http://web.archive.org/web/20140420082228/http://hindini.com/fursatiya/archives/177
मैं खमरिया से नेपियर टाउन आया तथा खोजते-खोजते उनके घर पहुँच गया। शाम का समय था वे बरामदे में तखत पर लेटे थे। साफ-सफेद कुर्ता-पायजामा पहने। लेटे-लेटे ही करीब एक घंटा बातें करते रहे। यह मुझे बाद में पता चला कि वे सालों से बिस्तर तक ही सीमित थे। बातचीत के दौरान उन्होंने एक भी शब्द अपनी बीमारी-परेशानी के बारे में नहीं कहा। न कुछ अपने साहित्य के बारे में बोले। मैं उन दिनों उड़ीसा के पिछड़े इलाके बालासोर में तैनात था। वे वहाँ के आदिवासियों के बारे में बातें करते रहे।
मैं उनसे मिलकर चला आया। बाद में जब धीरे-धीरे उनके साहित्य से परिचित होता गया तो उनका महत्व मुझे पता चला। तब मुझे पता चला कि मैं जिस व्यक्ति से मिलकर आया हूँ उनके साहित्य और व्यक्तित्व की क्या ऊँचाई है।
जब उनकी मृत्यु हुई तब मैंने जनसत्ता में प्रभास जोशी का सम्पादकीय पढ़ा। सम्पादकीय पढ़कर मुझे लगा जैसे कि परसाई जी ने जितना ज्यादा लेखन किया है उससे ज्यादा महत्वपूर्ण काम शराब का किया है। यह हमारे देश की महानता है कि हर प्रतिमा पर कालिख पोतने को तत्पर रहते हैं। पूरा प्रयास करते हैं कि जितनी जल्दी हो सके दूसरे को नंगा करके तनावमुक्त हुआ जा सके।
धीरे-धीरे करके मैं उनके सारे साहित्य से परिचित होता गया। उनके लगभग सारा छपा हुआ साहित्य मेरे पास है और यह मेरे पुस्तक संग्रह की सबसे कीमती चीज है।उनके लेखन से पता चलता है कि परसाईजी की दृष्टि कितनी साफ थी। वे चीजों के आर-पार देखते थे।उनकी निगाह स्थानीय से लेकर अंतर्राष्ट्रीय घटनाओं पर रहती थी।
व्यंग्य लेखन में वे किसी को भी बख्सते नहीं थे। उनका व्यंग्य तिलमिला देने वाला होता था। उनके व्यंग्य से ही तिलमिला कर लोगों ने उनकी पिटाई भी कर दी। वे अस्पताल गये तथा लेख लिखा-मेरा लिखना सार्थक हुआ।
परसाईजी ने व्यंग्य को हिंदी लेखन में प्रतिष्ठा दिलाई।उनका लेखन समसामयिक घटनाओं पर आधारित रहता था । कुछ लोग इसे तात्कालिक लेखन मानते थे और कहते थे कि परसाई जी को कुछ ‘कालजयी’ लिखना चाहिये।शाश्वत साहित्य। इस पर परसाईजी का कहना था-
परसाईजी कहते थे कि मैं सुधार के लिये नहीं बदलने के लिये लिखता हूँ। वे यह भी मानते थे कि सिर्फ लेखन से क्रांति नहीं होती हाँ उसकी भावभूमि जरूर बन सकती है। वे कहते थे कि मुक्ति कभी अकेले की नहीं होती। नवजवानों को सम्बोधित करते हुये उन्होंने लिखा है:-
परसाईजी लेखन मेरे लिये सदैव मार्ग दर्शक रहा। आज परसाईजी का जन्मदिन है। इस अवसर मैं उनके प्रति विनम्र श्रद्धांजलि प्रकट करता हूँ।
मेरी पसंद
1.इस देश के बुद्धिजीवी शेर हैं,पर वे सियारों की बरात में बैंड बजाते हैं.
2.जो कौम भूखी मारे जाने पर सिनेमा में जाकर बैठ जाये ,वह अपने दिन कैसे बदलेगी!
