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मनिमय कनक नंद के आंगन…
By फ़ुरसतिया on August 30, 2007
आज सबेरे-सबेरे ऐसे ही याद आया सूरदास का पद-
किलकत कान्ह घुटुरुवन आवत,
मनिमय कनक नंद के आंगन बिम्ब पकरिबै धावत।
पद तो ऐसे ही याद आया लेकिन अब जब लिखा तो लग रहा है सूरदासजी ने नंद के आंगन क्यों लिखा? क्या केवल नंद के ही आंगन मणिमय थे? क्या किसी और आंगन में बिम्ब न होते? ऐसे कैसे हुआ कि कन्हैया घुटुरुवन आता और बिम्ब पकड़ने के लिये दौड़ने लगता है। धावत माने तो दौड़ना हुआ न! फिर घुटनों के बल चलता बच्चा अगली लाइन में ही दौड़ने कैसे लगता है।
कल को शायद कोई इसका व्याख्या करते हुये कहे- कन्हैया किलकते हुये घुटनों के बल आ रहे हैं। बालमन निर्दोष होता है। किलकता है। उधर दूसरी ओर नंद जिनके आंगन तक में मणियां और सोना लगे हुये वे बिम्ब पकड़ने के लिये भागे-भागे घूम रहे हैं। यह दो मन:स्थितियों का सुंदर चित्रण है। एक तरफ़ बालपन की किलकारियां जो सांसारिक लफड़े-लालचों से दूर किलकित च पुलकित हो रही हैं। यही परम च दिव्य उपलब्धि है। दूसरी तरफ़ नंद जी हैं जो इतने धनवान हैं लेकिन फ़िर भी इस अनमोल धन से निर्लिप्त आभासी धन (बिम्ब) को पकड़ने के लिये इधर-उधर दौड़ रहे हैं। जी हलकान कर रहे हैं। हांफ़ रहे हैं।
कोई भारतीय संस्कृति को महानतम साबित करने का बीड़ा थामे साथी इसी पद के सहारे साबित कर सकता है कि हमारे यहां इंटरनेट और ब्लागिंग के प्रमाण कृष्ण के समय में भी पाये गये हैं। यहां तक कि आंगनों तक में टैगिंग होती थी ताकि पता चल सके कि ये आंगन किसका है। और अगर कोई दूसरा उसपर किसी गलती से आ जाये तो आंगन का मालिक ठुमकते हुये (मन हो ताली भी बजवा दो भाई) कह सके- मेरे अंगने में तुम्हारा क्या काम है?
इतने के बाद तो व्याख्या के पर लग जायेंगे। वो गगनबिहारी हो जायेगी।
ऐसे ही अभी एकदम अभी कटिया फ़ंस गयी। कल को आलोक पुराणिक कल्लू मिस्त्री के बारे में बतलाये। पहले भी ज्ञानीजन बता चुके हैं। हमारा नेट आजकल कटिया से चल रहा है।
असल में हमारे फोन कनेक्शन सामान्तर हैं। (समान्तर,सामानान्तर पर व्याख्या का अधिकार शब्द चौधरी के पास है) । दो कमरों में एक ही लाइन से कनेक्शन हैं। एक में नेट लगा है। संपर्क तार धरती से जुड़ गया। अर्थिंग हो गयी। इससे कनेक्शन गड़बड़ा गया। नेट तो नेट फोन बात करने लायक न रहा।
सावन का महीना होने के नाते इस सहज भारतीय यांत्रिक घटना की पतंग उड़ाते हुये आसानी से यह एक बार फिर से साबित किया जा सकता है कि जब भी दो के बीच में तीसरा आता है तो संबंध बिगड़ जाते हैं। बिगड़ क्या संबंधों की वाट लग जाती है। कोई जीवनसाथी इसकी पतंग उड़ाते हुये यह साबित करने का प्रयास कर सकता है उसके और ब्लागिंग के बीच में जीवनसाथी के आ जाने के कारण ब्लागिंग का कनेक्शन अर्थ हो गया। जीवन साथी भी अपनी व्यथा कथा कह सकता है- ये मुंहजला ब्लाग/मुंहझौंसी ब्लागिंग ने हमारे जीवन में खलल डाल दिया। अब इनको सिवाय पोस्ट और टिप्पणियों के कुछ नहीं सूझता।
अब देखिये बात कटिया की हो रही थी। हम बतिया लगे घर के बारे में। इससे यही साबित होता है कि घरवालों के घर एक ऐसी कटिया कटिया है जो हर जगह उनको फ़ंसाये रखती है। इसके चलते उनको अबाध जीवन-बिजली की सप्लाई मिलती रहती है। बिन पैसे। लेकिन अफ़सोस कि इस घर-कटिया का महत्व लोगों को तभी पता चलता है जब कटिया उतरवा दी जाती है।
