Friday, August 17, 2007

प्रतिमा का सिन्दूर खरोंचे

http://web.archive.org/web/20140419215943/http://hindini.com/fursatiya/archives/323

प्रतिमा का सिन्दूर खरोंचे

[आजकल ब्लागजगत में इस बात पर बहस जोरों से है कि जन गण मन का अधिनायक क्या जार्ज पंचम है? लोग अभय भैया की बात मान के ही नहीं दे रहे हैं और रवीन्द्र नाथ जी को जार्ज पंचम का चापलूस साबित करने पर तुले हैं। अभयजी की झुंझलाहट(दुनिया में काफ़ी चीज़ों का इलाज है..वितण्डा और मूर्खता का कोई इलाज नहीं..हद है भाई) देखकर मजा आ रहा है। :) इष्ट्देव ने तो हजारीप्रसाद दिवेदी के लिखे को भी पेशेगत मजबूरी जैसी कुछ चीज बतायी है। हजारीप्रसादजी रवीन्द्रनाथ जी के प्रति बहुत श्रद्धा रखते थे। बनारसीदास चतुर्वेदी को १९.०९.४५ को लिखे अपने एक पत्र में उन्होंने लिखा था- रवीन्द्रनाथ को देखने का जिस दिन मुझे अवसर मिला वह दिन मेरे अनेक जन्म के पुण्यों का फ़ल था। मैंने बिल्कुल नयी दृष्टि और नया विश्वास पाया। दोष मुझमें अनेक हैं। सब ठीक से छिपे हों ऐसी बात नहीं है। कितनी बातें जानी फिर भी उन्हें सुधार सकने की क्षमता नहीं है। इसलिये मैं रवीन्द्रनाथ को जितना ग्रहण करना चाहिये था उतना ग्रहण नहीं कर पाया। परन्तु उनके दर्शन से मेरे अन्तर में निश्चित रूप से आलोड़न हुआ था और कुछ न कुछ मैल जरूर गिर गयी थी। मेरी अल्पबुद्धि यह मानती है कि एक चापलूस व्यक्ति और कुछ भी कर सकता है लेकिन लोगों में नयी दष्टि, नया विश्वास और आलोड़न जैसे काम नहीं कर सकता। ये उद्गार हजारीप्रसाद जी ने अपने व्यक्तिगत पत्र में लिखे हैं। तब गुरुदेव जीवित नहीं थे।
जनगणमन किसकी आराधना में लिखा गया यह सिवाय रवीन्द्र्नाथ के कोई नहीं बता सकता। संयोग से आज वे भी हमारे बीच नहीं हैं। हम तो कयास ही लगा सकते हैं। इस बात पर विचार करने के पहले सोचना चाहिये कि चापलूस और दरबारी कवि कभी दबी-छुपी तारीफ़ नहीं करता। खुल के अर्चना, आराधना, वंदना करता है ताकि बात जहांपनाह तक पहुंच जाये। जब हम भारतीय ही इस बात पर एकमत नहीं हो पाये कि जनगणमन कौन है तो उ ससुरे अंगरेजवन को का बझायेगा?
गुरुदेव पर आरोप लगाने वालों को यह भी सोचना चाहिये कि उस समय बंगाल भारतीय स्वाधीनता संग्राम में सक्रिय रूप से भाग ले रहा था। बंग-भंग के विरोध में पूरे देश में आंदोलन हुये। रवीन्द्रनाथ ने स्वयं अपने उपाधियां लौटाईं। वे देश के और खासकर बंगाल के गौरव के रूप में स्थापित हो चुके थे। बंगाली अस्मिता का प्रतीक कवि किसी सम्राट की गुपचुप वंदना करेगा- यह मानने का मन नहीं करता।
हरिशंकर परसाई जी ने इस मानसिकता पर एक बड़ा मौजूं लेख लिखा है। इसमें कुछ लोगों द्वारा महान व्यक्तियों की निंदा करने की आदतों का जिक्र किया है। यह लेख पढ़ते समय यह ध्यान रखने की जरूरत है कि परसाई जी और कुछ भले रहे हों चापलूस नहीं थे। वे नेहरू को अपना हीरो मानते थे लेकिन उन्होंने नेहरू के खिलाफ़ तमाम लेख उस समय लिखे हैं जब नेहरू की तारीफ़ में वंदना का दौर था। इस लेख में भी उन्होंने रवीन्द्र नाथ टैगोर की भी स्वाभाविक मानवीय कमजोरियों का भी जिक्र किया है। और हां, जब उन्होंने यह लेख लिखा था तब वे किसी की नौकरी नहीं करते थे। किसी का नमक नहीं खाते थे। इसलिये यह इस लेख से आप सहमत हों या न हों लेकिन इसे जीविका की मजबूरी के चलते लिखा न बतायें।
