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हर जोर जुलुम की टक्कर में संघर्ष हमारा नारा है
By फ़ुरसतिया on April 18, 2007
एक बार फिर चुनाव का मौसम आ गया है।
जनप्रतिनिधि फिर से अपने चुनने जाने के लिये चुन-चुनकर जुगत लगा रहे हैं। प्रयास कर रहे हैं। लगे हुये हैं। पिले पड़े हैं। कौनौ कसर नहीं छोड़ रहे
हैं। झण्डा, बैनर, पोस्टर, स्वंयसेवक, समर्थक अटरम/सटरम ई सब तो पैसा से हो जाता है। लेकिन चुनाव जीतने के लिये एक और जरूरी चीज होती है जिसकी कोई
कीमत नहीं होती। लेकिन उसका रोल सबसे अहम होता है। ये अहम रोल वाली चीज है – चुनावी नारा!
हैं। झण्डा, बैनर, पोस्टर, स्वंयसेवक, समर्थक अटरम/सटरम ई सब तो पैसा से हो जाता है। लेकिन चुनाव जीतने के लिये एक और जरूरी चीज होती है जिसकी कोई
कीमत नहीं होती। लेकिन उसका रोल सबसे अहम होता है। ये अहम रोल वाली चीज है – चुनावी नारा!
जिसको बढ़िया नारा मिल गया समझो आधा चुनाव पार कर गया। जिसका नारा गड़बड़ाया, उसका नाड़ा चुनाव में ढीला हो गया।
नारा वैसे तो समय-समय पर मौके के हिसाब से गढ़े जाते हैं। मौके के हिसाब से गड़े जाने वाले नारे डिजाइनर नारे होते हैं। पार्टी के नारे अगर चल जाते हैं तो पार्टी चल जाती है वर्ना वह वह चलती बनती है। लेकिन तमाम रेडीमेड, रेडी टु यूज टाइप के नारे हमेशा रहते हैं। वे कहीं भी स्टेपनी की तरह फिट किये जा सकते हैं।
गरीबी हटाओ वाले नारे के साथ भी ऐसा ही झाम हुआ। सरकार ने नारा लगाया गरीबी हटाऒ। जनता सालों समझती रही कि जब सरकार कह रही है तो भला किसकी हिम्मत की गरीबी को टिकाये रखे। उनकी गरीबी हट जायेगी। लेकिन जब सालों गुजर गये गरीबी हटने की जगह बढ़ती गयी तो जनता सनकी कि ये क्या हो रहा है। गरीबी अभी तक गयी क्यों नहीं? तब सरकार ने जनता को स्पष्टीकरण दिया- हमने तो आपसे कहा ही था कि आप अपनी गरीबी हटायें लेकिन आप हटाते ही नहीं तो हम क्या कर सकते हैं। आप जनता हैं, सर्वशक्तिमान हैं हम आपके साथ जबरदस्ती तो नहीं कर सकते। लेकिन आप अपनी गरीबी हटा लेते अच्छा रहता। इस पर जनता ने तर्क दिया- भला ऐसा भी कहीं होता है कि जनता अपनी गरीबी खुद हटाये? अरे हमने आपको अपने काम के लिये चुना है और अब आप अपने काम से जी चुरा रहे हैं। आपको हमारी गरीबी हटानी पड़ेगी। नारा लगाने वालों ने फिर से सफाई दी- देखिये आप गलत समझ रहे हैं। हमने आवाहन किया था -गरीबी हटाने का। आप लोगों ने उसमें रुचि नहीं दिखाई तो हम क्या कर सकते हैं। देखिये हमने खुद अपनी गरीबी हटा ली। हम खाली हाथ थे, नारा लगाने के पहले लेकिन अब हमारी दस पुस्तें लेटे-लेटे खा सकती हैं। तो अपना-अपना काम तो करना पड़ता है न! हम अभी भी कह रहे हैं जितनी जल्दी हो सके अपनी गरीबी हटा लें।
कुछ और प्रसिद्ध नारों के बारे में यहां विचार किया जा रहा है और उनके बारे में विस्तार बताया जा रहा है-
हर जोर जुलुम की टक्कर में संघर्ष हमारा नारा है
यह सबसे ज्यादा प्रचलित नारा है। लोग कहते हैं कि अगर यह नारा न होता तो दुनिया के आधे संघर्ष शुरू होते ही खतम हो जाते। इस नारे को लगाते