3.अच्छी आत्मा फोल्डिंग कुर्सी की तरह होनी चाहिये.जरूरत पडी तब फैलाकर बैठ गये,नहीं तो मोडकर कोने से टिका दिया.
4.अद्भुत सहनशीलता और भयावह तटस्थता है इस देश के आदमी में.कोई उसे पीटकर पैसे छीन ले तो वह दान का मंत्र पढने लगता है.
5.अमरीकी शासक हमले को सभ्यता का प्रसार कहते हैं.बम बरसते हैं तो मरने वाले सोचते है,सभ्यता बरस रही है.
6.चीनी नेता लडकों के हुल्लड को सांस्कृतिक क्रान्ति कहते हैं,तो पिटने वाला नागरिक सोचता है मैं सुसंस्कृत हो रहा हूं.
7.इस कौम की आधी ताकत लडकियों की शादी करने में जा रही है.
8.अर्थशास्त्र जब धर्मशास्त्र के ऊपर चढ बैठता है तब गोरक्षा आन्दोलन के नेता जूतों की दुकान खोल लेते हैं.
9.जो पानी छानकर पीते हैं, वे आदमी का खून बिना छना पी जाते हैं .
10.नशे के मामले में हम बहुत ऊंचे हैं.दो नशे खास हैं–हीनता का नशा और उच्चता का नशा,जो बारी-बारी से चढते रहते हैं.
11.शासन का घूंसा किसी बडी और पुष्ट पीठ पर उठता तो है पर न जाने किस चमत्कार से बडी पीठ खिसक जाती है और किसी दुर्बल पीठ पर घूंसा पड जाता है.
12.मैदान से भागकर शिविर में आ बैठने की सुखद मजबूरी का नाम इज्जत है.इज्जतदार आदमी ऊंचे झाड की ऊंची टहनी पर दूसरे के बनाये घोसले में अंडे देता है.
13.बेइज्जती में अगर दूसरे को भी शामिल कर लो तो आधी इज्जत बच जाती है.
14.मानवीयता उन पर रम के किक की तरह चढती – उतरती है,उन्हें मानवीयता के फिट आते हैं.
15.कैसी अद्भुत एकता है.पंजाब का गेहूं गुजरात के कालाबाजार में बिकता है और मध्यप्रदेश का चावल कलकत्ता के मुनाफाखोर के गोदाम में भरा है.देश एक है.कानपुर का ठग मदुरई में ठगी करता है,हिन्दी भाषी जेबकतरा तमिलभाषी की जेब काटता है और रामेश्वरम का भक्त बद्रीनाथ का सोना चुराने चल पडा है.सब सीमायें टूट गयीं.
16.रेडियो टिप्पणीकार कहता है–’घोर करतल ध्वनि हो रही है.’मैं देख रहा हूं,नहीं हो रही है.हम सब लोग तो कोट में हाथ डाले बैठे हैं.बाहर निकालने का जी नहीं होत.हाथ अकड जायेंगे.लेकिन हम नहीं बजा रहे हैं फिर भी तालियां बज रही हैं.मैदान में जमीन पर बैठे वे लोग बजा रहे हैं ,जिनके पास हाथ गरमाने को कोट नहीं हैं.लगता है गणतन्त्र ठिठुरते हुये हाथों की तालियों पर टिका है.गणतन्त्र को उन्हीं हाथों की तालियां मिलती हैं,जिनके मालिक के पास हाथ छिपाने के लिये गर्म कपडा नहीं है.
17.मौसम की मेहरवानी का इन्तजार करेंगे,तो शीत से निपटते-निपटते लू तंग करने लगेगी.मौसम के इन्तजार से कुछ नहीं होता.वसंत अपने आप नहीं आता,उसे लाना पडता है.सहज आने वाला तो पतझड होता है,वसंत नहीं.अपने आप तो पत्ते झडते हैं.नये पत्ते तो वृक्ष का प्राण-रस पीकर पैदा होते हैं.वसंत यों नहीं आता.शीत और गरमी के बीच जो जितना वसंत निकाल सके,निकाल ले.दो पाटों के बीच में फंसा है देश वसंत.पाट और आगे खिसक रहे हैं.वसंत को बचाना है तो जोर लगाकर इन दो पाटों को पीचे ढकेलो–इधर शीत को उधर गरमी को .तब बीच में से निकलेगा हमारा घायल वसंत.