यह लेख खासकर इसलिये भी महत्वपूर्ण है कि जैसे-जैसे ब्लागजगत में हलचल बढ़ती जा रही है, वैसे-वैसे यहां भी सिंदूर खरोंचने की पृवत्ति बढ़ती जा रही है। कुछ होलटाइमर कागभुशुन्ड सक्रिय हैं और वातावरण को सनसनीखेज और शानदार बना रहे हैं।
अभयजी के बहाने यह लम्बा लेख टाइप हो गया। इसे बहुत बार पहले पोस्ट करने की सोची लेकिन नहीं कर पाया। लेकिन कभी न से देर ही सही। :)]

प्रतिमा का सिन्दूर खरोंचे

कवि जीवनलाल वर्मा ‘विद्रोही’ की एक कविता का प्रथम पद है-
कागभुशुण्ड गरुड़ से बोले,
आओ कुछ लड़ जायें चोंचे,
चलो किसी मंदिर के अन्दर,
प्रतिमा का सिंदूर खरोंचे।
जब हम भारतीय ही इस बात पर एकमत नहीं हो पाये कि जनगणमन कौन है तो उ ससुरे अंगरेजवन को का बझायेगा?
कागभुशुण्ड और गरुड़ पौराणिक प्रतीक-व्यक्तित्व हैं। गरुड़ का तो ‘गरुड़ पुराण’ है जिसे पढ़ना और सुनना भयावह अनुभव है। दोनों ज्ञानी हैं। गरुड़ पर बैठकर भगवान कभी-कभी तफ़रीह के लिये अन्तरिक्ष में निकल जाते हैं। गरुड़ कभी ‘हाईजैक’ (आकाश हरण)हुआ हो, ऐसा प्रमाण पुराणों में नहीं मिलता।
कागभुशुण्ड(कौआ) और गरुड़(ईगल सरीखा) ज्ञानी हैं। बैठकर कथा-पुराण कहते-सुनते हैं। ज्ञानचर्चा करते हैं। जिज्ञासुओं की शंकाओं का समाधान करते हैं, ज्ञानचर्चा करते हैं। कोई जिज्ञासु कागभुशुण्ड से पूछता है -रमापति कहें या सीतापति? तो कागभुशुण्ड कहते हैं- गरुड़ से पूछो। वे अधिक ज्ञानी हैं। और यही प्रश्न कोई गरुड़ से पूछे तो वे कहते हैं- कागभुशुण्ड से पूछो। वे मुझसे अधिक ज्ञानी हैं। दो ज्ञानियों मे सद्भाव का यह एकमात्र उदाहरण है। मुझ पर विश्वास न हो तो विश्वविद्यालय के आचार्यों से पूछ लीजिये। ज्ञानियों में स्वाभाविक सहसम्बन्ध यह है- पण्डित पण्डित को देखकर कुत्ते की तरह गुरगुराता है। यह संस्कृत सुभाषित है।
ज्ञानियों में स्वाभाविक सहसम्बन्ध यह है- पण्डित पण्डित को देखकर कुत्ते की तरह गुरगुराता है।
कविता में जो कागभुशुन्ड है, वह कौआ है। पशुऒं में जितना निन्दित सियार है, पक्षियों में उतना ही निन्दित कौआ है। एक आंख का कनवा, कर्कश आवाज, हमेशा कीड़े-मकोड़े खोजता है। यह कौआ है, जो कहता है कि चलो मन्दिर में प्रतिमा का सिन्दूर खरोंचे-यानी जो महिमा मण्डित हैं, उसकी महिमा को नष्ट कर दें।
यह तो कवि की बात हुयी? व्यवहार में महिमा ओढ़ने वाले होते हैं, वे होते हैं जो महिमा मण्डित होने का इन्तजाम खुद कर लेते हैं। और वे भी बिरले होते हैं जिन्हें लोग सच्ची श्रद्धा से महिमा मण्डित करते हैं। ऐसे भी होते हैं जो होते हैं कौआ पर हंस को अपनी मण्डित करवा लेते हैं। जीवन काल में इनके प्रभाव के कारण हंस बने रहते हैं। पर उनके मरने पर कौए नहीं ,हंस उनका सिन्दूर खरोंच कर बताते हैं कि यह कौआ था।