समय लोग उनके हर काम को संघर्ष की तरह लेते हैं। कहीं सड़क पर जाम लगाकर नारा लगाते हुये चलना, धरने पर बैठकर ताश खेलना, क्रिकेट कमेंटरी सुनना सब कुछ संघर्ष की श्रेणी में आता है। पहले जब यह नारा शुरू हुआ था तब व्यक्ति शारीरिक संघर्ष करने का प्रयास करता था। कभी-कभी पिट भी जाता था। कभी कुछ दिन के लिए जेल भी टहल आते लोग। लेकिन इसमें मुख्य समस्या यह थी कि लोग एक समय में एक ही संघर्ष कर पाते थे। जहां शरीर है वहीं संघर्ष है। इससे संघर्ष की उत्पादकता बहुत शर्मनाक हद तक कम रहती थी। लोगों ने इसका इलाज ये खोजा कि शारीरिक संघर्ष की जगह मानसिक संघर्ष शुरू कर दिया। इससे लोग एक समय में न जाने कितनी जगह संघर्ष कर सकते हैं। घर बैठे आप विदर्भे के मरते किसानो की स्थिति सुधारने के लिये मानसिक संघर्ष कर सकते हैं। ए.सी. में बैठे-बैठे आप रेगिस्तान में पानी की कमी से मरते लोगों की स्थिति पर आक्रोश व्यक्त कर सकते हैं। मुर्गा टूंगते आप टीवी पर भुखमरी से हुयी मौतों के खिलाफ़ अपना मानसिक संघर्ष कर सकते हैं। अपने गली मोहल्ले में बहस मुबाहिसा करते-करते ही हिंदू मुसलमान समस्या को खतम कर सकते हैं। रजाई में लेटे-लेटे किसी भ्रष्ट नेता को जेल भेज देने का विचार जाहिर करते हुये अपना शरीर बचाते हुये मानसिक संघर्ष कर सकते हैं। मध्यमवर्गीय लोगों और बुद्धिजीवियों में इस वैचारिक संघर्ष का अच्छा-खासा प्रचलन है।
हर जोर जुलुम की टक्कर में संघर्ष हमारा नारा है
यह सबसे ज्यादा प्रचलित नारा है। लोग कहते हैं कि अगर यह नारा न होता तो दुनिया के आधे संघर्ष शुरू होते ही खतम हो जाते। इस नारे को लगाते
समय लोग उनके हर काम को संघर्ष की तरह लेते हैं। कहीं सड़क पर जाम लगाकर नारा लगाते हुये चलना, धरने पर बैठकर ताश खेलना, क्रिकेट कमेंटरी सुनना सब कुछ संघर्ष की श्रेणी में आता है। पहले जब यह नारा शुरू हुआ था तब व्यक्ति शारीरिक संघर्ष करने का प्रयास करता था। कभी-कभी पिट भी जाता था। कभी कुछ दिन के लिए जेल भी टहल आते लोग। लेकिन इसमें मुख्य समस्या यह थी कि लोग एक समय में एक ही संघर्ष कर पाते थे। जहां शरीर है वहीं संघर्ष है। इससे संघर्ष की उत्पादकता बहुत शर्मनाक हद तक कम रहती थी। लोगों ने इसका इलाज ये खोजा कि शारीरिक संघर्ष की जगह मानसिक संघर्ष शुरू कर दिया। इससे लोग एक समय में न जाने कितनी जगह संघर्ष कर सकते हैं। घर बैठे आप विदर्भे के मरते किसानो की स्थिति सुधारने के लिये मानसिक संघर्ष कर सकते हैं। ए.सी. में बैठे-बैठे आप रेगिस्तान में पानी की कमी से मरते लोगों की स्थिति पर आक्रोश व्यक्त कर सकते हैं। मुर्गा टूंगते आप टीवी पर भुखमरी से हुयी मौतों के खिलाफ़ अपना मानसिक संघर्ष कर सकते हैं। अपने गली मोहल्ले में बहस मुबाहिसा करते-करते ही हिंदू मुसलमान समस्या को खतम कर सकते हैं। रजाई में लेटे-लेटे किसी भ्रष्ट नेता को जेल भेज देने का विचार जाहिर करते हुये अपना शरीर बचाते हुये मानसिक संघर्ष कर सकते हैं। मध्यमवर्गीय लोगों और बुद्धिजीवियों में इस वैचारिक संघर्ष का अच्छा-खासा प्रचलन है।
नेताजी तुम संघर्ष करो हम तुम्हारे साथ हैं
