देकर ही होता है
टूटी गाडी लहूलुहान हम थे और बगल में थी वो पडी।
पवन करण जी की कविताएं कुछ दिन पहले ‘कृत्या’ में पढी थीं । बेहद ताजगी और ‘नयापन’ लिये । उन की और कविताएं यहाँ पढी जा सकती हैं :
http://www.kritya.in/08/hn/poetry_at_our_time2.html
राजीव खरे जी को जवाब मिले ना मिले, हमे तो बढ़िया मसौदा पढ़ने मिल गया. आपके कलम की रफ़्तार बनी रहे, बस यही कामना है.
-समीर लाल