http://web.archive.org/web/20140419212746/http://hindini.com/fursatiya/archives/369
एक खुशनुमा मुलाकात…
By फ़ुरसतिया on November 12, 2007
कानपुरियों के साथ बस यही दिक्कत है , जहाँ कानपुरिये देखे बत्तीसी दिखा दी डा.टंडन
डा. प्रभात टंडन से लखनऊ में हुयी मुलाकात का विवरण देते हुये हमने लिखा था-
१.ये खुशनुमा पहलू भाभीजी थीं जो पानी और मिठाई लेकर उपस्थित हो गयीं। एक मामले में वे और खुशनुमा लगीं कि वे चिट्ठाजगत के चिट्ठों से ज्यादा जुड़ी नहीं हैं इसलिये हमसे वे उतनी आतंकित नहीं दिखीं जितने टंडनजी।
२.कुछ देर में हमारा और उनका मायका, गली, मोहल्ला सब एक एक हो गया। हम डा. टंडन को किनारे करके अपने बचपन की गलियों और मकानों की शिनाख्त करने में जुट गये।
३.डा. टंडन घर में घरेलू पति की तरह दिखे। बाअदब, बामुलाहिजा। आवाज धीमी-धीमी जिसे हम संयत कह रहे हैं। शांति का प्रतीक कुर्ता-पायजामा धारण किये।
दो दिन पहले जब डा. टंडन कानपुर मेरे घर मिलने आये तो हमने पाया कि इन बातों में कुछ नहीं बदला था सिवाय इस बात के कि उनके कुर्ता रंगीन हो गया था और साथ में हमारे अमिताभ बच्चन की जगह उनके सुपुत्र थे। जगह लखनऊ की जगह कानपुर हो गयी थी।
टंडनजी का फोन सुबह आया दिवाली के अगले दिन। आने की सूचना। उसी दिन सबेरे लखनऊ से चले थे। सुबह अपने कानपुर के ब्लागर दोस्त से मिलते हुये हमारे घर की तरफ़ आये। मुझे इससे पहले पता ही न था कि डा. देशबन्धु बाजपेयीजी कानपुर के ब्लागर हैं और आयुर्वेद की जानकारी देते हुये चिट्ठाकारी करते हैं।
डा.बाजपेयी से मिलने के बाद वे हमारे घर आने के पहले बिठूर होते हुये आये। नानाजी पेशवा का किला बन्द होने के कारण देख न पाये। कानपुर में होने के कारण डा.टंडनकी स्पीड बढ़ गयी थी। मेरे घर आने के पहले पनकी मन्दिर चले गये। वहां सलामी ठोंक कर वापस हमारे घर आये।
घर पहुंच कर बच्चे तो कम्प्यूटर मे जुट गये। हम लोग बतियाने में। परिवार वाले ऐसे बतिया रहे थे जैसे बहुत पहले से जानते -पहचानते हैं।
डा. टंडन ने समय की कमी और ब्लाग की बढ़ती संख्या की बात करते हुये बताया कि अक्सर पढ़ना छूट जाता है। मुझे भी यही समस्या होने लगी है। मुझे उनसे ही पता चला कि जीतेंन्द्र ने ब्लागिंग से जुड़े कुछ कार्टून पोस्ट किये हैं। बात जीतेंन्द्र, समीरलाल, अनुराग श्रीवास्तव और तमाम दूसरे ब्लागरों के बारे में हुयीं।हमारी तरह डा. टंडन भी निधि के लेखन के मुरीद हैं। आजकल निधि का लिखना बंद सा है।
हम और डा.टंडन आपस में न जाने कौन-कौन सी चोंचे लड़ाते रहे। उधर हमारी श्रीमतीजी डा.अनिका से गपियाने लगीं। बाद में हमें उनसे ही पता चला कि हमारी और टंडन दम्पति की शादी एक ही वर्ष १९८९ में हुयी।
डा. टंडन ने इस बीच अपना कैमरा बदल दिया था। पिछली बार लखनऊ में उन्होंने जो फोटो खींचे थे वे फिर दिखे नहीं। कैमरे की भेंट चढ़ गये। इस बार के फोटो अभी उनके कैमरे से देखना है।
