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रद्दी
By फ़ुरसतिया on November 24, 2007
गोविन्द उपाध्यायजी ने जब अपने बचपन के संस्मरण लिखना शुरू किया था तो स्वामीजी की प्रतिक्रिया थी-
“का हो भइया जरको दम नहीं रहल का । आधा घंटा से चक्का पकड़ कर हांफ रहे हो । भउजइयो अपने करम को रो रही होंगी।” लोटा पाड़े खिलखिला कर हंस दिये । और जानकी उनके मज़ाक की गहराई समझ कर मुस्कराए ।
दोनो की बहुत पुरानी दोस्ती थी । इस मिल में साथ-साथ आये थें । काफी दिन साथ-साथ रहे भी । जानकी हेल्पर से मिस्त्री बन गए तो पाड़े जी को भी कारीगर बना दिया । वैसे जानकी की का औकात कि किसी को कुछ बना दें । वो तो एक मशीन खराब थी जेम्स साहेब बोलें- “ जानकी तुम तो कारीगर आदमी हो और तुम्हारे रहते मशीन बिगड़ा पड़ा है । हमको अच्छा नहीं लगता है । ” जानकी भी तब जोसिया गये और एक-एक पुर्जा खोल कर मशीन को ठीक कर के ही दम लिया। बहुत खुश हुआ था साहेब । पीठ ठोक कर बोला , “ हम तुमसे बहोत खुश हैं । हम तुम्हारे को कुछ देना मांगता है । बोलो क्या मांगता है ।”
जानकी मिस्त्री भी हाथ जोड़ कर बोले, “ हजूर इ हमरे गांव जेवार के बाभन देवता हैं । काफी दिन से हेल्परी कर रहे हैं । बढिया काम सीख गये है । आप किरपा कर देते हजूर त…”
और बिना किसी ना नुकर के जेम्स साहेब लोटा पाड़े को कारीगर बना दिये । ये बात जानकी ने कभी अपने मुंह से नहीं कहा होगा । लेकिन पाड़े महराज को इस किस्से को सुनाने में कोई गुरेज़ नहीं था । जानकी कई बार टोक भी चुके थें, “ बस महराज , रहे भी दिहल जाय । उ जमाना ही दुसर था । आदमिये कहां मिलते थें । अब तो अपने लरिका बच्चा को भर्ती कराने को सोंचिए तो कोई घासे नहीं डालेगा । हर काम में बिचौलिया हो गया है । केतना तो साला युनियन बन गया है । लाला झंडा, पीला झंडा, नीला झंडा….. जिसको काम नहीं करना है कवनो रंग का झंडा पकड़ लो…आ सबसे मजेदार बात त इ है कि साहबो लोग भी इन्ही की सुनता है । नहीं तो गेट पर खड़ा हो कर ‘ ले कर रहेगें ..दे कर रहेंगे…’ चिल्लायेगे ।” लोटा पाड़े पचपन पार कर चुके थें । जानकी उनसे एकाध साल बड़े होगें । दोनो के परिवेश में ज़मीन आसमान का अंतर था । लोटा पाड़े शुद्ध शाकाहारी दोनो समय पूजा-पाठ करने वाले जबकि जानकी मास-मछरी वाले ..मिली तो सो ग्राम पी भी लें ।
लोटा पाड़े का चरित्र भी बेजोड़ था । पांच फुटिया गोल मटोल से ..रंग पीली गोराई वाला. ..सिर के आगे के बाल उम्र के इस पड़ाव तक पहुंचते-पहुंचते साथ छोड़ चुके थें । लगातार सुर्ती के सेवन ने दांतो को अनुशासन हीन बना दिया था, वे गंदे व कमजोर हो चुके थे । उपर व नीचे के दो-दो दांत भाग चुके थें । शेष दांतो की विश्वासनियता पर भी संदेह था ..न जाने कब साथ छोड़ दें । पाड़े जी के पास एक तांबे का लोटा था । वह लोटा क्या था उनके पूर्वजों के सम्मान का प्रतीक था । यह लोटा गांव से चलते समय अपने साथ लाये थें । कभी वह बहुत भारी रहा होगा लेकिन आज समय की मार ने उसे बेढंगा बना दिया है । मिल में चाय टाइम के समय पाड़े का लोटा चाय वाले के सामने सबसे पहले आ जाता । पूरे चार कप चाय लेते थें पाड़े महराज । जब कभी बहुरिया के हाथ के खाने से उबिया जाते तो इसी लोटवे में दो मुठ्ठी चावल डाल कर डभका लेते । कोई टोकता, “ का हो पाड़े जी आज बहुरिया से फिर झगड़ आये हैं का..”
