http://web.archive.org/web/20110926111523/http://hindini.com/fursatiya/archives/180
अनूप शुक्ला: पैदाइश तथा शुरुआती पढ़ाई-लिखाई, कभी भारत का मैनचेस्टर कहलाने वाले शहर कानपुर में। यह ताज्जुब की बात लगती है कि मैनचेस्टर कुली, कबाड़ियों,धूल-धक्कड़ के शहर में कैसे बदल गया। अभियांत्रिकी(मेकेनिकल) इलाहाबाद से करने के बाद उच्च शिक्षा बनारस से। इलाहाबाद में पढ़ते हुये सन १९८३में ‘जिज्ञासु यायावर ‘ के रूप में साइकिल से भारत भ्रमण। संप्रति भारत सरकार के रक्षा मंत्रालय के अंतर्गत लघु शस्त्र निर्माणी ,कानपुर में अधिकारी। लिखने का कारण यह भ्रम कि लोगों के पास हमारा लिखा पढ़ने की फुरसत है। जिंदगी में ‘झाड़े रहो कलट्टरगंज’ का कनपुरिया मोटो लेखन में ‘हम तो जबरिया लिखबे यार हमार कोई का करिहै‘ कैसे धंस गया, हर पोस्ट में इसकी जांच चल रही है।
अमरीका सुविधायें देकर हड्डियों में समा जाता है
[अतुल ने प्रवासी जीवन के बारे में लिखी मेरी पोस्ट में डा.अंजना संधीर की कविता ,अमरीका सुविधायें देकर हड्डियों में समा जाता है, का जिक्र किया था। इस कविता का अनुवाद अनेक भाषाओं में हो चुका है। अनूप भार्गव जी ने वह कविता मुझे भेजी है। मैं यहाँ पर डा. अंजना संधीर की कविता पोस्ट कर रहा हूँ-डा. अंजना संधीर तथा अनूप भार्गव जी को धन्यवाद देते हुये।]
वे ऊँचे-ऊँचे खूबसूरत हाई-वे,डा.अंजना संधीर
जिन पर चलती हैं कारें,
तेज रफ्तार से कतारबद्ध,
चलती कार में चाय पीते-पीते,
टेलीफोन करते,
दूर-दूर कारों में रोमांस करते,
अमरीका धीरे-धीरे सांसों में उतरने लगता है।
मूंगफली और पिस्ते का एक भाव,
पेट्रोल और शराब पानी के भाव,
इतना सस्ता लगता है,
सब्जियों से ज्यादा मांस
कि ईमान डोलने लगता है
मंहगी घास खाने से अच्छा है सस्ता मांस खाना
और धीरे-धीरे-
अमरीका स्वाद में बसने लगता है।
गरम पानी के शावर,
टेलीविजन की चैनलें,
सेक्स के मुक्त दृश्य,
किशोरावस्था से वीकेन्ड में गायब रहने की स्वतंत्रता,
डिस्को की मस्ती,
अपनी मनमानी का जीवन,
कहीं भी,कभी भी,किसी के भी साथ-
उठने-बैठने की आजादी
धीरे-धीरे हड्डियों में उतरने लगता है अमेरिका।
अमरीका जब सांसों में बसने लगा-
तो अच्छा लगा
क्योंकि सांसों को-
पंखों की उडा़न का अन्दाजा हुआ
जब स्वाद में बसने लगा अमरीका
तो सोचा -खाओ ,
इतना सस्ता कहाँ मिलेगा?
लेकिन हड्डियों बसने लगा अमरीका तो परेशान हूँ
बच्चे हाथ से निकल गये,
वतन छूट गया,
संस्कृति का मिश्रण हो गया,
जवानी बुढ़ा गई,
सुविधायें हड्डियों में समा गयीं-
अमरीका सुविधायें देकर हड्डियों में समा जाता है।
व्यक्ति वतन को भूल जाता है,
और सोचता रहता है,
मैं अपने वतन जाना चाहता हूँ,
मगर इन सुखों की गुलामी
मेरी हड्डियों में बस गयी है,
इसीलिये कहता हूँ- तुम नये हो
अमरीका जब सांसों में बसने लगे,
तुम उड़ने लगो,
तो सात समंदर पार -
अपनों के चेहरे याद रखना,
जब स्वाद में बसने लगे अमरीका-
तो अपने घर के खाने
और माँ की रसोई याद करना,
सुविधाओं में असुविधायें याद रखना
यहीं से जाग जाना,
संस्कृति की मशाल जगाये रखना,
अमरीका को हड्डियों में मत बसने देना
अमरीका सुविधायें देकर हड्डियों में जम जाता है।
Posted in कविता, मेरी पसंद | 15 Responses
उन की एक गज़ल देखिये :
होंठ चुप है निगाह बोले है
आंख सब दिल के राज खोले है
उसका दुश्मन जमाना हो ले है
आजकल जो ज़बान खोले है
आइना देख लीजिये साहब
आइना साफ़ साफ़ बोले है
मुझ को महसूस अब ये होता है
मेरी सोचों में तू ही बोले है
हम हों तुम हों कि बूटा बूटा हो
मीर की ही ज़बान बोले है
अब गुजरती नहीं गुजारते हैं
ज़िन्दगी अब सफ़र में डोले है
दिन गुजरता है रात होती है
सुबह होती है शाम होले है ।
सच्ची और बेबाक कविता।
……………भाई किसने जबरदस्ती की है कि आप अमेरिका चले आओ
तुम्हें इंडिया से कब फुरसत, हम यू एस से कब खाली।
चलो बस हो चुका कोसना, ना तुम खाली ना हम खाली।।
जहाँ रहो वहाँ के होके रहो और मस्त रहो स्वर्ग ना भारत है ना ही अमेरिका वैसे ही नर्क ना भारत है ना ही अमेरिका इसलिये दोनो जगह के अपने अपने फायदे नुकसान हैं। अब ये रहने वाले को चुनना है कि उसकी शोपिंग लिस्ट में कौन कौन से फायदे और कौन कौन से नुकसान हैं।
चंदन कुमार मिश्र की हालिया प्रविष्टी..नीतीश कुमार के ब्लॉग से गायब कर दी गई मेरी टिप्पणी (हिन्दी दिवस आयोजन से लौटकर)