ये नारा आमतौर पर नेता के साथ के लोग लगाते हैं। इस नारे से यह अहसास होता है कि नारा लगाने वाले नेता से कहते हैं कि नेता जी आप संघर्ष करो हम भी आपके साथ संघर्ष करेंगे। कुछ नये-नये, अनुभवहीन जनप्रतिनिधि यह नारा लगाती भीड़ को देख कर इसी गफलत में पड़ जाते हैं और शारीरिक संघर्ष करने लगते हैं। इस लफड़े में कभी-कभी उनको शारीरिक क्षति पहुंचती है। उससे अधिक मानसिक क्षति होती है जब वे देखते हैं कि … संघर्ष करो का नारा लगाने वाले समर्थक उनको मीडिया कर्मियों की तरह चुपचाप खड़े उनको पिटता देखते हैं और पूरी तरह पिट जाने के बाद उनको दवा-दारू के लिये ले जाते हैं। बाद में पता चलता है कि जनप्रतिनिधि और समर्थकों में ‘संप्रेषण दूरी’ (कम्युनिकेशन गैप) के नारे के बारे में गलतफहमी हो गयी। लोगों का कहने का मतलब था कि नेताजी आप संघर्ष करे। हम आपके साथ हैं। चोट-चपेट लगेगी तो उठा के अस्पताल में भर्ती करा देंगे। मतलब जनता का नेता को बाहरी समर्थन था जिसे नेताजी आंतरिक समझ बैठे और धोखा तथा चोट खा गये।
ये नारा आमतौर पर नेता के साथ के लोग लगाते हैं। इस नारे से यह अहसास होता है कि नारा लगाने वाले नेता से कहते हैं कि नेता जी आप संघर्ष करो हम भी आपके साथ संघर्ष करेंगे। कुछ नये-नये, अनुभवहीन जनप्रतिनिधि यह नारा लगाती भीड़ को देख कर इसी गफलत में पड़ जाते हैं और शारीरिक संघर्ष करने लगते हैं। इस लफड़े में कभी-कभी उनको शारीरिक क्षति पहुंचती है। उससे अधिक मानसिक क्षति होती है जब वे देखते हैं कि … संघर्ष करो का नारा लगाने वाले समर्थक उनको मीडिया कर्मियों की तरह चुपचाप खड़े उनको पिटता देखते हैं और पूरी तरह पिट जाने के बाद उनको दवा-दारू के लिये ले जाते हैं। बाद में पता चलता है कि जनप्रतिनिधि और समर्थकों में ‘संप्रेषण दूरी’ (कम्युनिकेशन गैप) के नारे के बारे में गलतफहमी हो गयी। लोगों का कहने का मतलब था कि नेताजी आप संघर्ष करे। हम आपके साथ हैं। चोट-चपेट लगेगी तो उठा के अस्पताल में भर्ती करा देंगे। मतलब जनता का नेता को बाहरी समर्थन था जिसे नेताजी आंतरिक समझ बैठे और धोखा तथा चोट खा गये।
हो गयी है पीर पर्वत सी पिघलनी चाहिये
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिये।
लोग कहते हैं यह शेर पहले दुष्यन्त कुमार ने लिखा। लेकिन जिस तरह गंगा का जिक्र है उससे लगता है कि यह बात किसी ने पहले-पहले शंकरजी कही होगी। कि
भाई अब यहां से कोई गंगा निकालो। शंकरजी ने कहा होगा लिख के अनुरोध करो। उनको जब लिख के दिया गया होगा तब उन्होंने एक गंगा निकाल दी होगी। उसी
में कागज पर लिखा अनुरोध भी बह गया होगा जिसे किसी दिन दुष्यन्तकुमार ने गंगा तट पर विहार करते हुये देखा होगा। बाद में उन्होंने इसे अपने साये
में धूप में शामिल कर लिया होगा। वैसे इस नारे का उपयोग कहीं भी कर लेते हैं। लोग आपका भाषण सुनकर ताली न बजा रहे हों, वोट न दे रहे हों, आपकी
तारीफ़ न कर रहे हों, टिप्पणी न कर रहें, लेख न छाप रहे हों , चाय न पिला रहें हों मतलब कि कुछ भी आपके मन के अनुरूप न हो रहा हो आप शुरू हो सकते
हैं- हो गयी है पीर पर्वत सी पिघलनी चाहिये—-।
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिये।
लोग कहते हैं यह शेर पहले दुष्यन्त कुमार ने लिखा। लेकिन जिस तरह गंगा का जिक्र है उससे लगता है कि यह बात किसी ने पहले-पहले शंकरजी कही होगी। कि
भाई अब यहां से कोई गंगा निकालो। शंकरजी ने कहा होगा लिख के अनुरोध करो। उनको जब लिख के दिया गया होगा तब उन्होंने एक गंगा निकाल दी होगी। उसी
