ब्लागिंग के साइड इफ़ेक्ट…
By फ़ुरसतिया on November 17, 2007
दो दिन पहले अपने जनमदिन का बहाना लेकर ज्ञानजी ने ब्लागरों के खिलाफ़ प्रथम सूचना रपट टाइप कुछ लिखाया और बताया कि ब्लागर लोग उनका वह बदल देने पर तुले हैं जिसको अंग्रेजी में ‘पर्सोना’ कहते हैं। उन्होंने अपने इस रूपानतरण को बयान करते हुये कहा-
ब्लागिंग के चलते ही लोगों ने उनके साथ राखी सावंत और दूसरी बालाओं को नत्थी कर दिया। उनको ज्ञानजी न अपने डिब्बे से उतार पा रहे हैं न ठीक से बैठा पा रहे हैं। जितना वे इनसे दूर होने का प्रयास करते हैं उतना ही भाई लोग उनको पास ठेल देते हैं। यात्रा जारी है। ये ब्लागिंग के साइड इफ़ेक्ट हैं।
जबसे हमने ब्लागिंग शुरू की तबसे इसके तमाम साइड इफ़ेक्ट देखे हैं। कुछ खुशनुमा तो कुछ और भी ज्यादा खुशनुमा।
सबसे पहला तो यह हुआ कि हमको अब अपना लिखा हुआ सबको पढ़वाने में कोई शरम /हिचक नहीं लगती। कुछ लोग इसे कहते हैं कि अब हममें अपनी अभिव्यक्ति को लेकर आत्मविश्वास बढ़ गया है। वहीं कुछ समझदार साथी यह मत रखते हैं कि ब्लागिंग के चलते हमारी बेशरमी बढ़ गयी है और कहनी-अकहनी सब सामने परोस देते हैं।
घरवाले कुछ दिन इस भुलावे में रहे कि हम किसी उंचे काम से जुड़ गये हैं।लेकिन जल्द ही उनका यह भ्रम टूटा और वे मानने लगे हैं कि मैं अपना समय बरबाद करता हूं। इतना समय अगर हम किसी सार्थक काम में लगाते तो बहौत अच्छा रहता। लेकिन उनको यह भी अच्छी तरह पता है कि हम किसी कायदे के काम के लायक नहीं हैं । विकल्पहीनता के अभाव में ब्लागिंग जारी है। लेकिन इसके चलते हमारी गैरजिम्मेदाराना इमेज में बढ़ोत्तरी हो रही है। हम तो पाण्डेयजी की तरह मुस्कराते हुये यह भी नहीं कह सकते कि हमारा ‘पर्सोना’ बदल रहा है। जैसे ही कहेंगे घर वालों की बात सही साबित हो जायेगी। क्योंकि हमारे यहां बदलने का यही मतलब लिया जायेगा- हम चौपट से चौपटतर होते जा रहे हैं।
कुछ खुशनुमा पलों में वह दिन भी रहा जब कई हफ़्तों के इन्तजार के बाद हिन्दी ब्लाग जगत के सक्रिय-असक्रिय ब्लाग मिलाकर सौ ब्लाग हुये थे। देबाशीष ने पूरी सौ तक की गिनतीगिन डाली थी उस दिन। बाद में पता चला था कि वह ब्लाग निन्नयानबेवां था। लेकिन शतक की खुशियां हम तो मना ही चुके थे।
ब्लागिंग का सबसे बड़ा साइड इफ़ेक्ट यह हुआ कि तमाम लोगों को नये-नये मित्र मिले। उम्र के उस दौर में जब लोग मित्र बनाने के मामले में धीमें हो जाते हैं और सोचते हैं पुराने ही निभते रहें वही बहुत है। यह मित्र संबंध परिवारों तक भी जुड़े। पिछले सप्ताह टंडनजी सपरिवार हमारे यहां आये तो ऐसा लगा ही नहीं कि हम लोग पहली बार मिल रहे हैं। इसके अलावा तमाम बिछुड़े हुये दोस्त और जानपहचान वाले इस माध्यम के चलते फिर से मिले। यह ब्लागिंग के माध्यम से बने संबंध ही हैं जिनके चलते हम आशीष के साथरचना बजाज के परिवार से मिलने के लिये पूना से नासिक गये और जिंदगी में पहली बार मुलाकात करने वाले ब्लाग-वीरों ने मुम्बई में जबरियन हमसे बर्थडे-केक कटवा दिया। जिन्दगी में पहली बार।
