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कुछ दिन से हम सोच रहे थे कि हम भी कुछ पाडकास्टियायें। मामला बैठ नहीं रहा था। हालांकि रवि रतलामी जी ने बातचीत करते हुये कुछ टिप्स बताये लेकिन हमारी टिप्पस ठीक से भिड़ी नहीं। फिर हमने स्वामीजी से अनुरोध किया तो उन्होंने हमारे लिये पाडकास्टिंग का जुगाड़ किया।
पाडकास्टिंग में हम अपनी आवाज सुना के आपको बोर न करेंगे। इसके किये हमारे लेख पर्याप्त कारगर हैं। हम अपने पास कुछ कवि सम्मेलन के कैसेट उपलब्ध हैं। मेरा मन है कि आपको उनमें से कुछ ऐसे गीत सुनवाऊं जो मुझे अच्छे लगते हैं।
इस कड़ी में सबसे पहले मैं कानपुर के मशहूर पत्रकार, गीतकार प्रमोद तिवारी का गीत सुनाता हूं। प्रमोद तिवारी के बारे में शायर शाह मंजूर आलम ने लिखा है:-
ये रिश्ते भी मंजिल तक जाते हैं
आओ तुमको एक गीत सुनाते हैं
अपने संग थोड़ी सैर कराते हैं।
मेरे घर के आगे एक खिड़की थी,
खिड़की से झांका करती लड़की थी,
इक रोज मैंने यूँ हीं टाफी खाई,
फिर जीभ निकाली उसको दिखलाई,
गुस्से में वो झज्जे पर आन खड़ी,
आँखों ही आँखों मुझसे बहुत लड़ी,
उसने भी फिर टाफी मंगवाई थी,
आधी जूठी करके भिजवाई थी।
वो जूठी अब भी मुँह में है,
हो गई सुगर हम फिर भी खाते हैं।
राहों में भी रिश्ते बन जाते हैं
ये रिश्ते भी मंजिल तक जाते हैं।
दिल्ली की बस थी मेरे बाजू में,
इक गोरी-गोरी बिल्ली बैठी थी,
बिल्ली के उजले रेशम बालों से,
मेरे दिल की चुहिया कुछ ऐंठी थी,
चुहिया ने उस बिल्ली को काट लिया,
बस फिर क्या था बिल्ली का ठाट हुआ,
वो बिल्ली अब भी मेरे बाजू है,
उसके बाजू में मेरा राजू है।
अब बिल्ली,चुहिया,राजू सब मिलकर
मुझको ही मेरा गीत सुनाते हैं।
राहों में भी रिश्ते बन जाते हैं
ये रिश्ते भी मंजिल तक जाते हैं।
एक दोस्त मेरा सीमा पर रहता था,
चिट्ठी में जाने क्या-क्या कहता था,
उर्दू आती थी नहीं मुझे लेकिन,
उसको जवाब उर्दू में देता था,
एक रोज़ मौलवी नहीं रहे भाई,
अगले दिन ही उसकी चिट्ठी आई,
ख़त का जवाब अब किससे लिखवाता,
वह तो सीमा पर रो-रो मर जाता।
हम उर्दू सीख रहे हैं नेट-युग में,
अब खुद जवाब लिखते हैं गाते हैं।
राहों में भी रिश्ते बन जाते हैं
ये रिश्ते भी मंजिल तक जाते हैं।
इक बूढ़ा रोज गली में आता था,
जाने किस भाषा में वह गाता था,
लेकिन उसका स्वर मेरे कानों में,
अब उठो लाल कहकर खो जाता था,
मैं,निपट अकेला खाता सोता था,
नौ बजे क्लास का टाइम होता था,
एक रोज ‘मिस’नहीं मेरी क्लास हुई,
मैं ‘टाप’ कर गया पूरी आस हुई।
वो बूढ़ा जाने किस नगरी में हो,
उसके स्वर अब भी हमें जगाते हैं ।
राहों में भी रिश्ते बन जाते हैं
ये रिश्ते भी मंजिल तक जाते हैं।
इन राहों वाले मीठे रिश्तों से,
हम युगों-युगों से बँधे नहीं होते,
दो जन्मों वाले रिश्तों के पर्वत,