बहरहाल, हम बात कर रहे थे नेट-कटिया की। तो हुआ ऐसा कि कल फोन तो ठीक हो गया लेकिन सामान्तर व्यवस्था लागू न हो सकी। जैसे ही नेट लगाने के लिये सामान्तर फोन का कनेक्शन लगाते, फोन खरखराने लगता। दोनों फोन से डायल टोन चली जाती। कोई फोन आता तो कुछ समझ में नहीं आता। ऐसा लगता कि ब्लाग जगत की कोई बहस/विमर्श फोन से बता रहा है जिसमें पल्ले कुछ नहीं पड़ता।
लेकिन आश्चर्य जनक किंतु सत्य कि फोन खराब खड़खड़ाने के बावजूद नेट कनेक्शन टनाटन चल रहा है। देखिये जी, हमारा फोन भी नेट लती हो गया है। बात करवाना उसका मख्य धंधा है लेकिन मन रमा है, ब्लागिंग के साइड बिजनेश में।
आलोक पुराणिकजी चाहे तो इस पर एक पोस्ट घसीट सकते हैं। फोन और नेट के चरित्र को उठाके राष्ट्रीय रंगमंच के प्रेक्षागार में ले जाकर पांच सौ शब्दों में बतायें कि नेता जन अपना सेवा का मुख्य धंधा बिसरा कर मेवा के साइड बिजनेश में डूब गये हैं। संतोष धन से मन लगाने हराम के धन पर मन लुटा बैठे हैं। बेवफ़ा कहीं के।
लेकिन वो भी बेचारे क्या-क्या लिखें। देश की और तमाम समस्यायें उनके सामने सुरसा की तरह मुंह फ़ाड़े खड़ी हैं। उनके सामने कोई चारा भी नहीं सिवाय
वदन पैठि पुनि बाहेर आने और सिर झुका के विदा मांग लेने के ।(वदन पैठि पुनि बाहेर आवा/ मांगा विदा ताहि सिरु नावा)
वदन पैठि पुनि बाहेर आने और सिर झुका के विदा मांग लेने के ।(वदन पैठि पुनि बाहेर आवा/ मांगा विदा ताहि सिरु नावा)
ये लो एक और पोस्ट का मसाला हो गया। समस्यायें सुरसा की तरह मुंह फ़ैलाये खड़ी हों तो उनसे बचने का सबसे मुफ़ीद और आजमाया हुआ नुस्खा है कि उनको
प्रणाम करके आगे बढ लो। प्रणाम करते समय सर झुका रहने से अच्छे परिणाम मिलते हैं।
प्रणाम करके आगे बढ लो। प्रणाम करते समय सर झुका रहने से अच्छे परिणाम मिलते हैं।
महाबली, विक्रमबजरंगी हनुमान जी ने भी यही किया।
पिछले दिनों नामवर सिंह के ऊपर संस्मरणों की एक किताब पढ़ी। इसे काशीनाथ सिंह ने लिखा है। अपने नामवर भाई के बारे में एक कथाकार भाई के मार्मिक संस्मरण। उसी में नामवर सिंह से एक सवाल काशीनाथजी ने पूछा है-
काशीनाथ: आपको कैसे लोगों से ईर्ष्या होती है?
नामवर: जो वही कह या लिख देते हैं जिसे सटीक ढंग से कह देने के लिये मैं अरसे से बेचैन रहा।
ब्लाग जगत में ऐसे लोग बढ़ते जा रहे हैं जिनसे हमें बहुत ईर्ष्या होती है।
इस पर विस्तार से लिखना एक और कटिया में फंसना होगा। उधर आफ़िस हमारे लिये बेकरार हो रहा है। हम उसकी आवाज अनसुनी नहीं कर सकते भाई!
इसलिये आपको सर नवाकर आपसे विदा मांगता हूं।
Posted in बस यूं ही | 13 Responses
जाओ; दफ्तर क्षेत्र में. कटिया साथ लेकर जाना. वहां भी मुख्य काम तो ब्लॉगिंग की रूपरेखा बनाना और/या इंक ब्लॉगिंग ही है.
सकल ब्लॉग मय सब जग जानी. कटिया भोजन कटिया पानी!
अब आंगन हैं ही कहां!
दो बेडरूम फ्लैट का जुगाड़ हो जाये ,बहुत है!
कभी सोचता हूं कि आज की मुमताज को अगर कोई शाहजहां ताज बना कर दे दे तो माडर्न मुमताज ताज के आंगन
की एक दिन की सफाई में ही खल्लास हो लेगी!
बिंदास लेखन..
आप रामचरितमानस से उद्धरण बहुत छाँट छाँट कर लाते हैं ।
नीरज
और फोन के दफ़्तर वालों को रह रह कर था धमकाना
नेट कंपनी-फोन कंपनी में कंपटीशन तब करवा कर
दोनों की सुविधायें लेकर मुफ़्त, आप को मौज उड़ाना
आपके चिट्ठे पर विचरण कर रहे हैं , सो कर रहे हैं। चर रहे हैं ।