हमारे ब्लाग की पोस्ट पढ़कर कई लोगों ने अपने पहचान वालों के पते खोजे। दिलीप गोलानी के बारे में पता करने को उनके मित्र मेरे आर.पी.सिंह सदाना मेरे ब्लाग पर आये और उससे मुझे दिलीप गोलानी का जो हमारे साइकिल यात्रा के साथी थे के बारे में दुबारा पता चला।
अभी हाल ही में द्विवेदी जी अपने पुराने जानपहचान वाले गुरू ओर साथी श्री अशोक शुक्ल से बजरिये मेरी एक पोस्ट और प्रियंकरजी के सौजन्य से फिर से मुलाकात की। यही नहीं दिनेश राय द्विवेदीजी ने अपना ब्लाग तीसरा खंबा भी शुरू कर दिया।
ब्लागिंग से जुड़ने के बाद लोगों के लिखने-पढ़ने में अभूतपूर्व बदलाव आया। पहले मैं तमाम किताबें पढ़ लेता था। अब ब्लागिंग से जुड़ने के बाद पढ़ना कम हो गया है। लेकिन पिछले कुछ दिनों को छोड़ दिया जाये तो औसत पढ़ना बढ़ गया है। यह औसत पढ़ना ब्लाग का पढ़ना है। इन ब्लाग लेखकों में धुर-धु्रंधर धड़ल्ले से अगड़म-बगड़म लिखने वाले धाकड़ , निर्द्वन्द लोग हैं तो जरा-जरा सी बात पर टीन-टप्पर की तरह गरम-ठंडे हो जाने वाले ब्लाग बहादुर भी। यानि कि हर तरह के लोग हैं यहां। एक ढ़ूढ़ोगे दर्जन भर मुफ़्त में मिल जायेंगे। बड़ा बाजार के डिस्काउंट आफ़र की तरह।
टिप्पणियों के चलते झूठ बोलना अब सहज लगने लगा है। संगत के असर के चलते कई पोस्ट की तारीफ़ बिना पढ़े कर देते हैं। यह जानते हुये भी कि ब्लागर लोग जैसे को तैसा का व्यवहार करते हैं, हमें यह लगता है कि लोग हमारे ब्लाग पर सच्ची तारीफ़ करते हैं। वे हमारी तरह मुंहदेखी नहीं करते।
तमाम कम्प्यूटरी लटके-झटके भी सीखे। इससे आधुनिक होने का अबोध-बोध भी हुआ। अभिव्यक्ति की दुनिया की सबसे नयी लटक-झटक के शुरुआती दौर से हम इसमें धंसे हैं यह अहसास खुशनुमा सा है और गुदगुदा सा भी। हम कह सकते हैं कि हम उस जमाने के ब्लागर हैं जब दिन भी में भी उतनी पोस्ट नहीं आतीं थी जितनी आज दस -पन्द्रह मिनट में आ जाती हैं। या फिर हम कह सकते हैं कि हम हनुमानजी के जमाने के ब्लागर हैं। जानकारी के लिये बता दें कि विन्डो XP के पहले विन्डो 98 में हिंदी लिखने के लिये तख्ती हमारा एकमात्र सहारा थी। जब ब्लागिंग में रमे तो फिर केवल जल्दी लिखने के लिये नया लैपटाप लिया। दफ़्तर से लोन लेकर। इससे ज्यादा समर्पण और साइड इफ़ेक्ट क्या होगा भाई ब्लागिंग का ।
हिंदी ब्लागिंग का सबसे खुशनुमा साइड इफ़ेक्ट हुआ आशीष की शादी तय होने का। वे अपनेखाली-पीली के कुंवारेपन के अनुभव सुनाया करते थे। बात चली और उनकी शादी रवि-रतलामी की भांजी से तय हुयी। इसका विवरण विस्तार से हमने अपनी पोस्ट ब्लागिंग में भी रिश्ते बन जाते हैं में किया है। आशीष की शादी पहली दिसम्बर को होने वाली है। राजनांदगांव से। कौन-कौन पहुंच रहा है ब्लागर विवाह में?