लोटा पाड़े फिस्स से हंस देते, “ हां जानकी भइया तोहार कहल सही है । मगर बहुरिया मनबे नहीं करती है । एकाध दिन सही बनायेगी फिर उहे राग माला..” लोटा पाड़े बड़े शान से इस लोटे के बारे में बताते, “ जउरा के महराज के यहां जजमानी में मिला था यह लोटा । राजा साहेब को बुढौती में लरिका हुआ । रानी साहिबा भागवत भाखी थीं । लोटा मुरादाबाद से सवा-सवा किलो का पेशल आडर दे कर बनवाया गया था । पूर्ण आहुति के बाद एक पांति में बइठा कर पांव लागि-लागि कर जेवार के इकइस बड़का बाभान को सर-समान के साथ इ लोटा भी दान में दिये थें ।”
यह लोटा ही उनकी पहचान बन गया था। तभी तो गोरखपुर से कानपुर आते-आते लल्लन पाड़े ‘लोटा पाड़े’ हो गये ।
लोटा पाड़े बाल ब्रह्मचारी थें । चौदह वर्ष की उम्र में घर छोड़ दिये थें । छोड़ते नहीं तो क्या करते। एक-एक दाने को तो मोहताज था परिवार । पूरी पूस की रात, कन (शकरकंद) खा कर … और चट्टी (बोरा) ओढ़ कर गोंइठा के आग के सहारे कट गया । फागुन आया तो सोचा कि दलहन व तेलहन से घर को कुछ राहत मिलेगी… तो कुछ मौसम की मार अ कुछ बड़का भइया की नशा खोरी … एक्को दाना घर नहीं पहुंचा । लल्लन पाड़े के सब्र का प्याला भर गया , “ का फायदा है अइसी खेती – बाड़ी का । चुल्हा भाड़ में जाय साला … जब मजूरी ही करना है तो का देश का परदेश …..” और पहिली ट्रेन पकड़ कर आ गये शहर में । पांच साल तक क्या-क्या नहीं किया । गारा-माटी ढोया ..भइसा गाड़ी खींचा… तभी मिले थें जानकी । गांव जवार का होने से जल्दी ही घनिष्टता भी हो गयी । एक बार पाड़ेजी बीमार पड़ गये । अब इस परदेश में कौन था जो उनका देख-भाल करता । जानकी अपने ठीहे पर लाये। खूब सेवा किये । बस उसी दिन से जाति भेद भी मिट गया । जानकी को वो भइया कहते और जानकी उनको महराजजी… भले ही पूरा मिल उन्हें लोटा पाड़े बोलता हो ।
लोटा उनके जीवन में उतना ही अहम था जितना की जनेउ । गंगा मेला के दौरान तीन रुपया में एक दर्जन जनेउ खरीद लाते । साल भर की फुरसत । जनेउ क्या था मोटा धागा । पाड़े जी संदूकची की चाबी उसमें लटकी रहती । मारकीन की गंजी और मोटी धोती जो घुटने से थोड़ा उपर ही रहती, यही उनका सदाबहार परिधान था । सर्दी में जरूर एक लोई ओढ लेते । लेबर कालोनी में जब जानकी ने अपने लिए क्वाटर लिया तो पास में ही लोटा पाड़े के लिए भी व्यवस्था कर दिया । जब पाड़े बाबा का जांगर थकने लगा तो गांव से बड़े भाई का एक बेटा पास आकर रहने लगा । कुछ दिन बाद पतोहू भी आ गई । अब दो रोटी सकून की मिलने लगी थी । नहीं तो लोटा में चावल और आलू उबाल कर खाते पूरी ज़िन्दगी निकल गई थी । वैसे भी भाई-भतिजे को डर था कि पाड़े को मिलने वाला धन बिना वारिस के कहीं डूब न जाय । भतीजा किसी शो रूम में सेल्स मैन का काम करता था । उसकी एक प्यारी सी बच्ची थी । बहुत प्यारी-प्यारी बातें करती-“ बाबा मेले लिए पीं-पीं वाला जूता किन दीजिए… बोलने वाली गुलिया ला दीजिए….” अढाई साल की हो गई थी । लोटा पाड़े का फुरसत का समय बड़े आनन्द से कट जाता ।
अब भर्ती भी कहां हो रही थी । आदमी का सारा काम तो मशीनें ही कर लेती है ।
मशीनें आटोमेटिक आ रही थीं उसमें दूसरा हिसाब-किताब था । सब मशीन में कमप्युटर लगा था । नये लड़के आतें । फटाफट बटन दबातें , प्रोगराम बन जाता । मशीन क्या जादू का पिटारा, तीन चौथाई काम खुद ही कर लेती । खाली मटेरियल पकड़वाना पड़ता । सामान तो जादू की तरह खुदबखुद बन कर बाहर आ जाता । उसकी मरम्मत तो दूर उसको छूने में ही जानकी की रूह कांपती । वैसे भी उसकी मरम्मत के लिए दूसरे कम्पनी का आदमी आता था।
जानकी थें जाति के कहांर । लेकिन अब जाति सिर्फ कहने को रह गई थी । दो लड़का और दो लड़की । यानि कि मैच बराबर पर छूटा था । जानकी की मेहरारू कभी रही होंगी कटीली । अब बुढापा और गठिया ने उन्हें काफी लाचार कर दिया था। एक तो भारी शरीर उपर से इ बीमारी…। इसी कारण बड़का को जल्दी बियहि दिये कि बुढिया को थोड़ा आराम मिलेगा । लेकिन पतोहू एक नम्बर की नंगिन मिल गई । उसका एक पांव हमेशा मायके में ही रहता । ऊपर से दो बच्चे भी हो गये थें । वो दोनों दादी की छाती पर ही सवार रहते । बड़ा लड़का किसी दवा कंपनी का प्रतिनधि था और काम से अक्सर बाहर ही रहता ।
जब काम का बोझ बढ जाता ….बुढिया बहू पर भुनभुनाती, “ बुजरी छिनार है, जरूर कवनो यार है उसका मायके में, शादी के पांच बरिस बाद भी उहे दिखाई देता है । कवनो न कवनो बहाना बना कर भागने की तैयार रहती । अरे हमरे घर भी तो बेटी है .. दू-दू बरस हो जाता है…बेटी का सकल देखने को अंखिया तरस जाती हैं । ”
इधर बड़ा हल्ला हो रहा है… मिल दूसरा कवनो सेठ खरीद रहा है । बहुत घाटा हो गया है । यदि सेठ ने मिल नहीं लिया तो समझो कि मिल बंद । मिल गेट पर रोज एक युनियन अपना झंडा-डंडा लेकर मालिक लोगों को गरिआता ,” हमने अपने खून पसीने से सींचा है इस मिल को ..और मालिक इसे दूसरों के हाथों बेंच कर हमारे बीबी-बच्चों के पेट पर लात मार रहा है ….हमारे भविष्य के साथ खिलवाड़ कर रहा है । हम ये बेइंसाफी नहीं बर्दाश करेगें । हम इनकी ईट से ईट बजा देगें । ”