दिलचस्प चीजें होती हैं महिमा मण्डन और महिमा खण्डन के खेल में। लोग बड़ी शिद्दत से इसे करते हैं। कभी-कभी यह खेल हास्यास्पद होता है और कभी या तो महान सृजनकारी या महान विनाशकारी। महिमा धारियों ने मानव-जाति का हित भी किया है और अहित भी।
एक घटना छोटे महिमामयों के बारे में। कांग्रेस के मुख्यमंत्री थे एक राज्य में। दबदबा था। एक शहर के व्यापारियों ने तय किया कि इनके नाम से एक सार्वजनिक भवन बनवाया जाये। मुख्यमंत्री से शिलान्यास करवा लिया गया। उनके नाम से भवन बनाने की घोषणा भी कर दी। भवन बन ही रहा था कि सरकार पलट गयी। वे मुख्यमंत्री नहीं रहे। संयुक्त विधायक दल की सरकार बनी और एक जनसंघी मुख्यमंत्री बन गये। अब व्यापारियों में सलाह हुई। कहने लगे- नया मुख्यमंत्री उनका कट्टर शत्रु है जिनके नाम पर हम भवन बना रहे हैं। यह मुख्यमंत्री हमसे नाराज हो जायेगा\ तो क्या करें? किसी ने कहा- तो वह पत्थर अलग कर दो जिस पर भूतपूर्व का नाम खुदा है। और नये मुख्यमंत्री से उसके नाम के भवन का उदधाटन करा लो। दूसरों ने कहा- यह मुख्यमंत्री भी साल भर से ऊपर नहीं रहेगा। जोड़-तोड़कर बनाई गयी सरकार है। किसी ने कहा- तो फिर कांग्रेस की सरकार बनेगी।अधिक सयाने के कहा- पर यह क्या तय है कि यही मुख्यमंत्री बनेंगे जिनके नाम का पत्थर लगा है। पांच उम्मीदवार दिल्ली में चक्कर लगा रहे हैं। तो फिर क्या करें? सयाने व्यापारी ने कहा- भैया किसी ऐसे आदमी के नाम से भवन बनाओ जो न कभी मुख्यमंत्री बने न निकाला जाये। सबसे अच्छा मरा हुआ बड़ा आदमी होता है। ‘लोकमान्य तिलक भवन ‘ बनाओ। निकाल दो उस मुख्यमंत्री का पत्थर। वह पत्थर निकल गया और लोकमान्य तिलक भवन बन गया।
व्यापारी ने कहा था- सबसे अच्छा मरा हुआ बड़ा आदमी होता है। तो एक दो मरे हुये बड़े आदमियों के सिन्दूर का हाल देख लें। मेरा अनुमान है कि हर साल दस-बारह अच्छी पुस्तकें तो जवाहरलाल नेहरू पर हमारे देश में ही निकलती हैं। नये-नये कोणों से अध्ययन हो रहा है। दुनिया में भी लिखी जाती हैं। कोई व्यक्ति जब इतिहास बन जाता है, तब उसका अध्ययन और मूल्यांकन चलता रहता है।उनके व्यक्तित्व पर भी लिखा जाता है। चौधरी चरणसिंह जब प्रधानमंत्री हो गये, तो
खोज की गयी कि उन्हें रबड़ी, मलाई, खाना पसन्द है और वे साबुन का उपयोग नहीं करते। मोरारजी भाई जब प्रधानमंत्री हुये तो खोज हुयी कि उनका एक बार का भोजन तब (१९७७ में) चालीस रुपये होता था और वे साबुन का इस्तेमाल नहीं करते थे। वे अन्न नहीं खाते। मेवे, फ़ल, फ़लों का रस आदि खाते नहीं सेवन करते हैं। तभी जब १९७७ में इंदिरा गांधी बुरी तरह पराजित हुयीं , तब नेहरू के व्यक्तिगत सचिव रहे एम.ओ. मथाई ने दो किताबें सुअवसर देखकर नेहरू और उनके परिवार के बारे में लिख डालीं। लिखा कि नेहरू के श्रद्धामाता सन्यासिनी से एक बेटा था। इन्दिराजी के बारे में बहुत कुछ लिखकर यह सिद्ध करना चाहा कि उनके निकट सिर्फ़ मैं ही था। पर सबसे अधिक गुस्सा कृष्णा मेनन पर दिखाया। मेनन पर पांच अध्याय उनके व्यक्तिगत और राजनैतिक चरित्र हनन के लिये लिखे। इन मथाई का चरित्र यह था कि ये नेहरू के सचिव के रूप में अमेरिकी एजेंट भी थे। उनकी पोल भूपेश गुप्त ने संसद में खोली तब नेहरू ने उन्हें निकाला।