हमारे दफ़्तर में हमारे साथी गोविन्द उपाध्याय लगभग दो सौ कहानियां लिख-छपा कर लिखना बन्द कर चुके थे। भूतपूर्व हो चुके थे। ब्लागिंग के किस्से सुनकर उनमें अभूतपूर्व बदलाव आया। और उन्होंने दुबारा लिखना शुरू किया। बुनो कहानी के पहली कहानी तीन कनपुरियों ने लिखी। जीतेन्द्र चौधरी ने शुरू की, अतुल ने आगे बढ़ाई। समापन का अपना हिस्से का किस्सा हमने गोविन्दजी को थमा दिया। उन्होंने बहुत दिन के बाद कोईकहानी लिखी। इसका एक वाक्य -उसका पूरा शरीर कान हो गया को पढ़कर पंकज नरूला कहिन- ये बात कनपुरिये ही लिख सकते हैं।
इसके बाद गोविन्दजी का लिखना दुबारा शुरू हुआ। अपने बचपन के कुछ संस्मरण भी लिखे। आजकल हर महीने दो-तीन कहानी निकाल देते हैं। पांच-छ्ह छप भी चुकी हैं। एक कथाकार दुबारा लिखना शुरू कर दे, यह अपने आप में एक खुशनुमा अहसास है। है कि नहीं।
इसी क्रम में बताता चलूं कि हमारी ब्लागिंग का साइड इफ़ेक्ट कल वेबदुनिया में भी दिखा। मनीषा पाण्डेय जो खुद अब नियमित ब्लागर हो रही हैं ने मेरा परिचय देते हुये लिखा-इतना सब पढ़ने के बाद भी आप फुरसतिया के लिए फुरसत नहीं निकालें, ये तो हो ही नहीं सकता। ये भी एक खुशनुमा साइड इफ़ेक्ट है।
और यह अभी-अभी पता चला कि अभय तिवारी मनीषा के जीजू के रूप में एस.एन.डी.टी. हॉस्टल की लड़कियों के बीच पी.एच.डी. के विषय बने रहे। यह भी अपने आपमें मजेदार साइड इफ़ेक्ट है।
पिछले कुछ दिन मैंने पाडकास्टिंग के जरिये कुछ बेहतरीन कवितायें आपको सुनवाईं। अब उनके धुर-उलट अपनी एक कविता आपको जबरिया सुनवाने की हिमाकत कर रहा हूं। यह कविता हमने मैंने आज से 20 साल पहले लिखी थी। उस समय मैं उ.प्र.राज्य विद्युत परिषद अनपरा में तैनात था। होने वाले पत्नी से एक दिन पहले मुलाकात हुयी थी। जाड़े के दिन थे। एक गुलाब के फ़ूल पर ओस की बूंद हवा के झोंके के साथ हिल रही थी, चमक रही थी। उसी को देखते हुये यह कविता लिखी थी। इसके बाद इसे सन 1988 में रिकार्ड किया था। कुछ दिन पहले वह कैसेट मिल गया। सोचा आपको भी झेला दी जाये।
यह भी ब्लागिंग का एक साइड इफ़ेक्ट है।
कोहरे के चादर में लिपटी,
किसी गुलाब की पंखुङी पर
अलसाई सी,ठिठकी
ओस की बूंद हो.
नन्हा सूरज ,
तुम्हे बार-बार छूता ,खिलखिलाता है.