में कागज पर लिखा अनुरोध भी बह गया होगा जिसे किसी दिन दुष्यन्तकुमार ने गंगा तट पर विहार करते हुये देखा होगा। बाद में उन्होंने इसे अपने साये
में धूप में शामिल कर लिया होगा। वैसे इस नारे का उपयोग कहीं भी कर लेते हैं। लोग आपका भाषण सुनकर ताली न बजा रहे हों, वोट न दे रहे हों, आपकी
तारीफ़ न कर रहे हों, टिप्पणी न कर रहें, लेख न छाप रहे हों , चाय न पिला रहें हों मतलब कि कुछ भी आपके मन के अनुरूप न हो रहा हो आप शुरू हो सकते
हैं- हो गयी है पीर पर्वत सी पिघलनी चाहिये—-।
सिर्फ़ हंगामा खड़ा करा करना मेरा मकसद नहीं,
मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिये चाहिये।
जैसा कि देखने से ही पता चलता है कि यह बहुत हंगामाखेज शेर है। अगर आप अमिताभ बच्चन की तरह लेफ़्टी नहीं हैं तो दांया हाथ हवा में उठाकर अपना सर
दायें-बायें करते हुये इसे पढ़ा जाता है। इसमें शेर पढ़ने वाला अपना मकसद साफ करता है कि वो केवल हंगामा ही नहीं खड़ा करेगा। बल्कि इसके साथ-साथ
सूरत भी बदलकर रख देगा। अब सूरत बदलने वाली बात से कुछ कम अनुभवी लोग यह समझने लगते हैं अब रामराज्य आने वाला है। लेकिन ऐसा सोचना गलतफहमी है। यहां नायक यह कहना चाहता है कि वह सूरत बदल देगा। सूरत बदलने का मतलब सूरत बेहतर होना ही नहीं होता न! हालात खराब भी हो सकते हैं। ज्यादातर मामलात में ऐसा ही होता है। नायक अक्सर हमेशा अपना वायदा पूरा करते हैं। जिस सूरते हाल में उसे जनता/ जिम्मेदारी मिलती है उससे खराब सूरत करके वह रख देता है। अगला फिर उसकी सूरत बदलता है -महाजनो येन गत: स: पन्था का अनुसरण करते हुये।
मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिये चाहिये।
जैसा कि देखने से ही पता चलता है कि यह बहुत हंगामाखेज शेर है। अगर आप अमिताभ बच्चन की तरह लेफ़्टी नहीं हैं तो दांया हाथ हवा में उठाकर अपना सर
दायें-बायें करते हुये इसे पढ़ा जाता है। इसमें शेर पढ़ने वाला अपना मकसद साफ करता है कि वो केवल हंगामा ही नहीं खड़ा करेगा। बल्कि इसके साथ-साथ
सूरत भी बदलकर रख देगा। अब सूरत बदलने वाली बात से कुछ कम अनुभवी लोग यह समझने लगते हैं अब रामराज्य आने वाला है। लेकिन ऐसा सोचना गलतफहमी है। यहां नायक यह कहना चाहता है कि वह सूरत बदल देगा। सूरत बदलने का मतलब सूरत बेहतर होना ही नहीं होता न! हालात खराब भी हो सकते हैं। ज्यादातर मामलात में ऐसा ही होता है। नायक अक्सर हमेशा अपना वायदा पूरा करते हैं। जिस सूरते हाल में उसे जनता/ जिम्मेदारी मिलती है उससे खराब सूरत करके वह रख देता है। अगला फिर उसकी सूरत बदलता है -महाजनो येन गत: स: पन्था का अनुसरण करते हुये।
तंग आकर गलतबयानी से, हम अलग हो गये कहानी सेआम तौर पर यहा नारा केवल चुनाव के समय लगाया जाता है। चुनाव की घोषणा होते ही अपने पुराने दलों से सौदा न पटने पर अपनी पार्टी छोड़कर दूसरी पार्टी ज्वाइन कर लेते हैं या अपना खुद का दल बना लेते हैं। आम तौर पर भाई-भतीजों को टिकट न मिलने पर, मनचाहा पद न मिलने पर या अपने जनाधार के बारे में गलतफहमी होने पर इस तरह की स्थितियां पैदा होता हैं। लोग ये शेर कहकर पार्टी से विदा हो लेत हैं नयी खिचड़ी पकाने के लिये।
एक ज़रा सी बात पर वरसों के याराने गये