इससे पहला साल नेहरू शताब्दी वर्ष था। राजीव गांधी प्रधानमंत्री थे। साल भर शानदार कार्यक्रम हुए। मगर वर्ष का अन्त होने के पहले ही विश्वनाथ प्रताप सिंह की खिचड़ी सरकार आ गई। पन्द्रह अगस्त को लालकिले से भाषण में विश्वनाथ की हिम्मत नेहरू का नाम लेने की नहीं हुई। उन्हें डर होगा कि उनके दल में लोहिया समाजवादी और भारतीय जनता पार्टी वाले नाराज होंगे। दूसरे नेहरू राजीव गांधी के नाना थे। विरोधी के नाना की तारीफ़ नहीं की जाती।
शताब्दी वर्ष के अन्त पर मैंने नटवर सिंह (पूर्व विदेश मंत्री) का दुख भरा लेख पढ़ा। लिखा था कि हमने अन्तिम समारोह के लिये कितनी शानदार तैयारियां की थीं। नेहरू पर किताबें विमोचित होनी थीं। दिल्ली में शानदार उत्सव का आयोजन होना था। अन्तर्राष्ट्रीय सेमिनार होना था। दुनिया-भर में हमारे दूतावासों को समारोह करना था। पर हाय, दूसरी सरकार आ जाने से सब धरा का धरा रह गया।
जैसे-जैसे ब्लागजगत में हलचल बढ़ती जा रही है, वैसे-वैसे यहां भी सिंदूर खरोंचने की पृवत्ति बढ़ती जा रही है। कुछ होलटाइमर कागभुशुन्ड सक्रिय हैं और वातावरण को सनसनीखेज और शानदार बना रहे हैं।
पर समारोह के अन्तिम चरण में ,मैं चकित भी हुआ और खुश भी। लोकसभा के अध्यक्ष रविराय डा. लोहिया के बहुत निकट थे। मैं किसी लोहियावादी से आशा नहीं करता कि वह नेहरू की तारीफ़ करेगा। पर रविराय ने अपनी श्रद्धांजलि में नेहरू की बहुत तारीफ़ की। उन्हें और बातों के अलावा आधुनिक भारत का निर्माता कहा। नेहरू का जन्मदिन ‘बाल दिवस’ के रूप में मनाया जाता रहा है। इस बार जिन राज्यों में भारतीय जनता पार्टी की सरकारें हैं , यह नहीं मनाया गया। वे
बच्चों को नेहरू रोग से बचाना चाहते थे। भारतीय जनता पार्टी अपने एक नेता दीनदयाल उपाध्याय के नाम से कार्यक्रम चला रही है। उसका दूसरा प्रचार है- नेहरू नहीं सरदार वल्लभ भाई पटेल देश के पहले प्रधानमंत्री होते तो देश के लिये अच्छा होता। पटेल चाहते थे कि हमारी पूरी फ़ौज कश्मीर पर कब्जा कर ले। पर नेहरू ने संयुक्त राष्ट्र संघ का युद्ध बंदी आदेश मानकर हमेशा के लिये झगड़ा छोड़ दिया। पर फ़ौज के अनुभवी अफ़सर बताते हैं कि अगर युद्ध बंदी न होती तो पूरा कश्मीर पाकिस्तान का हो जाता। कश्मीर में न काफ़ी सेना थी, न हथियार। हेलीकाप्टर से तो तोपें भेजी गयीं थीं और हवाई जहाज से सिपाही।
महात्मा गांधी का सिन्दूर कभी पुंछता है और कभी लगता है। मैं जब स्कूल में पढता था, तब अंग्रेज राजभक्तों के मुंह से यह प्रचार सुनता था -ये गांधी हरिजनों के नाम से पैसा बटोरता है और ल़ड़के के नाम से अहमदाबाद में कपड़े का कारखाना खोलता है।