लोटा पाड़े भी जोशिया जाते, “ जो हमसे टकरायेगा …चूर-चूर हो जायेगा । ”
“कुछ नहीं होगा महराज… हमीं लोगों का भुरकुस निकल जायेगा । सरवा व्यवस्था से कोई जीता है आजतक …काम कोई करने नहीं चाहता है । मिल हराम खोरों का गढ बनता जा रहा है । अब पूरा का पूरा जनम पतरी … जाति ..जनम का तारिख…भरती का तारिख….सब कुछ कमपूटर के बक्सा में डाल दिया गया है । काम करो न करो लाइन से परमोशन मिलेगा । का गधा … का घोड़ा… उ का कहता है रमरतिया –‘बने रहो लुल्ल, तनख्वाह लो फुल ।’ जब यही सोंच रह गयी है हम सभी की …फिर मालिक से किस बात की शिकायत …आखिर केतना दिन पोसे.. अपना बोझा दोसरे के कपारे पर डाल कर अपना जान छोड़ायेगा… दूसरा सेठ आयेगा त डंडा डाल कर काम लेगा ….जो नहीं झेल पायेगा ओकरे पिछाड़े लात मार कर बाहर कर देगा । कम से कम काम वाला लोगन का इज्जत तो होगा ना.. महराज जी आप त मेहनत वाला लोगन के लाइन के आदमी हो ….आप काहें इन चुतियापा में पड़े हो । वइसे भी अब जमाना बदल गया है । एतना ज्यादा बदल गया है कि सरकार का बुता है जो मालिक को उधार पइसा दे कर हमको पोस रही है ।” जानकी मिस्त्री पाड़े महराज को समझाने का प्रयास करते ।
लोटा पाड़े भी कोई बेवकूफ नहीं थें, “ का जानकी भइया आपो किस दुनिया में हैं । साला बड़का पढाई वाला तो घांस छिल रहा है । हम लोगों को कौन पूछेगा । इ सरवा झंडा है तो साहेब लोग थोड़ा चिंहुंका रहता है । जिस दिन इहो नहीं रहेगा तो मालिक लोग लखेद-लखेद कर मारेगा । इ झंडा और डंडा में बहुत ताकत है जानकी भइया । नाहीं त इ मिल कबका…… ”
जानकी मिस्त्री निरुत्तर हो गये, “ वाह महराज, आप तो काफी समझदार हो गये हैं । लेकिन जो हम कह रहें हैं । जरा उहो त सोचिए । मिल केतना त पइसा लगा दिया । ओकरे बाद भी घाटा । आखिर केतना दिन झेलेगा । कवनो कुबेर का खजाना तो है नहीं । दुनो हाथ से उलिचते जाओ । और उ बढता जायेगा । जरा आपे सोंचिये हमारे को जो पगार मिल रहा है ….. ओतना काम हम कर रहें का …आपे कह रहें हैं की बाहर हमको कवनो कानी कौड़ियो नहीं देगा । “ पाड़े जी बोले, “सब ठीक है भइया । आप का कवनो बात काटे हैं का कभी । लेकिन साहब लोग का कवनो जिम्मेदारी नहीं है का …. हमसे कई गुना पगार है उनका…”
“का महराज फिर बुरबकई वाला बात कर दिये न…. अब्बे इ मिल बंद हो जाय त किसका नुकसान होगा…हमरे न … साहब लोग को तो पचास जगह नौकरी धरा है । एक ठो छोड़ेगा दस जगह से बुलावा आ जायेगा । हम मजदूर हैं .. हमें मजदूरी नहीं मिलेगी तो हम बेकार हो जायेगें…. उ का कहते हैं …जब ज्यादा माल बेकार होने लगता है ‘स्क्रेप बढ रहा है’ त हमें स्क्रेप नहीं बनना है महराज जी …..” जानकी मिस्त्री भावुक हो गये और उठ कर लाइन में मशीन ठीक करने चल दिये ।
दो वर्ष की बात है । मिल चलती रहेगी तो फंड ..ग्रेज्युटी ..मिल जायेगा । छुटकी का व्याह भी धूम धाम से कर देंगे । छोटा बेटा भी कहीं हिल्ले से लग जाए तो वह यह शहर छोड़ देगें । फिर गांव लौट जायंगे । बस मिल चलता रहे… शहर के हालात बिल्कुल ठीक नहीं है । देखते- देखते भारत का मेनचेस्टर कहे जाने वाला यह शहर आज मजदूरों के स्क्रेप में बदल चुका है । धुआं उगलने वाली मिलें एक सुबह मौत की तरह शांत हो जातीं …कोई नहीं जानता इसमें कल तक हंसते-खेलते मजदूर अब क्या कर रहें हैं ।
मिल गेट पर नारे-बाजी रोज होती रही । लोटा पाड़े गला फाड़ कर चिल्लाते, “ जो हमसे टकरायेगा …चूर-चूर हो जायेगा । ” दिल्ली तक से बड़का नेता लोग भी आते रहें…। मिल की धड़कन को कोई तेज नहीं कर पाया । हां इन सब से इतना जरूर हुआ कि मिल दूसरे सेठ ने नहीं खरीदा । मिल धीरे-धीरे मर गया ।
जानकी मिस्त्री का गांव लौटने का सपना अधूरा रह गया । मिल खुलने के इंतजार में ,इसी शहर में दम तोड़ दिये और लोटा पाड़े … लोटा पाड़े अब भाई-भतिजों के लिये बोझ थें । उनका दिमाग भी ठीक से नहीं चल रहा था। जानकी भइया भी नहीं रहें जो उनकी सुध लेतें । एक दिन बहुरिया उनका लोटा नचा कर फेंक दिया, “ पता नहीं यह बुढवा कब तक खून चूसेगा । लगता है कउआ का मास खा कर आया है…. ”
रोज-रोज की जलालत से तंग आकर लोटा पाड़े घर छोड़ दिये । अब जांगर था नहीं कि मेहनत करते । पेट की आग तो बुझानी ही थी । भीख मांगना शुरू कर दिया । लोटा अब भी था उनके पास, लेकिन वह अब भिक्षा-पात्र बन चुका था । एक हाथ में लोटा.. दूसरे में सहारे के लिए डंडा…
अक्सर डंडा के उपरी छोर पर चिथड़ा बांधे बंद मिल के गेट पर आकर चिल्लातें, “ दुनिया के मजदूरों एक हो…. जो हमसे टकरायेगा …चूर-चूर हो जायेगा ।”
शहर में मजदूरों का स्क्रेप थोड़ा और बढ गया था । मिडिया चींखी… संसद में भी खूब हो-हल्ला होता रहा…फिर शांति…. लेकिन लोटा पाड़े कहां शांत थें… उनकी मुठ्ठियां अभी भी तनी थीं…….