यह शेर पहले शेर की काट में पढ़ा जाता है। जब कोई साथी असंतुष्ठावस्था को प्राप्त होता है तो उसको पार्टी छोड़ने के पहले तक कोई तवज्जो नहीं दी जाती। पार्टी छोड़कर यह शेर पढ़ते हुये कहा जाता है इत्ती छोटी बात उनको पार्टी नहीं छोड़नी चाहिये। वे कहते तो हम उनको अपना सब कुछ सौंप देते, सारे अधिकार दे देते। आदि-इत्यादि। इसके बाद कहा जाता है कि लेकिन चलो अच्छा हुआ कि वे छोड़कर चले गये, कम से कम उनकी असलिय तो पता चली। यह कहते हुये
शेर पढ़ा जाता है-
एक जरा सी बात पर वर्षों के याराने गये,
पर चलो अच्छा हुआ कुछ लोग पहचाने गये। इसी घराने का एक और पैरोडी टाइप मुखड़ा है। इसमें किसी महिला नेता के खास साथियों के द्वारा ऐन चुनाव के पहले पार्टी छोड़ जाने की खिल्ली उड़ाते हुये नारा लगाया गया-
धोबी के साथ गदहे भी चल दिये मटककर
धोबन बेचारी रोती पत्थर पर सर पटककर।
राजा नहीं फकीर है, भारत की तकदीर है यह नारा बहुत दिन पहले चला था जब ज्यादातर लोग बहुत गरीब होते थे। फकीर लोग भी उन दिनों फटेहाल ही होते थे आजकी तरह लकदक तामझामी फकीर नहीं होते थे उन दिनों। राजा-महाराजा लोग चुनाव लड़ते तो उनके समर्थक अपने राजाजी को जनता के बराबर फटेहाल बताने के लिये कहते- राजा नहीं फकीर है, भारत की तकदीर है। मतलब ये ही आगे चलकर भारत की तस्वीर संवारेंगे। लेकिन अब फकीरों की स्थिति में बहुत अंतर आ गया है। अब फकीरों के पास करोडों अरबों रुपये हैं। फकीर बहुत सामर्थ्यवान हो गये हैं। उनके पास इतना धन है कि डा. राहत इन्दौरी कहने लगे- वो खरीदना चाहता था कांसा (भिक्षा पात्र) मेरा/ मैं उसके ताज की कीमत लगाकर लौट आया। देखिये आप कैसे दस-बीस साल में एक ही नारे का कितना मतलब बदल गया। फकीरी के मायने कितने बदल गये। अब फकीर का मतलब कोई टुंटपुजिया साधू नहीं है। फकीर का मतलब है अपना साम्राज्य, विश्वविद्यालय, अस्पताल, हेलीकाप्टर, वायुयान! इसी लिये लोग कहते हैं कि ये राजा की तरह दीन हीन नहीं हैं- फकीर हैं।
मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही
हो कहीं भी आग लेकिन आग जलनी चाहिये।
दुष्यन्त कुमार का यह शेर अगिया बैताल टाइप लोग दोहराते हैं। उनका कहना होता है कि भाई आग जलनी चाहिये। कहीं जले। कुछ बुजुर्ग अगियाबैताल टाइप लोग खुद तो राख बन जाते हैं और लोगों से कहते हैं कि भाई अगर मेरे सीने में बदलाव की आग नहीं जलती तो अपने सीने के दर्द को काबू में लेकर काम करिय। कुछ समझदार प्रभाव शाली लोग इसलिये भी कहते हैं कि भाई मेरे सीने में तो आग सूट नहीं करेगी। इसलिये अब ये आग सुलागने का काम आप लोग करें। इसी शेर की आड़ में लोग तमाम भड़काने वाली बातें कह जाते हैं।
तुम्हारे दिल की चुभन जरूर कम होगी,
किसी के पांव का कांटा निकालकर देखो।
ये चुनावों में हिंसा, मारपीट, बूथ कैप्चरिंग टाइप की अराजक आदतों का कारण है। लोग जब अपने प्रदिद्वन्दी की उन्नति से चिढ़त हैं तो उनके दिल की धड़कन और कम्पन बढ़ जाता है। जब दिल की जलन दूर करने का कोई इंतजाम नहीं हुआ तो लोगों ने कुंवर बेचैन के इस शेर के अनुसार लोगों के पांवों से कांटा निकालने की व्यवस्था की गयी। इसके लिये नेताजी के समर्थक प्रतिद्वन्दियों को खलास कर देते हैं। कभी पीट भी देते हैं लोग। इस तरह जमीन बनेगी।
लोग उसको गिरा-गिराकर उसके पैर का कांटा निकालने लगेगा क्या करते हो?