स्वतंत्रता के बाद हर शहर और कस्बे में सड़कों का नाम महात्मा गांधी मार्ग रखा गया। यानी यह देश गांधी मार्ग पर चल रहा है।
स्वतंत्रता के बाद हर शहर और कस्बे में सड़कों का नाम महात्मा गांधी मार्ग रखा गया। यानी यह देश गांधी मार्ग पर चल रहा है। गांधीजी का सिन्दूर ही नहीं पोंछा , उनकी जान भी ले ली हिंदू साम्प्रदायिकता नें। पर गांधी की जान तो गयी, महिमा बढ़ी। आज जो भयावह साम्प्रदायिक राजनीति चल रही है, तब गांधी के ‘ईश्वर अल्लाह तेरे नाम’ की याद बहुत आ रही है। बीच में कुछ साल साम्पदायिकता ने कूटनीतिक तिलक लगाया। भारतीय जनता पार्टी ने सोचा कि इस कम्बख्त गांधी से छुटकारा नहीं है। और छुटकारा नहीं है ‘समाजवाद’ शब्द से जो हर भारतीय के दिमाग में जम गया है। तो भारतीय जनता पार्टी ने अपना कार्यक्रम गांधीवादी समाज वाद घोषित कर दिया। यह अटलबिहारी बाजपेयी ने करवाया। गांधीजी का चित्र भारतीय जनता पार्टी के मंचों पर सुशोभित होने लगा। पर दो-तीन-साल बाद ही कट्टर पंथियों ने गांधी को त्याग दिया। इस अहिंसक गांधी से एक और हिंसा हो गई- अटलबिहारी बाजपेयी के राजनैतिक भविष्य की। वे हाशिये पर आ गये। नीति-निर्माता के बजाय शोब्वाय हो गये। लालकृष्ण अडवाणी रथयात्रा करते हैं और बाजपेयी उनकी जय बोलते हैं।
औद्योगिक सभ्यता और पूंजीवाद और परस्पर संघर्ष से त्रस्त दुनिया भर के लोग गांधी को याद करते हैं। इक्कीसवीं सदी में आदमी का जीवन कैसा होगा? मशीनीकरण, सीमेंट कांक्रीट के जंगल, लोलुपता, अमानवीकरण। ऐसे में गांधी मार्ग ही मनुष्य जाति को राहत दे सकता है। अमेरिका और रूस में गांधी की प्रतिमायें लग रही हैं। पिछले दिनों नेल्सन मंडेला भारत आये थे। वे गांधी को अपना प्रेरणा-पुरुष मानते हैं। हर भाषण में मंडेला ने गांधी जी की जय बोली। कुछ लोगों को बुरा लगा।
एक ‘शनिवार की पाती’ निकलता था जो रवीन्द्रनाथ का विरोधी था। इसी गुट ने प्रचार किया कि -जनगणमन गीत रवीन्द्र नाथ ने सम्राट जार्ज पंचम की स्तुति में लिखा। कोई भी पूरा गीत पढ़े तो समझ जायेगा कि यह किसी राजा के प्रति नहीं है, उस परम शक्ति के प्रति है जो राजाओं और जनगण की नियति तय करती है।
रवीन्द्रनाथ ठाकुर को नोबल पुरस्कार मिला, तो वे बहुत महिमा मण्डित हो गये। उनका सिन्दूर दूसरे लेखकों को अखरा। द्विजेन्द्रलाल राय बहुत उत्तम नाटककार थे। उनके आसपास लेखकों का एक गुट था जिसने रवीन्द्रनाथ का सिन्दूर खरोंचने का काम ले लिया। एक ‘शनिवार की पाती’ निकलता था जो रवीन्द्रनाथ का विरोधी था। इसी गुट ने प्रचार किया कि -जनगणमन गीत रवीन्द्र नाथ ने सम्राट जार्ज पंचम की स्तुति में लिखा। कोई भी पूरा गीत पढ़े तो समझ जायेगा कि यह किसी राजा के प्रति नहीं है, उस परम शक्ति के प्रति है जो राजाओं और जनगण की नियति तय करती है। दूसरा ही पद है-

पतन-अभ्युदय बन्दुर पन्था युग-युग धावति यात्री
हे चिर सारथि, तव रथचक्रे मुखरित पथ दिन रात्री
दारुण विल्लवमाझे तव शंखध्वनि बाजे, गाहे तव जय गाथा
जनगणऎक्य विधायक जय हे भारत भाग्य विधाता
जय हे, जय हे, जय हे!