गोविन्द उपाध्याय
हटो-बचो छा गए हम!हिंदी ब्लागलेखन जब अपनी नई उंचाईयाँ छूता है मेरा सीना गर्व से फूल जाता है. देखो बच्चों इसे कहते हैं “लेखन” इस की टक्कर का कुछ लाओ तो जाने!! गोविंद उपाध्यायजी को पहली बार पढ रहा हूँ और उनसे आगे लिखते रहने की मनुहार है. फुर्सतिया जी दूसरी किस्त छाप दीजिए हम पीसी के आगे से हिलूंगा नही तब तक!गोविन्द्जी ने काफ़ी दिन की चुप्पी के बाद लिखना शुरू किया था, हमारे उकसाने पर। उनके छोटे भाई भोला नाथ उपाध्याय (पप्पू) की प्रफ़ुल्लित प्रतिक्रिया थी-
फुरसतिया भाई साहब को कोटिशः धन्यवाद | मैने तो एक छोटा सा काम किया था और आपने तो इनाम क्या पूरा खजाना लुटा दिया | भैया लिखते हमेशा से अच्छे हैं पर इतनी अच्छी प्रस्तुति पहली बार देख रह हूं | सच है कि हीरे की चमक अच्छी तराशनवीशी पर ही होती है अन्यथा वह कहीं अन्धेरे में ही पड़ा रहता है । अत्युत्तम सम्पादन एवं प्रस्तुति के लिये बधाइयां स्वीकार करें।इसके बाद गोविन्दजी का लिखना दनादन शुरू हो गया है फिर से। पिछले दिनों उनकी एक कहानी मुंबई की एक पत्रिका में छपी। वह कहानी हमने उनसे झटक ली और यहां आपके लिये पेश कर रहे हैं। पढ़िये और बताइये कैसी लगी। उनकी और कहानी पढ़ने के लिये यहां और यहां देखें।
रद्दी
[यह कहानी समर्पित है उन मजदूरों को, जो कुप्रबंधन व बाजारवाद के दबाव से बंद हो गई मिलों के कारण अचानक रद्दी में बदल गये । जिन्होंने अपने जीवन की सारी उर्जा इन कारखानों में झोंक दिया ... और जिंदगी के अंतिम पड़ाव पर ठगे से देख रहें हैं उन बंद मिलों के दरवाजों की तरफ ....। उन्हें अभी भी आशा है-मिलें फिर धुंआ उगलेंगी ...]
सशक्त युवा कथाकार गोविंद उपाध्याय का जन्म ५ अगस्त, १९६० को हुआ। देश
की प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में उनकी लगभग १५० रचनायें प्रकाशित हुई हैं, कथा
संग्रह “पंखहीन” शीघ्र प्रकाश्य। जाल पर आप उनकी कथायें यहाँ , यहाँ, यहाँ और यहाँ पढ़ सकते हैं। सम्प्रति- आयुध निर्माणी में कार्यरत हैं।
लोटा पाड़े बेंच पर बैठे सुरती मलने में मगन थें। जानकी मिस्त्री मशीन
का चक्का खोल रहे थें। चक्का ससुरा था कि खुलने का नाम ही नहीं ले रहा था ।
जानकी मिस्त्री का काला चेहरा पसीने से लथपथ होकर और आबनूसी हो गया था ।“का हो भइया जरको दम नहीं रहल का । आधा घंटा से चक्का पकड़ कर हांफ रहे हो । भउजइयो अपने करम को रो रही होंगी।” लोटा पाड़े खिलखिला कर हंस दिये । और जानकी उनके मज़ाक की गहराई समझ कर मुस्कराए ।
दोनो की बहुत पुरानी दोस्ती थी । इस मिल में साथ-साथ आये थें । काफी दिन साथ-साथ रहे भी । जानकी हेल्पर से मिस्त्री बन गए तो पाड़े जी को भी कारीगर बना दिया । वैसे जानकी की का औकात कि किसी को कुछ बना दें । वो तो एक मशीन खराब थी जेम्स साहेब बोलें- “ जानकी तुम तो कारीगर आदमी हो और तुम्हारे रहते मशीन बिगड़ा पड़ा है । हमको अच्छा नहीं लगता है । ” जानकी भी तब जोसिया गये और एक-एक पुर्जा खोल कर मशीन को ठीक कर के ही दम लिया। बहुत खुश हुआ था साहेब । पीठ ठोक कर बोला , “ हम तुमसे बहोत खुश हैं । हम तुम्हारे को कुछ देना मांगता है । बोलो क्या मांगता है ।”
जानकी मिस्त्री भी हाथ जोड़ कर बोले, “ हजूर इ हमरे गांव जेवार के बाभन देवता हैं । काफी दिन से हेल्परी कर रहे हैं । बढिया काम सीख गये है । आप किरपा कर देते हजूर त…”
और बिना किसी ना नुकर के जेम्स साहेब लोटा पाड़े को कारीगर बना दिये । ये बात जानकी ने कभी अपने मुंह से नहीं कहा होगा । लेकिन पाड़े महराज को इस किस्से को सुनाने में कोई गुरेज़ नहीं था । जानकी कई बार टोक भी चुके थें, “ बस महराज , रहे भी दिहल जाय । उ जमाना ही दुसर था । आदमिये कहां मिलते थें । अब तो अपने लरिका बच्चा को भर्ती कराने को सोंचिए तो कोई घासे नहीं डालेगा । हर काम में बिचौलिया हो गया है । केतना तो साला युनियन बन गया है । लाला झंडा, पीला झंडा, नीला झंडा….. जिसको काम नहीं करना है कवनो रंग का झंडा पकड़ लो…आ सबसे मजेदार बात त इ है कि साहबो लोग भी इन्ही की सुनता है । नहीं तो गेट पर खड़ा हो कर ‘ ले कर रहेगें ..दे कर रहेंगे…’ चिल्लायेगे ।” लोटा पाड़े पचपन पार कर चुके थें । जानकी उनसे एकाध साल बड़े होगें । दोनो के परिवेश में ज़मीन आसमान का अंतर था । लोटा पाड़े शुद्ध शाकाहारी दोनो समय पूजा-पाठ करने वाले जबकि जानकी मास-मछरी वाले ..मिली तो सो ग्राम पी भी लें ।