मैं,
सहमा सा दूर खड़ा
हवा के हर झोंके के साथ
तुम्हे गुलाब की छाती पर
कांपते देखता हूं।
अपनी हर धड़कन पर
मुझे सिहरन सी होती है
कि कहीं इससे चौंककर
तुम ,
फूल से नीचे न ढुलक जाओ।
-अनूप शुक्ल
समझ में नहीं आ रहा कि अपने में सिमटा एक धुर-इण्ट्रोवर्ट व्यक्ति कैसे इतने लोगों का स्नेह पा सकता है? शीशे में देखने पर कोई खास बात नजर नहीं आती।‘धुर इन्ट्रोवर्ट’ व्यक्ति तमाम लोगों का स्नेह पाते पकड़ा जाये तो मामला वही बनता है जो आय् से अधिक सम्पत्ति पाये जाने पर बनता है। कहीं न कहीं से साबित हो जायेगा कि आप तो स्नेह के सुपात्र हैं हीं। ‘धुर इन्ट्रोवर्ट’ तो इसलिये बने काहे से धुरविरोधी नहीं हैं किसी के। जिससे लपड़ियाते नहीं उससे भी बतियाते रहते हैं।
ब्लागिंग के चलते ही लोगों ने उनके साथ राखी सावंत और दूसरी बालाओं को नत्थी कर दिया। उनको ज्ञानजी न अपने डिब्बे से उतार पा रहे हैं न ठीक से बैठा पा रहे हैं। जितना वे इनसे दूर होने का प्रयास करते हैं उतना ही भाई लोग उनको पास ठेल देते हैं। यात्रा जारी है। ये ब्लागिंग के साइड इफ़ेक्ट हैं।
जबसे हमने ब्लागिंग शुरू की तबसे इसके तमाम साइड इफ़ेक्ट देखे हैं। कुछ खुशनुमा तो कुछ और भी ज्यादा खुशनुमा।
सबसे पहला तो यह हुआ कि हमको अब अपना लिखा हुआ सबको पढ़वाने में कोई शरम /हिचक नहीं लगती। कुछ लोग इसे कहते हैं कि अब हममें अपनी अभिव्यक्ति को लेकर आत्मविश्वास बढ़ गया है। वहीं कुछ समझदार साथी यह मत रखते हैं कि ब्लागिंग के चलते हमारी बेशरमी बढ़ गयी है और कहनी-अकहनी सब सामने परोस देते हैं।
घरवाले कुछ दिन इस भुलावे में रहे कि हम किसी उंचे काम से जुड़ गये हैं।लेकिन जल्द ही उनका यह भ्रम टूटा और वे मानने लगे हैं कि मैं अपना समय बरबाद करता हूं। इतना समय अगर हम किसी सार्थक काम में लगाते तो बहौत अच्छा रहता। लेकिन उनको यह भी अच्छी तरह पता है कि हम किसी कायदे के काम के लायक नहीं हैं । विकल्पहीनता के अभाव में ब्लागिंग जारी है। लेकिन इसके चलते हमारी गैरजिम्मेदाराना इमेज में बढ़ोत्तरी हो रही है। हम तो पाण्डेयजी की तरह मुस्कराते हुये यह भी नहीं कह सकते कि हमारा ‘पर्सोना’ बदल रहा है। जैसे ही कहेंगे घर वालों की बात सही साबित हो जायेगी। क्योंकि हमारे यहां बदलने का यही मतलब लिया जायेगा- हम चौपट से चौपटतर होते जा रहे हैं।
कुछ खुशनुमा पलों में वह दिन भी रहा जब कई हफ़्तों के इन्तजार के बाद हिन्दी ब्लाग जगत के सक्रिय-असक्रिय ब्लाग मिलाकर सौ ब्लाग हुये थे। देबाशीष ने पूरी सौ तक की गिनतीगिन डाली थी उस दिन। बाद में पता चला था कि वह ब्लाग निन्नयानबेवां था। लेकिन शतक की खुशियां हम तो मना ही चुके थे।
ब्लागिंग का सबसे बड़ा साइड इफ़ेक्ट यह हुआ कि तमाम लोगों को नये-नये मित्र मिले। उम्र के उस दौर में जब लोग मित्र बनाने के मामले में धीमें हो जाते हैं और सोचते हैं पुराने ही निभते रहें वही बहुत है। यह मित्र संबंध परिवारों तक भी जुड़े। पिछले सप्ताह टंडनजी सपरिवार हमारे यहां आये तो ऐसा लगा ही नहीं कि हम लोग पहली बार मिल रहे हैं। इसके अलावा तमाम बिछुड़े हुये दोस्त और जानपहचान वाले इस माध्यम के चलते फिर से मिले। यह ब्लागिंग के माध्यम से बने संबंध ही हैं जिनके चलते हम आशीष के साथरचना बजाज के परिवार से मिलने के लिये पूना से नासिक गये और जिंदगी में पहली बार मुलाकात करने वाले ब्लाग-वीरों ने मुम्बई में जबरियन हमसे बर्थडे-केक कटवा दिया। जिन्दगी में पहली बार।