यह किसी राजा के प्रति हो ही नहीं सकता। यह गीत कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में गाया गया था। इसके सिवा रवीन्द्रनाथ ने एक और गीत का पाठ किया था।

पर शरत बाबू का सिन्दूर पोंछने की कोशिश रवीन्द्रनाथ ने भी की । शरत रवीन्द्र से बहुत बड़े कथाकार थे। रवीन्द्र को यह कुंठा थी। वे शरत की आलोचना करते थे और उनसे अच्छा व्यवहार नहीं करते थे। ईर्ष्या-द्वेष थे। गोर्की ने भी चेखव से कहा था कि तालस्ताय तुमसे जलते हैं, क्योंकि तुम उनसे अच्छी कहानियां लिखते हो।
रवीन्द्रनाथ ने एकबार इटली के तानाशाह मुसोलिनी को सिन्दूर लगा दिया था। हमारी सदी में तानाशाह काफ़ी हुये हैं, पर हिटलर और मुसोलिनी सबसे विनाशकारी हुये। हिटलर ने दुनिया-भर पर हमला बोल दिया था। देश बरबाद हुये। पांच करोड़ आदमी मारे गये। चरम क्रूरता हिटलर के नाजियों ने बरती। मुसोलिनी छोटा था। वह इटली का तानाशाह था। उसने अपने को महिमा-मण्डित कर लिया था। समाजवाद, जनकल्याण, संस्कृति, मानवतावाद-कितने पाखण्डों से उसने अपने को सजाया था। रवीन्द्रनाथ ठाकुर इटली आमन्त्रित किये गये। उन्हें ऐसा सब्जबाग दिखाया मुसोलिनी ने कि वे प्रभावित हो गये और उन्होंने मुसोलिनी की तारीफ़ कर दी। यह तमाम यूरोप के अखबारों में छपी।
महान फ़्रांसीसी लेखक शान्तिवादी, मानवतावादी रोम्यां रोला ने पढ़ा तो उन्हें बहुत बुरा लगा। रोम्यां रोला की भारत में विशेष रुचि थी। उन्होंने विवेकानन्द, महात्मा गांधी और श्री अरविन्द पर पुस्तकें लिखीं हैं। रोम्यां रोला ने रवीन्द्रनाथ को लिखा कि मुसोलिनी की तारीफ़ करके आपने बड़ी भूल की। वह तानाशाह है। फ़ासिस्ट है। अमानवीय है। आप अपने वक्तव्य का खंडन कीजिये। और यूरोप में जब हों , तो मुझसे मशवरा कर लिया कीजिये। तुरन्त खंडन करना रवीन्द्रनाथ के लिये अड़चन की बात थी। कुछ समय बाद जब वे जिनीवा में थे, तब फ़िर रोम्यां रोला ने मुसोलिनी के खिलाफ़ वक्तव्य देने को कहा। रवीन्द्रनाथ ने जिनीवा से व्क्तव्य दिया जिसमें पहले वक्तव्य का खण्डन किया।
एक विडम्बना है, जो शायद सिर्फ़ भारतीय मानस की है। यहां गरीबी को श्रद्धा मिलती है। कोई लेखक क्या सिर्फ़ इसलिये महान है कि वह गरीब है? अगर वह घटिया लिखता है, फ़िर भी क्या वह महान (लेखक) इसलिये मान लिया जाये कि वह पांच बार जेल गया है?
इधर कमल किशोर गोयनका प्रेमचन्द का शोधकार्य काफ़ी कर रहे हैं। मैंने जो पढ़ा उससे मालूम होता है कि प्रेमचंद का सिन्दूर पोंछ रहे हैं।उन्होंने शोध की है कि प्रेमचन्द गरीब नहीं थे। उनका चार हजार रुपयों से ऊपर का पैसा इलाहाबाद के बैंक में जमा था। वे सूदखोरी करते थे। एक विडम्बना है, जो शायद सिर्फ़ भारतीय मानस की है। यहां गरीबी को श्रद्धा मिलती है। कोई लेखक क्या सिर्फ़ इसलिये महान है कि वह गरीब है? अगर वह घटिया लिखता है, फ़िर भी क्या वह महान (लेखक) इसलिये मान लिया जाये कि वह पांच बार जेल गया है? उसका सम्मान उसके राजनैतिक संघर्ष के लिये होना चाहिये, उसके साहित्य के लिये नहीं। प्रेमचन्द गरीब नहीं थे जैसा माना जाता है -तो यह खुशी की बात है। मगर गोयनका इसे इस तरह पेश करते हैं कि यह कलंक की बात है कि बैंक में उनका पैसा था। तालस्ताय बहुत सम्पन्न थे। ब्रिटेन में जो लार्ड होते हैं, उनकी हैसियत के। पर रूस के गरीब किसानों की दुर्दशा का इतनी संवेदना से ऐसा मार्मिक
चित्रण उन्होंने किया है कि वे खुद गरीब किसान की तरह रहकर उस पीड़ा में शरीक हो गये। सिन्दूर खरोंचने वाले रूसी तालस्ताय का भी सिन्दूर खरोंचते थे।
इंदिरा गांधी इस मामले में इस साल मजे में रहीं। उनके जन्मदिन के पहले ही कांग्रेस के समर्थन से चन्द्रशेखर प्रधानमंत्री बने। यो चन्द्रशेखर इंदिरा- विरोधी रहे हैं। वे जयप्रकाश के नेतृत्व में चले सम्पूर्ण क्रान्ति के इंदिरा विरोधी आन्दोलन के एक नेता थे। वे इंदिरा गांधी की १९७७ के हार के आयोजक थे। पर उनकी सरकार इंदिरा के बेटे की कांग्रेस ने बनवाई तो इंदिराजी का जन्मदिन अच्छा मनाया गया। टेलेविजन ने भी काफ़ी कार्यक्रम दिये। राजनीति का फ़ेर है, सिन्दूर लगाना और सिंदूर खरोंचना।
हरिशंकर परसाई
परसाई जी के लेख संग्रह ऐसा भी सोचा जाता है से साभार!