यह शेर पहले शेर की काट में पढ़ा जाता है। जब कोई साथी असंतुष्ठावस्था को प्राप्त होता है तो उसको पार्टी छोड़ने के पहले तक कोई तवज्जो नहीं दी जाती। पार्टी छोड़कर यह शेर पढ़ते हुये कहा जाता है इत्ती छोटी बात उनको पार्टी नहीं छोड़नी चाहिये। वे कहते तो हम उनको अपना सब कुछ सौंप देते, सारे अधिकार दे देते। आदि-इत्यादि। इसके बाद कहा जाता है कि लेकिन चलो अच्छा हुआ कि वे छोड़कर चले गये, कम से कम उनकी असलिय तो पता चली। यह कहते हुये
शेर पढ़ा जाता है-
एक जरा सी बात पर वर्षों के याराने गये,
पर चलो अच्छा हुआ कुछ लोग पहचाने गये। इसी घराने का एक और पैरोडी टाइप मुखड़ा है। इसमें किसी महिला नेता के खास साथियों के द्वारा ऐन चुनाव के पहले पार्टी छोड़ जाने की खिल्ली उड़ाते हुये नारा लगाया गया-
धोबी के साथ गदहे भी चल दिये मटककर
धोबन बेचारी रोती पत्थर पर सर पटककर।
राजा नहीं फकीर है, भारत की तकदीर है यह नारा बहुत दिन पहले चला था जब ज्यादातर लोग बहुत गरीब होते थे। फकीर लोग भी उन दिनों फटेहाल ही होते थे आजकी तरह लकदक तामझामी फकीर नहीं होते थे उन दिनों। राजा-महाराजा लोग चुनाव लड़ते तो उनके समर्थक अपने राजाजी को जनता के बराबर फटेहाल बताने के लिये कहते- राजा नहीं फकीर है, भारत की तकदीर है। मतलब ये ही आगे चलकर भारत की तस्वीर संवारेंगे। लेकिन अब फकीरों की स्थिति में बहुत अंतर आ गया है। अब फकीरों के पास करोडों अरबों रुपये हैं। फकीर बहुत सामर्थ्यवान हो गये हैं। उनके पास इतना धन है कि डा. राहत इन्दौरी कहने लगे- वो खरीदना चाहता था कांसा (भिक्षा पात्र) मेरा/ मैं उसके ताज की कीमत लगाकर लौट आया। देखिये आप कैसे दस-बीस साल में एक ही नारे का कितना मतलब बदल गया। फकीरी के मायने कितने बदल गये। अब फकीर का मतलब कोई टुंटपुजिया साधू नहीं है। फकीर का मतलब है अपना साम्राज्य, विश्वविद्यालय, अस्पताल, हेलीकाप्टर, वायुयान! इसी लिये लोग कहते हैं कि ये राजा की तरह दीन हीन नहीं हैं- फकीर हैं।
मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही
हो कहीं भी आग लेकिन आग जलनी चाहिये।
दुष्यन्त कुमार का यह शेर अगिया बैताल टाइप लोग दोहराते हैं। उनका कहना होता है कि भाई आग जलनी चाहिये। कहीं जले। कुछ बुजुर्ग अगियाबैताल टाइप लोग खुद तो राख बन जाते हैं और लोगों से कहते हैं कि भाई अगर मेरे सीने में बदलाव की आग नहीं जलती तो अपने सीने के दर्द को काबू में लेकर काम करिय। कुछ समझदार प्रभाव शाली लोग इसलिये भी कहते हैं कि भाई मेरे सीने में तो आग सूट नहीं करेगी। इसलिये अब ये आग सुलागने का काम आप लोग करें। इसी शेर की आड़ में लोग तमाम भड़काने वाली बातें कह जाते हैं।