18.सरकार कहती है कि हमने चूहे पकडने के लिये चूहेदानियां रखी हैं.एकाध चूहेदानी की हमने भी जांच की.उसमे घुसने के छेद से बडा छेद पीछे से निकलने के लिये है.चूहा इधर फंसता है और उधर से निकल जाता है.पिंजडे बनाने वाले और चूहे पकडने वाले चूहों से मिले हैं.वे इधर हमें पिंजडा दिखाते हैं और चूहे को छेद दिखा देते हैं.हमारे माथे पर सिर्फ चूहेदानी का खर्च चढ रहा है.
19.एक और बडे लोगों के क्लब में भाषण दे रहा था.मैं देश की गिरती हालत,मंहगाई ,गरीबी,बेकारी,भ्रष्टाचारपर बोल रहा था और खूब बोल रहा था.मैं पूरी पीडा से,गहरे आक्रोश से बोल रहा था .पर जब मैं ज्यादा मर्मिक हो जाता ,वे लोग तालियां पीटने लगते थे.मैंने कहा हम बहुत पतित हैं,तो वे लोग तालियां पीटने लगे.और मैं समारोहों के बाद रात को घर लौटता हूं तो सोचता रहता हूं कि जिस समाज के लोग शर्म की बात पर हंसे,उसमे क्या कभी कोई क्रन्तिकारी हो सकता है?होगा शायद पर तभी होगा जब शर्म की बात पर ताली पीटने वाले हाथ कटेंगे और हंसने वाले जबडे टूटेंगे .
20.निन्दा में विटामिन और प्रोटीन होते हैं.निन्दा खून साफ करती है,पाचन क्रिया ठीक करती है,बल और स्फूर्ति देती है.निन्दा से मांसपेशियां पुष्ट होती हैं.निन्दा पयरिया का तो सफल इलाज है.सन्तों को परनिन्दा की मनाही है,इसलिये वे स्वनिन्दा करके स्वास्थ्य अच्छा रखते हैं.
21.मैं बैठा-बैठा सोच रहा हूं कि इस सडक में से किसका बंगला बन जायेगा?…बडी इमारतों के पेट से बंगले पैदा होते मैंने देखे हैं.दशरथ की रानियों को यज्ञ की खीर खाने से पुत्र हो गये थे.पुण्य का प्रताप अपार है.अनाथालय से हवेली पैदा हो जाती है.
-हरिशंकर परसाई
हरिशंकर परसाई- विनम्र श्रद्धांजलि
By फ़ुरसतिया on August 22, 2006
हरिशंकर परसाई
करीब १५ साल पहले की बात है। मैं किसी काम से जबलपुर गया था। मुझे याद आया कि परसाईजी
तो जबलपुर में ही रहते हैं। मैंने उन दिनों तक उनका लिखा बहुत कम पढ़ा था
लेकिन जितना पढ़ा था उतने से वे मेरे पसंदीदा लेखक बन गये थे। मुझे उनके घर
का पता नहीं मालूम था लेकिन यह पता था कि वे नेपियर टाउन में रहते थे।मैं खमरिया से नेपियर टाउन आया तथा खोजते-खोजते उनके घर पहुँच गया। शाम का समय था वे बरामदे में तखत पर लेटे थे। साफ-सफेद कुर्ता-पायजामा पहने। लेटे-लेटे ही करीब एक घंटा बातें करते रहे। यह मुझे बाद में पता चला कि वे सालों से बिस्तर तक ही सीमित थे। बातचीत के दौरान उन्होंने एक भी शब्द अपनी बीमारी-परेशानी के बारे में नहीं कहा। न कुछ अपने साहित्य के बारे में बोले। मैं उन दिनों उड़ीसा के पिछड़े इलाके बालासोर में तैनात था। वे वहाँ के आदिवासियों के बारे में बातें करते रहे।