16 responses to “प्रतिमा का सिन्दूर खरोंचे”

  1. अभय तिवारी
    सबसे पहले तो यह लेख छाप कर वादा निभाने के लिए बहुत शुक्रिया.. दूसरे आप ने जिन मजबूत तर्कों से गुरुदेव का बचाव किया.. वो पढ़कर भी अच्छा लगा..
    परसाई जी की कलम का जवाब नहीं.. सब को लपेटते हुए चलते हैं..
  2. नीरज रोहिल्ला
    अनूपजी,
    आज तो आपका लेख पढकर मजा ही आ गया । सिन्दूर खरोंचने वाले तो लगे ही रहेंगे, ईश्वर उन्हें सदबुद्धि दे ।
    साभार,
  3. ज्ञानदत्त पाण्डेय
    अनूप शुक्ल की प्रस्तावना कब समाप्त हुई और कब परसाई जी ने टेकओवर किया – पहली पढ़ान में तो पता ही न चला. अब मैं ऑन रिकार्ड कह सकता हूं कि सुकुल का लेखन बहुत अच्छी क्वालिटी का है.
    क्वालिटी भी खांटी है और क्वांटिटी भी भरपूर.
    —————-
    और यह सामयिक भी बहुत है. सिन्दूर तो क्या बहुत कुछ खरोंचा जा रहा है ब्लॉगरी में! :)
    और कहीं-कहीं तो दूसरे का सिन्दूर खरोंच कर अपनी मांग में लगा रहे हैं लोग! :)
  4. सागर चन्द नाहर
    ध्यान से पढ़ा जाये तो परसाई जी के इस लेख में सिंदूर तो खरोंचा ही जा रहा है।
  5. pramod singh
    देखिए, मै ख़ामख्‍़वाह गलती में था? ज्ञानदत्‍त जी व्‍यंग्‍य समझते तो नहीं हैं(?), लिख ज़रूर लेते हैं! आप तो ख़ैर, लिख लेते ही हैं. और परसाईं जी का तो क्‍या कहें, अभय ने कहा ही, जो कलम वो मारके लाये थे उसका जवाब नहीं?
  6. नीरज दीवान
    जॉर्ज पंचम की स्तुति में भी गाया हो तो क्या हर्ज । अपने प्रतीकों को गाहे बगाहे लज्जित करने की परंपरा बनी हुई है। ब्रिटेन में कई समूह ऐसे हैं जो राजवंश का स्तुतिगान नहीं कर सकते। वे गॉड सेव अवर ग्रेसियश क्वीन का गाना होते ही चुप हो जाते हैं। जिन्हें लगता है यह पंचम की स्तुति है तो चुपचाप रहें।
    बाकी प्रेमचंद का ज़िक्र पढ़ा और काफी मालूमात हुई।
  7. प्रियंकर
    बलिहारी! जय जय! धांसू! फ़न्ने खां! चुर्रैट!
    आपकी तरंग और उस तरंग का उत्ताल नर्तन और सर्वसमावेशी विस्तार जबर्दस्त है .
    आपकी तरंग को कोई चुनौती दे सकता है तो सिर्फ़ ज्ञान जी की टिप्पणी का ‘कंडेंस्ड’ व्यंग्य और भाषा की ‘ब्रेविटी’. आपका लेखन यदि गाढा,पौष्टिक दूध है तो ज्ञान जी की टिप्पणी ताजा घुटा मावा या खोया . अब आप लोग कुछ बोलते नहीं हैं सो बिना पूछे रबड़ी का रूपक हमने अपने लिए ‘रजिस्टर्ड’ करा लिया है .
    बोलो परसाई महाराज की जय!