हमारे ब्लाग की पोस्ट पढ़कर कई लोगों ने अपने पहचान वालों के पते खोजे। दिलीप गोलानी के बारे में पता करने को उनके मित्र मेरे आर.पी.सिंह सदाना मेरे ब्लाग पर आये और उससे मुझे दिलीप गोलानी का जो हमारे साइकिल यात्रा के साथी थे के बारे में दुबारा पता चला।
अभी हाल ही में द्विवेदी जी अपने पुराने जानपहचान वाले गुरू ओर साथी श्री अशोक शुक्ल से बजरिये मेरी एक पोस्ट और प्रियंकरजी के सौजन्य से फिर से मुलाकात की। यही नहीं दिनेश राय द्विवेदीजी ने अपना ब्लाग तीसरा खंबा भी शुरू कर दिया।
ब्लागिंग से जुड़ने के बाद लोगों के लिखने-पढ़ने में अभूतपूर्व बदलाव आया। पहले मैं तमाम किताबें पढ़ लेता था। अब ब्लागिंग से जुड़ने के बाद पढ़ना कम हो गया है। लेकिन पिछले कुछ दिनों को छोड़ दिया जाये तो औसत पढ़ना बढ़ गया है। यह औसत पढ़ना ब्लाग का पढ़ना है। इन ब्लाग लेखकों में धुर-धु्रंधर धड़ल्ले से अगड़म-बगड़म लिखने वाले धाकड़ , निर्द्वन्द लोग हैं तो जरा-जरा सी बात पर टीन-टप्पर की तरह गरम-ठंडे हो जाने वाले ब्लाग बहादुर भी। यानि कि हर तरह के लोग हैं यहां। एक ढ़ूढ़ोगे दर्जन भर मुफ़्त में मिल जायेंगे। बड़ा बाजार के डिस्काउंट आफ़र की तरह।
टिप्पणियों के चलते झूठ बोलना अब सहज लगने लगा है। संगत के असर के चलते कई पोस्ट की तारीफ़ बिना पढ़े कर देते हैं। यह जानते हुये भी कि ब्लागर लोग जैसे को तैसा का व्यवहार करते हैं, हमें यह लगता है कि लोग हमारे ब्लाग पर सच्ची तारीफ़ करते हैं। वे हमारी तरह मुंहदेखी नहीं करते।
तमाम कम्प्यूटरी लटके-झटके भी सीखे। इससे आधुनिक होने का अबोध-बोध भी हुआ। अभिव्यक्ति की दुनिया की सबसे नयी लटक-झटक के शुरुआती दौर से हम इसमें धंसे हैं यह अहसास खुशनुमा सा है और गुदगुदा सा भी। हम कह सकते हैं कि हम उस जमाने के ब्लागर हैं जब दिन भी में भी उतनी पोस्ट नहीं आतीं थी जितनी आज दस -पन्द्रह मिनट में आ जाती हैं। या फिर हम कह सकते हैं कि हम हनुमानजी के जमाने के ब्लागर हैं। जानकारी के लिये बता दें कि विन्डो XP के पहले विन्डो 98 में हिंदी लिखने के लिये तख्ती हमारा एकमात्र सहारा थी। जब ब्लागिंग में रमे तो फिर केवल जल्दी लिखने के लिये नया लैपटाप लिया। दफ़्तर से लोन लेकर। इससे ज्यादा समर्पण और साइड इफ़ेक्ट क्या होगा भाई ब्लागिंग का ।
हिंदी ब्लागिंग का सबसे खुशनुमा साइड इफ़ेक्ट हुआ आशीष की शादी तय होने का। वे अपनेखाली-पीली के कुंवारेपन के अनुभव सुनाया करते थे। बात चली और उनकी शादी रवि-रतलामी की भांजी से तय हुयी। इसका विवरण विस्तार से हमने अपनी पोस्ट ब्लागिंग में भी रिश्ते बन जाते हैं में किया है। आशीष की शादी पहली दिसम्बर को होने वाली है। राजनांदगांव से। कौन-कौन पहुंच रहा है ब्लागर विवाह में?