मैं उनसे मिलकर चला आया। बाद में जब धीरे-धीरे उनके साहित्य से परिचित होता गया तो उनका महत्व मुझे पता चला। तब मुझे पता चला कि मैं जिस व्यक्ति से मिलकर आया हूँ उनके साहित्य और व्यक्तित्व की क्या ऊँचाई है।
जब उनकी मृत्यु हुई तब मैंने जनसत्ता में प्रभास जोशी का सम्पादकीय पढ़ा। सम्पादकीय पढ़कर मुझे लगा जैसे कि परसाई जी ने जितना ज्यादा लेखन किया है उससे ज्यादा महत्वपूर्ण काम शराब का किया है। यह हमारे देश की महानता है कि हर प्रतिमा पर कालिख पोतने को तत्पर रहते हैं। पूरा प्रयास करते हैं कि जितनी जल्दी हो सके दूसरे को नंगा करके तनावमुक्त हुआ जा सके।
धीरे-धीरे करके मैं उनके सारे साहित्य से परिचित होता गया। उनके लगभग सारा छपा हुआ साहित्य मेरे पास है और यह मेरे पुस्तक संग्रह की सबसे कीमती चीज है।उनके लेखन से पता चलता है कि परसाईजी की दृष्टि कितनी साफ थी। वे चीजों के आर-पार देखते थे।उनकी निगाह स्थानीय से लेकर अंतर्राष्ट्रीय घटनाओं पर रहती थी।
व्यंग्य लेखन में वे किसी को भी बख्सते नहीं थे। उनका व्यंग्य तिलमिला देने वाला होता था। उनके व्यंग्य से ही तिलमिला कर लोगों ने उनकी पिटाई भी कर दी। वे अस्पताल गये तथा लेख लिखा-मेरा लिखना सार्थक हुआ।
परसाईजी ने व्यंग्य को हिंदी लेखन में प्रतिष्ठा दिलाई।उनका लेखन समसामयिक घटनाओं पर आधारित रहता था । कुछ लोग इसे तात्कालिक लेखन मानते थे और कहते थे कि परसाई जी को कुछ ‘कालजयी’ लिखना चाहिये।शाश्वत साहित्य। इस पर परसाईजी का कहना था-
मैं शाश्वत साहित्य रचने का संकल्प लेकर लिखने नहीं बैठता। जो अपने युग के प्रति ईमानदार नहीं रहता ,वह अनन्तकाल के प्रति कैसे हो लेता है,मेरी समझ से परे है।परसाईजी ने अपनी लगी लगाई नौकरी छोड़कर लिखना शुरू किया। नौकरी छोड़ते ही तमाम परेशानियाँ आईं लेकिन वे विचलित नहीं हुये। लिखते रहे। फिर तो ऐसा हुआ कि जिस अखबार ,पत्रिका में लिखा उसका सर्कुलेशन बढ़ गया।परसाई जी जबलपुर रायपुर से निकलने वाले अखबार देशबंधु में पाठकों के प्रश्नों के उत्तर देते थे। स्तम्भ का नाम था-पूछिये परसाई से। पहले हल्के इश्किया और फिल्मी सवाल पूछे जाते थे । धीरे-धीरे परसाईजी ने लोगों को गम्भीर सामाजिक-राजनैतिक प्रश्नों की ओर प्रवृत्त किया। दायरा अंतर्राष्ट्रीय हो गया। यह सहज जन शिक्षा थी।लोग उनके सवाल-जवाब पढ़ने के लिये अखबार का इंतजार करते थे।
परसाईजी कहते थे कि मैं सुधार के लिये नहीं बदलने के लिये लिखता हूँ। वे यह भी मानते थे कि सिर्फ लेखन से क्रांति नहीं होती हाँ उसकी भावभूमि जरूर बन सकती है। वे कहते थे कि मुक्ति कभी अकेले की नहीं होती। नवजवानों को सम्बोधित करते हुये उन्होंने लिखा है:-