  8. समीर लाल
    परसाई जी तो रहे नहीं ,मगर उनका यह सुभाषित हमेशा समायिक रहेगा:
    राजनीति का फ़ेर है, सिन्दूर लगाना और सिंदूर खरोंचना।
    अच्छा रहा यह आलेख यहाँ पढ़ना और आपकी भूमिका भी बहुत सजी. :)
    बधाई.
  9. arun
    अभय जो चाहते थे सही तरीके से आपने उसे प्रतिष्ठित कर दिया है..धन्यवाद जी
  10. आलोक पुराणिक
    शानधारम्, एक ही फुरसत में कितनों को निपटा डालते हैं जी रवींद्रनाथजी,परसाईजी, शरत चंद्रजी, ये जी वो जी।
  11. Srijan Shilpi » Blog Archive » अमेरिका बनाने की नहीं, चीन को पछाड़ने की सोचिए
    [...] कल अनूप जी का फिर उनका फोन आया, “तुम कुछ लिख क्यों नहीं रहे हो”। व्यस्तता और समय की कमी का पुराना बहाना फुरसतिया के सामने चलने वाला तो था नहीं, सो हमने प्रतिमा का सिंदूर खरोंचे वाली उनकी पिछली पोस्ट की तारीफ करनी शुरू कर दी। बीच में फोन कट गया और हम नहीं लिख पाने के लिए अपने को कोस ही रहे थे कि दोबारा फोन की घंटी बज गई। हमने बातचीत का टॉपिक बदल दिया और फिर हमारी बातचीत पूरे ग्लोब में फैले हिन्दी ब्लॉग जगत के तमाम प्रासंगिक विषयों पर चल निकली। प्रमोद जी की चीन यात्रा संबंधी पोस्टों से लेकर चिट्ठाकारी की भाषा के संबंध में ज्ञान जी एवं अन्य चिट्ठाकार साथियों के विचार, हिन्दी चिट्ठों पर हुए भाषा संबंधी विमर्श के संबंध में अरविन्द कुमार जी के ताज़ा लेख, अनामदास जी के स्कूल पुराण, प्रियंकर जी के आगामी साहित्यिक प्रोजेक्ट, अनूप जी की अपनी आगामी पुणे यात्रा और उस यात्रा में देबू दा की अनुपस्थिति में ब्लागराइन से मुलाकात करने और फिर वहां से नासिक जाकर रचना बजाज जी को सम्वेदना प्रकट करने और लौटते हुए दिल्ली के चिट्ठाकारों के साथ एक विराट मिलन की उनकी प्रस्तावित योजना, आदि जैसे कई विषयों से होते हुए हिन्दी चिट्ठा जगत की हलचल बनाए रखने के लिए नए-नए विवादों के प्रायोजन का नियमित ठेका मसिजीवी और अविनाश को दिए जाने के प्रस्ताव पर जाकर खत्म होने ही वाली थी कि अनूप दा ने लाइन काटने से पहले फिर से दोहरा दिया कि कुछ लिख डालो। [...]
  12. राष्ट्रगान का भाग्यविधाता….
    [...] विषय पर फुरसतिया के विचार भी जरूर [...]
  13. हरिशंकर परसाई- विषवमन धर्मी रचनाकार (भाग 2)
    [...] प्रतिमा का सिन्दूर खरोंचे [...]
  14. : फ़ुरसतिया-पुराने लेखhttp//hindini.com/fursatiya/archives/176
    [...] प्रतिमा का सिन्दूर खरोंचे [...]
  15. ashish shrivastava
    ये लेख बहुत पहले पढ़ा था ,यहाँ छापने के लिए आभार, मेरी तब की और अभी की सोच में काफी बदलाव आया है पहले ये बातें पूरी नहीं समझ आती थी ……१० साल बाद शायद और कोई नयी चीज मिले इसी लेख में ……
    दरअसल पुस्तक एक दो बार पढ़ने के बाद कौन से मित्र ले गए याद ही नहीं रहता :) .
    इसलिए ये लेख लगभग भूल चूका था ||
    हर क्षेत्र का सच है ये …
    “कागभुशुण्ड गरुड़ से बोले,
    आओ कुछ लड़ जायें चोंचे,
    चलो किसी मंदिर के अन्दर,
    प्रतिमा का सिंदूर खरोंचे।”
    —-आशीष श्रीवास्तव
  16. सृजन शिल्पी » Blog Archive » अमेरिका बनाने की नहीं, चीन को पछाड़ने की सोचिए
    [...] के सामने चलने वाला तो था नहीं, सो हमने प्रतिमा का सिंदूर खरोंचे वाली उनकी पिछली पोस्ट की तारीफ करनी [...]

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