लोटा पाड़े का चरित्र भी बेजोड़ था । पांच फुटिया गोल मटोल से ..रंग पीली गोराई वाला. ..सिर के आगे के बाल उम्र के इस पड़ाव तक पहुंचते-पहुंचते साथ छोड़ चुके थें । लगातार सुर्ती के सेवन ने दांतो को अनुशासन हीन बना दिया था, वे गंदे व कमजोर हो चुके थे । उपर व नीचे के दो-दो दांत भाग चुके थें । शेष दांतो की विश्वासनियता पर भी संदेह था ..न जाने कब साथ छोड़ दें । पाड़े जी के पास एक तांबे का लोटा था । वह लोटा क्या था उनके पूर्वजों के सम्मान का प्रतीक था । यह लोटा गांव से चलते समय अपने साथ लाये थें । कभी वह बहुत भारी रहा होगा लेकिन आज समय की मार ने उसे बेढंगा बना दिया है । मिल में चाय टाइम के समय पाड़े का लोटा चाय वाले के सामने सबसे पहले आ जाता । पूरे चार कप चाय लेते थें पाड़े महराज । जब कभी बहुरिया के हाथ के खाने से उबिया जाते तो इसी लोटवे में दो मुठ्ठी चावल डाल कर डभका लेते । कोई टोकता, “ का हो पाड़े जी आज बहुरिया से फिर झगड़ आये हैं का..”
लोटा
पाड़े का चरित्र भी बेजोड़ था । पांच फुटिया गोल मटोल से ..रंग पीली गोराई
वाला. ..सिर के आगे के बाल उम्र के इस पड़ाव तक पहुंचते-पहुंचते साथ छोड़
चुके थें । लगातार सुर्ती के सेवन ने दांतो को अनुशासन हीन बना दिया था, वे
गंदे व कमजोर हो चुके थे ।
दर असल लोटा पाड़े को बवासीर की शिकायत थी और बहुरिया को थोड़ा चट्कार
भोजन पसंद था। जब बीमारी उभरती तो लोटा ही एकमात्र सहारा होता … चावल
डभकाओ, माड़ पसाओ… और नमक डाल कर सटक लो……और इसी बात से जानकी को चिढ था ,
“ का महराज बहुरिया से कह दें त का उ बिना तेल मिर्चा के नहीं बना देगी । उ
का कहते हैं अपनी तरफ ‘मड़हा मरद चउरही जोह, ओकरे घरे बरक्कत न होय’
(माड़-भात खाने वाले पुरुष और कच्चा चावल खाने वाली स्त्री के घर में कभी
प्रगति नहीं होती है)” लोटा पाड़े फिस्स से हंस देते, “ हां जानकी भइया तोहार कहल सही है । मगर बहुरिया मनबे नहीं करती है । एकाध दिन सही बनायेगी फिर उहे राग माला..” लोटा पाड़े बड़े शान से इस लोटे के बारे में बताते, “ जउरा के महराज के यहां जजमानी में मिला था यह लोटा । राजा साहेब को बुढौती में लरिका हुआ । रानी साहिबा भागवत भाखी थीं । लोटा मुरादाबाद से सवा-सवा किलो का पेशल आडर दे कर बनवाया गया था । पूर्ण आहुति के बाद एक पांति में बइठा कर पांव लागि-लागि कर जेवार के इकइस बड़का बाभान को सर-समान के साथ इ लोटा भी दान में दिये थें ।”
यह लोटा ही उनकी पहचान बन गया था। तभी तो गोरखपुर से कानपुर आते-आते लल्लन पाड़े ‘लोटा पाड़े’ हो गये ।
लोटा पाड़े बाल ब्रह्मचारी थें । चौदह वर्ष की उम्र में घर छोड़ दिये थें । छोड़ते नहीं तो क्या करते। एक-एक दाने को तो मोहताज था परिवार । पूरी पूस की रात, कन (शकरकंद) खा कर … और चट्टी (बोरा) ओढ़ कर गोंइठा के आग के सहारे कट गया । फागुन आया तो सोचा कि दलहन व तेलहन से घर को कुछ राहत मिलेगी… तो कुछ मौसम की मार अ कुछ बड़का भइया की नशा खोरी … एक्को दाना घर नहीं पहुंचा । लल्लन पाड़े के सब्र का प्याला भर गया , “ का फायदा है अइसी खेती – बाड़ी का । चुल्हा भाड़ में जाय साला … जब मजूरी ही करना है तो का देश का परदेश …..” और पहिली ट्रेन पकड़ कर आ गये शहर में । पांच साल तक क्या-क्या नहीं किया । गारा-माटी ढोया ..भइसा गाड़ी खींचा… तभी मिले थें जानकी । गांव जवार का होने से जल्दी ही घनिष्टता भी हो गयी । एक बार पाड़ेजी बीमार पड़ गये । अब इस परदेश में कौन था जो उनका देख-भाल करता । जानकी अपने ठीहे पर लाये। खूब सेवा किये । बस उसी दिन से जाति भेद भी मिट गया । जानकी को वो भइया कहते और जानकी उनको महराजजी… भले ही पूरा मिल उन्हें लोटा पाड़े बोलता हो ।