अपने कन्धों पर सधे नहीं होते,
बाबा की धुन ने समय बताया है,
उर्दू के खत ने साथ निभाया है,
बिल्ली ने चुहिया को दुलराया है,
जूठी टाफी ने प्यार सिखाया है।
हम ऐसे रिश्तों की फेरी लेकर,
गलियों-गलियों आवाज लगाते हैं,
राहों में भी रिश्ते बन जाते हैं
ये रिश्ते भी मंजिल तक जाते हैं।
राहों में भी रिश्ते बन जाते हैं,
ये रिश्ते भी मंजिल तक जाते हैं,
आओ तुमको एक गीत सुनाते हैं,
अपने संग थोड़ी सैर कराते हैं।
पमोद तिवारी , कानपुर
आओ तुमको एक गीत सुनाते हैं
By फ़ुरसतिया on November 6, 2007
कुछ दिन से हम सोच रहे थे कि हम भी कुछ पाडकास्टियायें। मामला बैठ नहीं रहा था। हालांकि रवि रतलामी जी ने बातचीत करते हुये कुछ टिप्स बताये लेकिन हमारी टिप्पस ठीक से भिड़ी नहीं। फिर हमने स्वामीजी से अनुरोध किया तो उन्होंने हमारे लिये पाडकास्टिंग का जुगाड़ किया।
पाडकास्टिंग में हम अपनी आवाज सुना के आपको बोर न करेंगे। इसके किये हमारे लेख पर्याप्त कारगर हैं। हम अपने पास कुछ कवि सम्मेलन के कैसेट उपलब्ध हैं। मेरा मन है कि आपको उनमें से कुछ ऐसे गीत सुनवाऊं जो मुझे अच्छे लगते हैं।
इस कड़ी में सबसे पहले मैं कानपुर के मशहूर पत्रकार, गीतकार प्रमोद तिवारी का गीत सुनाता हूं। प्रमोद तिवारी के बारे में शायर शाह मंजूर आलम ने लिखा है:-
हमारे प्रमोद तिवारी दीवाने पैदा हुये हैं, दीवाने होकर जवान हुये और जब भी इस दुनिया से उस दुनिया का सफर करेंगे तो दीवानगी के साथ ही झूमते हुये छलांग लगायेंगे।ऐसे कानपुर के दुलरुआ गीतकार प्रमोद तिवारी खुद अपने बारे में बयान करते हुये कहते हैं-
सच है गाते गाते हम भी थोड़ा सा मशहूर हुए,प्रमोद तिवारी के बारे में मैंने विस्तार से पहले भी लिखा है। बहरहाल आप कविता सुनें और साथ में पढ़ते भी जायें। कैसी लगी यह कविता बतायें।
लेकिन इसके पहले पल-पल,तिल-तिल चकनाचूर हुए।
चाहे दर्द जमाने का हो चाहे हो अपने दिल का,
हमने तब-तब कलम उठाई जब-जब हम मजबूर हुए।
आओ तुमको एक गीत सुनाते हैं
राहों में भी रिश्ते बन जाते हैंये रिश्ते भी मंजिल तक जाते हैं
आओ तुमको एक गीत सुनाते हैं
अपने संग थोड़ी सैर कराते हैं।
मेरे घर के आगे एक खिड़की थी,
खिड़की से झांका करती लड़की थी,
इक रोज मैंने यूँ हीं टाफी खाई,
फिर जीभ निकाली उसको दिखलाई,
गुस्से में वो झज्जे पर आन खड़ी,
आँखों ही आँखों मुझसे बहुत लड़ी,
उसने भी फिर टाफी मंगवाई थी,
आधी जूठी करके भिजवाई थी।
वो जूठी अब भी मुँह में है,
हो गई सुगर हम फिर भी खाते हैं।
राहों में भी रिश्ते बन जाते हैं
ये रिश्ते भी मंजिल तक जाते हैं।
दिल्ली की बस थी मेरे बाजू में,
इक गोरी-गोरी बिल्ली बैठी थी,
बिल्ली के उजले रेशम बालों से,
मेरे दिल की चुहिया कुछ ऐंठी थी,
चुहिया ने उस बिल्ली को काट लिया,
बस फिर क्या था बिल्ली का ठाट हुआ,