करीब दो घंटे बतियाने के बाद वे लोग आगे चले गये। दीवाली के बाद का दिन ‘परेवा’ इनकेलिये एक मात्र छुट्टी का दिन होता है। बाकी दिन क्लीनिक खुला रहता है।
डा.अनिका लखनऊ में हमारी भाभी थी। लेकिन कानपुर में हम उनके मायके वाले हो गये।मायके में होने के कारण वे लखनऊ के मुकाबले अधिक खिली-खिली लग रहीं थी। विदाई में घर में उगाई गयी हल्दी भेंट की गयी। विदाई में बहनों को यही तो दिया जाता है। हल्दी ,कुंकुम। ब्लागिंग में भी रिश्ते बन जाते हैं।
इसके पहले डा.टंडन ने हमारी श्रीमती जी को उनकी स्किन एलर्जी के लिये कुछ दवाइयां लिखीं। अब उनका परीक्षण हो रहा है। छुट्टी के दिन भी उनकी दुकान चलती रही।
दीवाली के बाद की यह एक खुशनुमा यादगार मुलाकात रही। लखनऊ में होने के कारण ऐसे मौके और आते रहेंगे।
एक बात जो दोनों ब्लागर पत्नियों में दिखी वह यह कि दोनों ब्लागिंग को फ़ालतू काम मानती हैं। लेकिन यह सुखद है कि वे गांधीजी के रास्ते पर चलते हुये (पाप को घृणा करो पापी को नहीं) ब्लागर को उतना फ़ालतू नहीं मानतीं।
यह कम सुकूनदेह बात नहीं है भाई!
ये भी देखें:
1.डा. टंडन के दौलतखाने में फुर्सत के साथ पानी के बताशे
2.चन्द लम्हों की ब्लागरिया मुलाकात
डा. प्रभात टंडन से लखनऊ में हुयी मुलाकात का विवरण देते हुये हमने लिखा था-
१.ये खुशनुमा पहलू भाभीजी थीं जो पानी और मिठाई लेकर उपस्थित हो गयीं। एक मामले में वे और खुशनुमा लगीं कि वे चिट्ठाजगत के चिट्ठों से ज्यादा जुड़ी नहीं हैं इसलिये हमसे वे उतनी आतंकित नहीं दिखीं जितने टंडनजी।
२.कुछ देर में हमारा और उनका मायका, गली, मोहल्ला सब एक एक हो गया। हम डा. टंडन को किनारे करके अपने बचपन की गलियों और मकानों की शिनाख्त करने में जुट गये।
३.डा. टंडन घर में घरेलू पति की तरह दिखे। बाअदब, बामुलाहिजा। आवाज धीमी-धीमी जिसे हम संयत कह रहे हैं। शांति का प्रतीक कुर्ता-पायजामा धारण किये।
दो दिन पहले जब डा. टंडन कानपुर मेरे घर मिलने आये तो हमने पाया कि इन बातों में कुछ नहीं बदला था सिवाय इस बात के कि उनके कुर्ता रंगीन हो गया था और साथ में हमारे अमिताभ बच्चन की जगह उनके सुपुत्र थे। जगह लखनऊ की जगह कानपुर हो गयी थी।
टंडनजी का फोन सुबह आया दिवाली के अगले दिन। आने की सूचना। उसी दिन सबेरे लखनऊ से चले थे। सुबह अपने कानपुर के ब्लागर दोस्त से मिलते हुये हमारे घर की तरफ़ आये। मुझे इससे पहले पता ही न था कि डा. देशबन्धु बाजपेयीजी कानपुर के ब्लागर हैं और आयुर्वेद की जानकारी देते हुये चिट्ठाकारी करते हैं।
डा.बाजपेयी से मिलने के बाद वे हमारे घर आने के पहले बिठूर होते हुये आये। नानाजी पेशवा का किला बन्द होने के कारण देख न पाये। कानपुर में होने के कारण डा.टंडनकी स्पीड बढ़ गयी थी। मेरे घर आने के पहले पनकी मन्दिर चले गये। वहां सलामी ठोंक कर वापस हमारे घर आये।