हमारे दफ़्तर में हमारे साथी गोविन्द उपाध्याय लगभग दो सौ कहानियां लिख-छपा कर लिखना बन्द कर चुके थे। भूतपूर्व हो चुके थे। ब्लागिंग के किस्से सुनकर उनमें अभूतपूर्व बदलाव आया। और उन्होंने दुबारा लिखना शुरू किया। बुनो कहानी के पहली कहानी तीन कनपुरियों ने लिखी। जीतेन्द्र चौधरी ने शुरू की, अतुल ने आगे बढ़ाई। समापन का अपना हिस्से का किस्सा हमने गोविन्दजी को थमा दिया। उन्होंने बहुत दिन के बाद कोईकहानी लिखी। इसका एक वाक्य -उसका पूरा शरीर कान हो गया को पढ़कर पंकज नरूला कहिन- ये बात कनपुरिये ही लिख सकते हैं।
इसके बाद गोविन्दजी का लिखना दुबारा शुरू हुआ। अपने बचपन के कुछ संस्मरण भी लिखे। आजकल हर महीने दो-तीन कहानी निकाल देते हैं। पांच-छ्ह छप भी चुकी हैं। एक कथाकार दुबारा लिखना शुरू कर दे, यह अपने आप में एक खुशनुमा अहसास है। है कि नहीं।
इसी क्रम में बताता चलूं कि हमारी ब्लागिंग का साइड इफ़ेक्ट कल वेबदुनिया में भी दिखा। मनीषा पाण्डेय जो खुद अब नियमित ब्लागर हो रही हैं ने मेरा परिचय देते हुये लिखा-इतना सब पढ़ने के बाद भी आप फुरसतिया के लिए फुरसत नहीं निकालें, ये तो हो ही नहीं सकता। ये भी एक खुशनुमा साइड इफ़ेक्ट है।
और यह अभी-अभी पता चला कि अभय तिवारी मनीषा के जीजू के रूप में एस.एन.डी.टी. हॉस्टल की लड़कियों के बीच पी.एच.डी. के विषय बने रहे। यह भी अपने आपमें मजेदार साइड इफ़ेक्ट है।
पिछले कुछ दिन मैंने पाडकास्टिंग के जरिये कुछ बेहतरीन कवितायें आपको सुनवाईं। अब उनके धुर-उलट अपनी एक कविता आपको जबरिया सुनवाने की हिमाकत कर रहा हूं। यह कविता हमने मैंने आज से 20 साल पहले लिखी थी। उस समय मैं उ.प्र.राज्य विद्युत परिषद अनपरा में तैनात था। होने वाले पत्नी से एक दिन पहले मुलाकात हुयी थी। जाड़े के दिन थे। एक गुलाब के फ़ूल पर ओस की बूंद हवा के झोंके के साथ हिल रही थी, चमक रही थी। उसी को देखते हुये यह कविता लिखी थी। इसके बाद इसे सन 1988 में रिकार्ड किया था। कुछ दिन पहले वह कैसेट मिल गया। सोचा आपको भी झेला दी जाये।
यह भी ब्लागिंग का एक साइड इफ़ेक्ट है।
तुम
तुम,कोहरे के चादर में लिपटी,
किसी गुलाब की पंखुङी पर
अलसाई सी,ठिठकी
ओस की बूंद हो.
नन्हा सूरज ,
तुम्हे बार-बार छूता ,खिलखिलाता है.
मैं,
सहमा सा दूर खड़ा
हवा के हर झोंके के साथ
तुम्हे गुलाब की छाती पर
कांपते देखता हूं।
अपनी हर धड़कन पर
मुझे सिहरन सी होती है
कि कहीं इससे चौंककर
तुम ,
फूल से नीचे न ढुलक जाओ।
-अनूप शुक्ल
Posted in पाडकास्टिंग, बस यूं ही | 19 Responses
मगर हमारे घर की “घर-पत्नियाँ” हमारे बारे में क्या सोचती है, कभी सोचा है?
देखिये तस्वीर, भाई साहब के साथ खड़ी हमारी भाभीजी का सर एक ब्लॉगरनी कहलवाने से शर्म से झुका जा रहा है
हाय! वो भी क्या दिन थे जब हम टीन टप्पर की तरह गरम ठंडे हुआ करते थे, टंकी पर चढ़ते थे। अब ऐसा माहौल ही नहीं रहा।
कहीं यह भी एक साईड इफेक्ट तो नहीं कि एक टिन टप्पर का दिमाग अब पहले जितना गर्म नहीं होता!
ब्लॉगिंग ही नही हम जिस भी किसी काम में ऐसे ही जुड़ेंगे तो साईड इफ़ेक्ट होने स्वाभाविक ही है!!
कविता वाकई अच्छी है!!
ऊपर लिखी बातों को सीरियसली ना लें, जैसा कि हम पहले ही कह चुका हूं, मैं भी खुद को सीरियसली नहीं ना लेता।
प्रवीण त्रिवेदी ╬ PRAVEEN TRIVEDI की हालिया प्रविष्टी..आज बस यही प्रार्थना है !
प्रवीण त्रिवेदी ╬ PRAVEEN TRIVEDI की हालिया प्रविष्टी..आज बस यही प्रार्थना है !