लोटा उनके जीवन में उतना ही अहम था जितना की जनेउ । गंगा मेला के दौरान तीन रुपया में एक दर्जन जनेउ खरीद लाते । साल भर की फुरसत । जनेउ क्या था मोटा धागा । पाड़े जी संदूकची की चाबी उसमें लटकी रहती । मारकीन की गंजी और मोटी धोती जो घुटने से थोड़ा उपर ही रहती, यही उनका सदाबहार परिधान था । सर्दी में जरूर एक लोई ओढ लेते । लेबर कालोनी में जब जानकी ने अपने लिए क्वाटर लिया तो पास में ही लोटा पाड़े के लिए भी व्यवस्था कर दिया । जब पाड़े बाबा का जांगर थकने लगा तो गांव से बड़े भाई का एक बेटा पास आकर रहने लगा । कुछ दिन बाद पतोहू भी आ गई । अब दो रोटी सकून की मिलने लगी थी । नहीं तो लोटा में चावल और आलू उबाल कर खाते पूरी ज़िन्दगी निकल गई थी । वैसे भी भाई-भतिजे को डर था कि पाड़े को मिलने वाला धन बिना वारिस के कहीं डूब न जाय । भतीजा किसी शो रूम में सेल्स मैन का काम करता था । उसकी एक प्यारी सी बच्ची थी । बहुत प्यारी-प्यारी बातें करती-“ बाबा मेले लिए पीं-पीं वाला जूता किन दीजिए… बोलने वाली गुलिया ला दीजिए….” अढाई साल की हो गई थी । लोटा पाड़े का फुरसत का समय बड़े आनन्द से कट जाता ।
लोटा उनके जीवन में उतना ही अहम था जितना की जनेउ । गंगा मेला के दौरान
तीन रुपया में एक दर्जन जनेउ खरीद लाते । साल भर की फुरसत । जनेउ क्या था
मोटा धागा । पाड़े जी संदूकची की चाबी उसमें लटकी रहती ।
आखिर जानकी मिस्त्री ने मशीन का चक्का खोल ही दिया । चहेरे पर थोड़ा सकून
आया । अभी बहुत काम पड़ा था । मशीनें पुरानी, लोग पुराने । खुचुर-पुचर काम
चल रहा था। बस दो ही ऐसा विभाग बचा था जहां पुरानी मशीने थीं और जानकी तथा
लल्लन जैसे पुराने लोग । अब भर्ती भी कहां हो रही थी । आदमी का सारा काम तो मशीनें ही कर लेती है ।
मशीनें आटोमेटिक आ रही थीं उसमें दूसरा हिसाब-किताब था । सब मशीन में कमप्युटर लगा था । नये लड़के आतें । फटाफट बटन दबातें , प्रोगराम बन जाता । मशीन क्या जादू का पिटारा, तीन चौथाई काम खुद ही कर लेती । खाली मटेरियल पकड़वाना पड़ता । सामान तो जादू की तरह खुदबखुद बन कर बाहर आ जाता । उसकी मरम्मत तो दूर उसको छूने में ही जानकी की रूह कांपती । वैसे भी उसकी मरम्मत के लिए दूसरे कम्पनी का आदमी आता था।
जानकी थें जाति के कहांर । लेकिन अब जाति सिर्फ कहने को रह गई थी । दो लड़का और दो लड़की । यानि कि मैच बराबर पर छूटा था । जानकी की मेहरारू कभी रही होंगी कटीली । अब बुढापा और गठिया ने उन्हें काफी लाचार कर दिया था। एक तो भारी शरीर उपर से इ बीमारी…। इसी कारण बड़का को जल्दी बियहि दिये कि बुढिया को थोड़ा आराम मिलेगा । लेकिन पतोहू एक नम्बर की नंगिन मिल गई । उसका एक पांव हमेशा मायके में ही रहता । ऊपर से दो बच्चे भी हो गये थें । वो दोनों दादी की छाती पर ही सवार रहते । बड़ा लड़का किसी दवा कंपनी का प्रतिनधि था और काम से अक्सर बाहर ही रहता ।
जब काम का बोझ बढ जाता ….बुढिया बहू पर भुनभुनाती, “ बुजरी छिनार है, जरूर कवनो यार है उसका मायके में, शादी के पांच बरिस बाद भी उहे दिखाई देता है । कवनो न कवनो बहाना बना कर भागने की तैयार रहती । अरे हमरे घर भी तो बेटी है .. दू-दू बरस हो जाता है…बेटी का सकल देखने को अंखिया तरस जाती हैं । ”
जब से आधुनिकीकरण का सिलसिला चला है । इधर कवनो साहेब झांकने भी नहीं आता ।
पहिले आठ घंटा खटने के बाद भी रोक लिया जाता था । अब तो कोई पुछंतरे नहीं
है । सब साला कारीगर लोग दिन भर बकचोदी करता है । दुसरे के मेहरारू के बारे
में गन्दा-सन्दा बात करेगा ।
जानकी इन सबसे फ्री थें । बड़ी वाली लड़की की शादी कर चुके थें । छोटा
लड़का सिविल से डिप्लोमा कर रहा था और छुटकी इंटर की तैयारी में लगी थी । सब
कुछ ठीके ठाक चल रहा था । नौकरी में भी पहले काफी सम्मान मिलता था । लेकिन