घर पहुंच कर बच्चे तो कम्प्यूटर मे जुट गये। हम लोग बतियाने में। परिवार वाले ऐसे बतिया रहे थे जैसे बहुत पहले से जानते -पहचानते हैं।
डा. टंडन ने समय की कमी और ब्लाग की बढ़ती संख्या की बात करते हुये बताया कि अक्सर पढ़ना छूट जाता है। मुझे भी यही समस्या होने लगी है। मुझे उनसे ही पता चला कि जीतेंन्द्र ने ब्लागिंग से जुड़े कुछ कार्टून पोस्ट किये हैं। बात जीतेंन्द्र, समीरलाल, अनुराग श्रीवास्तव और तमाम दूसरे ब्लागरों के बारे में हुयीं।हमारी तरह डा. टंडन भी निधि के लेखन के मुरीद हैं। आजकल निधि का लिखना बंद सा है।
हम और डा.टंडन आपस में न जाने कौन-कौन सी चोंचे लड़ाते रहे। उधर हमारी श्रीमतीजी डा.अनिका से गपियाने लगीं। बाद में हमें उनसे ही पता चला कि हमारी और टंडन दम्पति की शादी एक ही वर्ष १९८९ में हुयी।
डा. टंडन ने इस बीच अपना कैमरा बदल दिया था। पिछली बार लखनऊ में उन्होंने जो फोटो खींचे थे वे फिर दिखे नहीं। कैमरे की भेंट चढ़ गये। इस बार के फोटो अभी उनके कैमरे से देखना है।
करीब दो घंटे बतियाने के बाद वे लोग आगे चले गये। दीवाली के बाद का दिन ‘परेवा’ इनकेलिये एक मात्र छुट्टी का दिन होता है। बाकी दिन क्लीनिक खुला रहता है।
डा.अनिका लखनऊ में हमारी भाभी थी। लेकिन कानपुर में हम उनके मायके वाले हो गये।मायके में होने के कारण वे लखनऊ के मुकाबले अधिक खिली-खिली लग रहीं थी। विदाई में घर में उगाई गयी हल्दी भेंट की गयी। विदाई में बहनों को यही तो दिया जाता है। हल्दी ,कुंकुम। ब्लागिंग में भी रिश्ते बन जाते हैं।
इसके पहले डा.टंडन ने हमारी श्रीमती जी को उनकी स्किन एलर्जी के लिये कुछ दवाइयां लिखीं। अब उनका परीक्षण हो रहा है। छुट्टी के दिन भी उनकी दुकान चलती रही।
दीवाली के बाद की यह एक खुशनुमा यादगार मुलाकात रही। लखनऊ में होने के कारण ऐसे मौके और आते रहेंगे।
एक बात जो दोनों ब्लागर पत्नियों में दिखी वह यह कि दोनों ब्लागिंग को फ़ालतू काम मानती हैं। लेकिन यह सुखद है कि वे गांधीजी के रास्ते पर चलते हुये (पाप को घृणा करो पापी को नहीं) ब्लागर को उतना फ़ालतू नहीं मानतीं।
यह कम सुकूनदेह बात नहीं है भाई!
ये भी देखें:
1.डा. टंडन के दौलतखाने में फुर्सत के साथ पानी के बताशे
2.चन्द लम्हों की ब्लागरिया मुलाकात
Posted in बस यूं ही | 16 Responses
आपकी खुशनुमा मुलाकात पढ़कर अच्छा लगा , ऐसे पल एक – दूसरे से बाँटने से करीब होने का एहसास होता है.
’हम डा. टंडन को किनारे करके अपने बचपन की गलियों और मकानों की शिनाख्त करने में जुट गये।’
’पाप से घृणा करो, पापी से नही’ और
वे चिट्ठाजगत के चिट्ठों से ज्यादा जुड़ी नहीं हैं इसलिये हमसे वे उतनी आतंकित नहीं दिखीं जितने टंडनजी। ’
बकिया मेल मुलाकात जारी रहनी चाहिए।
अब जल्दी से बाकी ब्लागर की भी राय लेकर एक पोल सर्वेक्षण करवा लें
दुबारा हुई मुलाकात अक्सर अंतरंगता बढ़ाती है!!
अच्छे डाक्टर साहब है, हम दवा लेगे वो भी फ्री में