वो बिल्ली अब भी मेरे बाजू है,
उसके बाजू में मेरा राजू है।
अब बिल्ली,चुहिया,राजू सब मिलकर
मुझको ही मेरा गीत सुनाते हैं।
राहों में भी रिश्ते बन जाते हैं
ये रिश्ते भी मंजिल तक जाते हैं।
एक दोस्त मेरा सीमा पर रहता था,
चिट्ठी में जाने क्या-क्या कहता था,
उर्दू आती थी नहीं मुझे लेकिन,
उसको जवाब उर्दू में देता था,
एक रोज़ मौलवी नहीं रहे भाई,
अगले दिन ही उसकी चिट्ठी आई,
ख़त का जवाब अब किससे लिखवाता,
वह तो सीमा पर रो-रो मर जाता।
हम उर्दू सीख रहे हैं नेट-युग में,
अब खुद जवाब लिखते हैं गाते हैं।
राहों में भी रिश्ते बन जाते हैं
ये रिश्ते भी मंजिल तक जाते हैं।
इक बूढ़ा रोज गली में आता था,
जाने किस भाषा में वह गाता था,
लेकिन उसका स्वर मेरे कानों में,
अब उठो लाल कहकर खो जाता था,
मैं,निपट अकेला खाता सोता था,
नौ बजे क्लास का टाइम होता था,
एक रोज ‘मिस’नहीं मेरी क्लास हुई,
मैं ‘टाप’ कर गया पूरी आस हुई।
वो बूढ़ा जाने किस नगरी में हो,
उसके स्वर अब भी हमें जगाते हैं ।
राहों में भी रिश्ते बन जाते हैं
ये रिश्ते भी मंजिल तक जाते हैं।
इन राहों वाले मीठे रिश्तों से,
हम युगों-युगों से बँधे नहीं होते,
दो जन्मों वाले रिश्तों के पर्वत,
अपने कन्धों पर सधे नहीं होते,
बाबा की धुन ने समय बताया है,
उर्दू के खत ने साथ निभाया है,
बिल्ली ने चुहिया को दुलराया है,
जूठी टाफी ने प्यार सिखाया है।
हम ऐसे रिश्तों की फेरी लेकर,
गलियों-गलियों आवाज लगाते हैं,
राहों में भी रिश्ते बन जाते हैं
ये रिश्ते भी मंजिल तक जाते हैं।
राहों में भी रिश्ते बन जाते हैं,
ये रिश्ते भी मंजिल तक जाते हैं,
आओ तुमको एक गीत सुनाते हैं,
अपने संग थोड़ी सैर कराते हैं।
पमोद तिवारी , कानपुर
Posted in कविता, पाडकास्टिंग, मेरी पसंद | 21 Responses
हर किसी की जिंदगी में जूठी टॉफी, बाबा, बिल्ली और सरहद के दोस्त होते होंगे पर उन्हें इतनी सादगी और खूबसूरती से हर कोई अभिव्यक्त नहीं कर सकता।
बहुत खूब:)
regds
rachna
प्रमोद तिवारी जी को इस बेहतरीन गीत को रचने और गाने के लिये बहुत बहुत हार्दिक बधाई.
और लाईये.
दिनेशराय द्विवेदी, कोटा
इक बूढ़ा रोज गली में आता था,
जाने किस भाषा में वह गाता था,
लेकिन उसका स्वर मेरे कानों में,
अब उठो लाल कहकर खो जाता था,
मैं,निपट अकेला खाता सोता था,
नौ बजे क्लास का टाइम होता था,
………
वो बूढ़ा जाने किस नगरी में हो,
उसके स्वर अब भी हमें जगाते हैं ।
राहों में भी रिश्ते बन जाते हैं
ये रिश्ते भी मंजिल तक जाते हैं।
इसलिए इंटर नेट शानदार चीज है …वो कई ऐसी रचनाये सामने लाकर रख देता था ..जिन्हें पढने के लिए खोजना पड़ता है ….
अनूप जी जिस तरह से आपकी गीतों में रूचि है …..आपने नईम जी को पढ़ा है ?अगर नहीं तो पढ़ डालिए …
archanachaoji की हालिया प्रविष्टी..शिरोमणि – एक कहानी