जब से आधुनिकीकरण का सिलसिला चला है । इधर कवनो साहेब झांकने भी नहीं आता ।
पहिले आठ घंटा खटने के बाद भी रोक लिया जाता था । अब तो कोई पुछंतरे नहीं
है । सब साला कारीगर लोग दिन भर बकचोदी करता है । दुसरे के मेहरारू के बारे
में गन्दा-सन्दा बात करेगा । पोलिटिक्स के बारे में ए बी सी डी… नहीं
मालूम लेकिन नेता लोगन का भ्रष्टाचार पर ऐसा भाषण झाड़ेगा जइसे देस का सारा
बोझा यही ससुर लोग ढो रहा है । हां पुरानी मसीन बार-बार मरम्मत मांगता है ।
…और अब उनके बुढे सरीर में जान कहां बचा है । एक ठो अभी काम करना चालू
नहीं किया के दूसरा खराब.. दूसरा सही हुआ तो पहिला खराब …और जानकी बेजार हो
गये हैं इन मशीनों से…. बाबा आदम के जमाने की तो हैं …कवनो का पुर्जा नहीं
मिलता है बाजार में । साला जोगाड़ से काम कब तक करेगा । कोई कह रहा था ये
भी सब जल्द ही खोद कर फेंक दिया जायेगा । और इसे भी आटोमेटिक प्लांट कर
दिया जायेगा । तब वो का करेगें । करेगें क्या… घुंइया छिलेगें.. कितना दिन
बचा है दू साल…..इधर बड़ा हल्ला हो रहा है… मिल दूसरा कवनो सेठ खरीद रहा है । बहुत घाटा हो गया है । यदि सेठ ने मिल नहीं लिया तो समझो कि मिल बंद । मिल गेट पर रोज एक युनियन अपना झंडा-डंडा लेकर मालिक लोगों को गरिआता ,” हमने अपने खून पसीने से सींचा है इस मिल को ..और मालिक इसे दूसरों के हाथों बेंच कर हमारे बीबी-बच्चों के पेट पर लात मार रहा है ….हमारे भविष्य के साथ खिलवाड़ कर रहा है । हम ये बेइंसाफी नहीं बर्दाश करेगें । हम इनकी ईट से ईट बजा देगें । ”
लोटा पाड़े भी जोशिया जाते, “ जो हमसे टकरायेगा …चूर-चूर हो जायेगा । ”
“कुछ नहीं होगा महराज… हमीं लोगों का भुरकुस निकल जायेगा । सरवा व्यवस्था से कोई जीता है आजतक …काम कोई करने नहीं चाहता है । मिल हराम खोरों का गढ बनता जा रहा है । अब पूरा का पूरा जनम पतरी … जाति ..जनम का तारिख…भरती का तारिख….सब कुछ कमपूटर के बक्सा में डाल दिया गया है । काम करो न करो लाइन से परमोशन मिलेगा । का गधा … का घोड़ा… उ का कहता है रमरतिया –‘बने रहो लुल्ल, तनख्वाह लो फुल ।’ जब यही सोंच रह गयी है हम सभी की …फिर मालिक से किस बात की शिकायत …आखिर केतना दिन पोसे.. अपना बोझा दोसरे के कपारे पर डाल कर अपना जान छोड़ायेगा… दूसरा सेठ आयेगा त डंडा डाल कर काम लेगा ….जो नहीं झेल पायेगा ओकरे पिछाड़े लात मार कर बाहर कर देगा । कम से कम काम वाला लोगन का इज्जत तो होगा ना.. महराज जी आप त मेहनत वाला लोगन के लाइन के आदमी हो ….आप काहें इन चुतियापा में पड़े हो । वइसे भी अब जमाना बदल गया है । एतना ज्यादा बदल गया है कि सरकार का बुता है जो मालिक को उधार पइसा दे कर हमको पोस रही है ।” जानकी मिस्त्री पाड़े महराज को समझाने का प्रयास करते ।
लोटा पाड़े भी कोई बेवकूफ नहीं थें, “ का जानकी भइया आपो किस दुनिया में हैं । साला बड़का पढाई वाला तो घांस छिल रहा है । हम लोगों को कौन पूछेगा । इ सरवा झंडा है तो साहेब लोग थोड़ा चिंहुंका रहता है । जिस दिन इहो नहीं रहेगा तो मालिक लोग लखेद-लखेद कर मारेगा । इ झंडा और डंडा में बहुत ताकत है जानकी भइया । नाहीं त इ मिल कबका…… ”
जानकी मिस्त्री निरुत्तर हो गये, “ वाह महराज, आप तो काफी समझदार हो गये हैं । लेकिन जो हम कह रहें हैं । जरा उहो त सोचिए । मिल केतना त पइसा लगा दिया । ओकरे बाद भी घाटा । आखिर केतना दिन झेलेगा । कवनो कुबेर का खजाना तो है नहीं । दुनो हाथ से उलिचते जाओ । और उ बढता जायेगा । जरा आपे सोंचिये हमारे को जो पगार मिल रहा है ….. ओतना काम हम कर रहें का …आपे कह रहें हैं की बाहर हमको कवनो कानी कौड़ियो नहीं देगा । “ पाड़े जी बोले, “सब ठीक है भइया । आप का कवनो बात काटे हैं का कभी । लेकिन साहब लोग का कवनो जिम्मेदारी नहीं है का …. हमसे कई गुना पगार है उनका…”