मेरे बाद की और उसके भी बाद की ताजा,ओजस्वी,तरूण पीढ़ी से भी मेरे संबंध हैं।नये से नये लेखक से मेरी दोस्ती है। मैं जानता हूँ ,इनमें से कुछ काफी हाउस में बैठकर काफी के कप में सिगरेट बुझाते हुये कविता और कविता की बात करते हैं। मैं इन तरुणों से कहता हूँ कि अपने बुजुर्गों की तरह अपनी दुनिया को छोटी मत करो। यह मत भूलो कि इन बुजुर्ग साहित्यकारों में अनेक ने अपनी जिंदगी के सबसे अच्छे वर्ष जेल में गुजारे । बालकृष्ण शर्मा’नवीन’,माखनलाल चतुर्वेदी और दर्जनों ऐसे कवि हैं। वे ब्रिटिश साम्राज्यवाद से लड़े।रामप्रसाद’बिस्मिल’ और अशफाक उल्ला खाँ ,जो फाँसी चढ़े,कवि थे। लेखक को कुछ हद तक एक्टिविस्ट होना चाहिये। सुब्रह्मण्यम भारती कवि और ‘एक्टिविस्ट’ थे। दूसरी बात यह है कि कितने ही अंतर्विरोधों से ग्रस्त है यह विशाल देश,और कोई देश अब अकेले अपनी नियति नहीं तय कर सकता। सब कुछ अंतर्राष्ट्रीय हो गया है। ऐसे में देश और दुनिया से जुड़े बिना ,एक कोने में बैठे कविता और कहानी में ही डूबे रहोगे ,तो निकम्मे,घोंचू और बौड़म हो जाओगे।परसाईजी अकेले ऐसे रचनाकार थे जिनकी रचनावली का प्रकाशन उनके जीवित रहते हुआ। उन्होंने लिखा:-
रचनावली का प्रकाशन लेखक की मृत्यु के बाद ही ठीक रहता है। एक तो लेखक हस्तक्षेप करने के लिये नहीं होता,वह रचनाओं का चुनाव नहीं कर सकता और वे बाध्यतायें नहीं रहतीं जो ‘मुंहदेखी’ के कारण पैदा होतीं हैं। पुराने मित्रों में मैं स्वामीजी ‘कहलाता’ हूँ। परम्परा है कि सन्यासी अपना श्राद्ध स्वयं करके मरता है। तो रचनावली मेरा अपना श्राद्धकर्म है,जो कर दे रहा हूँ। वैसे मैं अभी जवान हूँ,मगर श्राद्ध अभी कर दे रहा हूँ।
परसाईजी लेखन मेरे लिये सदैव मार्ग दर्शक रहा। आज परसाईजी का जन्मदिन है। इस अवसर मैं उनके प्रति विनम्र श्रद्धांजलि प्रकट करता हूँ।
मेरी पसंद
1.इस देश के बुद्धिजीवी शेर हैं,पर वे सियारों की बरात में बैंड बजाते हैं.
2.जो कौम भूखी मारे जाने पर सिनेमा में जाकर बैठ जाये ,वह अपने दिन कैसे बदलेगी!
3.अच्छी आत्मा फोल्डिंग कुर्सी की तरह होनी चाहिये.जरूरत पडी तब फैलाकर बैठ गये,नहीं तो मोडकर कोने से टिका दिया.
4.अद्भुत सहनशीलता और भयावह तटस्थता है इस देश के आदमी में.कोई उसे पीटकर पैसे छीन ले तो वह दान का मंत्र पढने लगता है.
5.अमरीकी शासक हमले को सभ्यता का प्रसार कहते हैं.बम बरसते हैं तो मरने वाले सोचते है,सभ्यता बरस रही है.
6.चीनी नेता लडकों के हुल्लड को सांस्कृतिक क्रान्ति कहते हैं,तो पिटने वाला नागरिक सोचता है मैं सुसंस्कृत हो रहा हूं.
7.इस कौम की आधी ताकत लडकियों की शादी करने में जा रही है.
8.अर्थशास्त्र जब धर्मशास्त्र के ऊपर चढ बैठता है तब गोरक्षा आन्दोलन के नेता जूतों की दुकान खोल लेते हैं.