तुम्हारे दिल की चुभन जरूर कम होगी,
किसी के पांव का कांटा निकालकर देखो।
ये चुनावों में हिंसा, मारपीट, बूथ कैप्चरिंग टाइप की अराजक आदतों का कारण है। लोग जब अपने प्रदिद्वन्दी की उन्नति से चिढ़त हैं तो उनके दिल की धड़कन और कम्पन बढ़ जाता है। जब दिल की जलन दूर करने का कोई इंतजाम नहीं हुआ तो लोगों ने कुंवर बेचैन के इस शेर के अनुसार लोगों के पांवों से कांटा निकालने की व्यवस्था की गयी। इसके लिये नेताजी के समर्थक प्रतिद्वन्दियों को खलास कर देते हैं। कभी पीट भी देते हैं लोग। इस तरह जमीन बनेगी।
लोग उसको गिरा-गिराकर उसके पैर का कांटा निकालने लगेगा क्या करते हो?
इसी तरह के तमाम शेर हैं।चुनाव के समय अपने-अपने क्षेत्र के लोगों को एकत्र कर दिया और नेताजी कहते हैं- पूरी धरा भी साथ दे तो और बात है
पर तू जरा सा भी साथ दे तो और बात है कुंवर बेचैन जी के इस शेर का मतलब यही है कि भाई बाकी चाहे जैसे रहो चाहे, जो करो लेकिन अगर थोड़ा सा चुनाव बूथ में साथ चाहिये| वो दे दो तब की बात ही कुछ और होगी।
पर तू जरा सा भी साथ दे तो और बात है कुंवर बेचैन जी के इस शेर का मतलब यही है कि भाई बाकी चाहे जैसे रहो चाहे, जो करो लेकिन अगर थोड़ा सा चुनाव बूथ में साथ चाहिये| वो दे दो तब की बात ही कुछ और होगी।
ये चंद सियासी नारे चुनाव के समय लगते हैं।इनको इनके सही रूप में समझाने का मैंने प्रयास किया। वैसे तो इनके मतलब भी हर चुनाव के साथ बदल जाते हैं।
ये नारे भी नेताऒं की तरह हर चुनाव में अपना रंग और मतलब बदल लेते हैं। ये सियासत बड़ी बेदर्द होती है । इसीलिये कवि शिवओम अंबर कहते हैं-
ये नारे भी नेताऒं की तरह हर चुनाव में अपना रंग और मतलब बदल लेते हैं। ये सियासत बड़ी बेदर्द होती है । इसीलिये कवि शिवओम अंबर कहते हैं-
राजभवनों की तरफ़ न जायें फरियादें,
पत्थरों के पास अभ्यंतर नहीं होता
ये सियासत की तवायफ़ का टुप्पटा है
ये किसी के आंसुओं से तर नहीं होता।
Posted in बस यूं ही | 16 Responses
कोई मेरे नाम का वोट डाल आया
आज फ़िर दिल को हमने समझाया
एक और भी नारा है जो चुनावी तो नहीं है पर १ मई को लगाया जाता है । मई कौन सी दूर है सो प्रस्तुत हैः
जो हमसे टकराएगा
चूर चूर हो जाएगा ।
जब तक सूरज चाँद रहेगा,
फुरसतिया का नाम रहेगा.
(फुरसतिया के बाद जी साईलेन्ट है, नारेबाजी में हो जाता है :))
अबके कीचड़ में कमल खिलाया जाय
फुरसतियाजी बारम्बार.
ना रे, ना रे
नारे ना सुनारे। दिंल घबराता है
आपके पास पूरी गजल तो होगी ही, हमारी फरमाईश पर इसे प्रकाशीत कर दें !
सही है.
दीपक बुझ जाएगा,**** जीत जाएगा ॥
आ जाए (मैदान में) जिसकी बारी है
फुरसतिया सब पर भारी है
राजनीति, नेता और नारे!
इनसे ही भारतीय हारे!!