“का महराज फिर बुरबकई वाला बात कर दिये न…. अब्बे इ मिल बंद हो जाय त किसका नुकसान होगा…हमरे न … साहब लोग को तो पचास जगह नौकरी धरा है । एक ठो छोड़ेगा दस जगह से बुलावा आ जायेगा । हम मजदूर हैं .. हमें मजदूरी नहीं मिलेगी तो हम बेकार हो जायेगें…. उ का कहते हैं …जब ज्यादा माल बेकार होने लगता है ‘स्क्रेप बढ रहा है’ त हमें स्क्रेप नहीं बनना है महराज जी …..” जानकी मिस्त्री भावुक हो गये और उठ कर लाइन में मशीन ठीक करने चल दिये ।
दो वर्ष की बात है । मिल चलती रहेगी तो फंड ..ग्रेज्युटी ..मिल जायेगा । छुटकी का व्याह भी धूम धाम से कर देंगे । छोटा बेटा भी कहीं हिल्ले से लग जाए तो वह यह शहर छोड़ देगें । फिर गांव लौट जायंगे । बस मिल चलता रहे… शहर के हालात बिल्कुल ठीक नहीं है । देखते- देखते भारत का मेनचेस्टर कहे जाने वाला यह शहर आज मजदूरों के स्क्रेप में बदल चुका है । धुआं उगलने वाली मिलें एक सुबह मौत की तरह शांत हो जातीं …कोई नहीं जानता इसमें कल तक हंसते-खेलते मजदूर अब क्या कर रहें हैं ।
मिल गेट पर नारे-बाजी रोज होती रही । लोटा पाड़े गला फाड़ कर चिल्लाते, “ जो हमसे टकरायेगा …चूर-चूर हो जायेगा । ” दिल्ली तक से बड़का नेता लोग भी आते रहें…। मिल की धड़कन को कोई तेज नहीं कर पाया । हां इन सब से इतना जरूर हुआ कि मिल दूसरे सेठ ने नहीं खरीदा । मिल धीरे-धीरे मर गया ।
जानकी मिस्त्री का गांव लौटने का सपना अधूरा रह गया । मिल खुलने के इंतजार में ,इसी शहर में दम तोड़ दिये और लोटा पाड़े … लोटा पाड़े अब भाई-भतिजों के लिये बोझ थें । उनका दिमाग भी ठीक से नहीं चल रहा था। जानकी भइया भी नहीं रहें जो उनकी सुध लेतें । एक दिन बहुरिया उनका लोटा नचा कर फेंक दिया, “ पता नहीं यह बुढवा कब तक खून चूसेगा । लगता है कउआ का मास खा कर आया है…. ”
रोज-रोज की जलालत से तंग आकर लोटा पाड़े घर छोड़ दिये । अब जांगर था नहीं कि मेहनत करते । पेट की आग तो बुझानी ही थी । भीख मांगना शुरू कर दिया । लोटा अब भी था उनके पास, लेकिन वह अब भिक्षा-पात्र बन चुका था । एक हाथ में लोटा.. दूसरे में सहारे के लिए डंडा…
अक्सर डंडा के उपरी छोर पर चिथड़ा बांधे बंद मिल के गेट पर आकर चिल्लातें, “ दुनिया के मजदूरों एक हो…. जो हमसे टकरायेगा …चूर-चूर हो जायेगा ।”
शहर में मजदूरों का स्क्रेप थोड़ा और बढ गया था । मिडिया चींखी… संसद में भी खूब हो-हल्ला होता रहा…फिर शांति…. लेकिन लोटा पाड़े कहां शांत थें… उनकी मुठ्ठियां अभी भी तनी थीं…….
गोविन्द उपाध्याय
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समाजिक और आर्थिक सरंचना की कोई भी अवधारणा [कम्युनिज़्म/केपिटलिज़्म/आदी] संतुलित व्यवस्था नहीं दे पाई है फ़िर उस पर परिवर्तन की गति से सामंजस्य रखने का नाम ही अनुकूलनशीलता है – कठिन कर्म है. जो परिवर्तन ला रहे हैं अब तो वे खुद भी बौखलाए हुए हैं.
तनावग्रस्त अमरीकी लगभग तीन बार अलग-अलग प्रकार के काम करना सीखता है और करता है. औसतन चार साल में एक बार नौकरी बदलता है – १८-३८ वर्ष की आयू के बीच १० नौकरियां बदल चुकता है – ऐसे में मील के बंद होने पर उस पर जनमभर आश्रित रहने का पिलान बनाये अधेड मजदूरों के संघर्ष की कहानी कुछ पुरानी सी लगती है – “ये मील हमारी मां है (और हम शाश्वत शैशव हैं)” टाईप के डायलाग और श्वेत-श्याम युग के सिनेमा की याद दिलवाती है.
लालची कार्पोरेट जगत ने रद्दी को रीसाईकल करने के बजाए दुनियाभर में सस्ते मजदूर कबाडने की कवायद चला रखी है और भय व्यक्त किया जाता है कि वे जितने जल्दी काम पा रहे हैं उतनी ही गति से रद्दी में तब्दील होते जाएंगे!
हम तो गोविंदजी के पहले से ही मुरीद हैं पर शिकायत है कि उनका लिखा इतना कम पढ़ने के लिए उपलब्ध हो पाता है….
aapki writting bahut hi umda hai. padhkar maza aaya.
मिलकर्मियों के संघर्ष का अच्छा चित्रण है. किन्तु कहानी के उद्देश्य तक नहीं पहुँची है
या हो सकताहै कि मैं समझने में असमर्थ रहा हूं.
लेकिन किसी ने कहाहै:-
‘लो अतीत से उतना ही, जितना पोषक है!
जीर्ण शीर्ण का मोह मृत्यु ही का द्योतक है !!.