9.जो पानी छानकर पीते हैं, वे आदमी का खून बिना छना पी जाते हैं .
10.नशे के मामले में हम बहुत ऊंचे हैं.दो नशे खास हैं–हीनता का नशा और उच्चता का नशा,जो बारी-बारी से चढते रहते हैं.
11.शासन का घूंसा किसी बडी और पुष्ट पीठ पर उठता तो है पर न जाने किस चमत्कार से बडी पीठ खिसक जाती है और किसी दुर्बल पीठ पर घूंसा पड जाता है.
12.मैदान से भागकर शिविर में आ बैठने की सुखद मजबूरी का नाम इज्जत है.इज्जतदार आदमी ऊंचे झाड की ऊंची टहनी पर दूसरे के बनाये घोसले में अंडे देता है.
13.बेइज्जती में अगर दूसरे को भी शामिल कर लो तो आधी इज्जत बच जाती है.
14.मानवीयता उन पर रम के किक की तरह चढती – उतरती है,उन्हें मानवीयता के फिट आते हैं.
15.कैसी अद्भुत एकता है.पंजाब का गेहूं गुजरात के कालाबाजार में बिकता है और मध्यप्रदेश का चावल कलकत्ता के मुनाफाखोर के गोदाम में भरा है.देश एक है.कानपुर का ठग मदुरई में ठगी करता है,हिन्दी भाषी जेबकतरा तमिलभाषी की जेब काटता है और रामेश्वरम का भक्त बद्रीनाथ का सोना चुराने चल पडा है.सब सीमायें टूट गयीं.
16.रेडियो टिप्पणीकार कहता है–’घोर करतल ध्वनि हो रही है.’मैं देख रहा हूं,नहीं हो रही है.हम सब लोग तो कोट में हाथ डाले बैठे हैं.बाहर निकालने का जी नहीं होत.हाथ अकड जायेंगे.लेकिन हम नहीं बजा रहे हैं फिर भी तालियां बज रही हैं.मैदान में जमीन पर बैठे वे लोग बजा रहे हैं ,जिनके पास हाथ गरमाने को कोट नहीं हैं.लगता है गणतन्त्र ठिठुरते हुये हाथों की तालियों पर टिका है.गणतन्त्र को उन्हीं हाथों की तालियां मिलती हैं,जिनके मालिक के पास हाथ छिपाने के लिये गर्म कपडा नहीं है.
17.मौसम की मेहरवानी का इन्तजार करेंगे,तो शीत से निपटते-निपटते लू तंग करने लगेगी.मौसम के इन्तजार से कुछ नहीं होता.वसंत अपने आप नहीं आता,उसे लाना पडता है.सहज आने वाला तो पतझड होता है,वसंत नहीं.अपने आप तो पत्ते झडते हैं.नये पत्ते तो वृक्ष का प्राण-रस पीकर पैदा होते हैं.वसंत यों नहीं आता.शीत और गरमी के बीच जो जितना वसंत निकाल सके,निकाल ले.दो पाटों के बीच में फंसा है देश वसंत.पाट और आगे खिसक रहे हैं.वसंत को बचाना है तो जोर लगाकर इन दो पाटों को पीचे ढकेलो–इधर शीत को उधर गरमी को .तब बीच में से निकलेगा हमारा घायल वसंत.
18.सरकार कहती है कि हमने चूहे पकडने के लिये चूहेदानियां रखी हैं.एकाध चूहेदानी की हमने भी जांच की.उसमे घुसने के छेद से बडा छेद पीछे से निकलने के लिये है.चूहा इधर फंसता है और उधर से निकल जाता है.पिंजडे बनाने वाले और चूहे पकडने वाले चूहों से मिले हैं.वे इधर हमें पिंजडा दिखाते हैं और चूहे को छेद दिखा देते हैं.हमारे माथे पर सिर्फ चूहेदानी का खर्च चढ रहा है.
19.एक और बडे लोगों के क्लब में भाषण दे रहा था.मैं देश की गिरती हालत,मंहगाई ,गरीबी,बेकारी,भ्रष्टाचारपर बोल रहा था और खूब बोल रहा था.मैं पूरी पीडा से,गहरे आक्रोश से बोल रहा था .पर जब मैं ज्यादा मर्मिक हो जाता ,वे लोग तालियां पीटने लगते थे.मैंने कहा हम बहुत पतित हैं,तो वे लोग तालियां पीटने लगे.और मैं समारोहों के बाद रात को घर लौटता हूं तो सोचता रहता हूं कि जिस समाज के लोग शर्म की बात पर हंसे,उसमे क्या कभी कोई क्रन्तिकारी हो सकता है?होगा शायद पर तभी होगा जब शर्म की बात पर ताली पीटने वाले हाथ कटेंगे और हंसने वाले जबडे टूटेंगे .
20.निन्दा में विटामिन और प्रोटीन होते हैं.निन्दा खून साफ करती है,पाचन क्रिया ठीक करती है,बल और स्फूर्ति देती है.निन्दा से मांसपेशियां पुष्ट होती हैं.निन्दा पयरिया का तो सफल इलाज है.सन्तों को परनिन्दा की मनाही है,इसलिये वे स्वनिन्दा करके स्वास्थ्य अच्छा रखते हैं.
21.मैं बैठा-बैठा सोच रहा हूं कि इस सडक में से किसका बंगला बन जायेगा?…बडी इमारतों के पेट से बंगले पैदा होते मैंने देखे हैं.दशरथ की रानियों को यज्ञ की खीर खाने से पुत्र हो गये थे.पुण्य का प्रताप अपार है.अनाथालय से हवेली पैदा हो जाती है.
-हरिशंकर परसाई
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इसी व्यंग्य की कुछ पंक्तिया (स्मृती के आधार पर)
“कुछ लोगो की नाक कलमदार होती है। जैसे ही खुशबू कम होने लगी कलम करवा ली।”
“जैसे कीसी लडकी को छेड दिया और जुते खा गये। जुते खा गये अजब मुहावरा है, जुते तो मारे जाते है खाये कैसे जाते है ? मगर भारतवासी इतना भूखमरा है कि जुते भी खा जाता है”
“चोरी की इलजाम मे पकडे गये हौ और बाजार से हथकडी लगा के ले जाये जा रहे है। इनकी नाक तो इनकी तिजोरी मे है, जेल से छुटने के बाद फिर पहन लेंगे”
परसाई जी को मेरी भी विनम्र श्रद्धांजलि।
इन सारे लेखों के लिए फिर एक बार धन्यवाद!
तब तो आपके संग्रह-दर्शन हेतु शीघ्र प्रबंध करना होगा:)
…7.इस कौम की आधी ताकत लडकियों की शादी करने में जा रही है. …
और बाकी बची आधी – धर्म-कर्म और पाखण्डों में !
आशा है आप परसाई जी का साहित्य पूर्व की तरह ही आगे भी समय समय पर हम सबको पढ़वाते रहेंगे.
परसाईजी ने व्यंग्य को हिंदी लेखन में प्रतिष्ठा दिलाई।उनका लेखन समसामयिक घटनाओं पर आधारित रहता था । कुछ लोग इसे तात्कालिक लेखन मानते थे और कहते थे कि परसाई जी को कुछ ‘कालजयी’ लिखना चाहिये।शाश्वत साहित्य। इस पर परसाईजी का कहना था-
मैं शाश्वत साहित्य रचने का संकल्प लेकर लिखने नहीं बैठता। जो अपने युग के प्रति ईमानदार नहीं रहता ,वह अनन्तकाल के प्रति कैसे हो लेता है,मेरी समझ से परे है।
परसाई जी को मेरी विनम्र श्रद्धांजलि।
की कैसे कोई व्यक्ति कभी टौर्च वाला बन कर सीधा सदा सा प्रश्न पूछता है …..”कैसे “???????……..फिर वाही फाइल में भोलाराम का जिव बन कर पूछता है ….”क्यों “????…….ऐसा क्यों ….क्या आम आदमी का अपना सा दिखने वाला आम पर विचित्र रचनाकार हैं हरिशंकर परसाई ……