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फिर उदासी तुम्हें घेर बैठी न हो
By फ़ुरसतिया on November 13, 2007
कानपुर के गीतकारों में अंसार कंबरी
ऐसे गीतकार हैं जिनकी आवाज वर्षों से जस की तस मधुर बनी हुई है। वे कहीं
भी कविता पढ़ें उनके चाहने वाले श्रोता उनसे उनके बेहद प्रसिद्ध गीत तुम कुछ कहो तो सही
को सुनने के लिये फ़रमाइश अवश्य करते हैं। यह गीत मुझे भी पसंद है परन्तु
इसमें मुझे यह लगता है कि गीत के सामन्ती और नारी विरोधी मूल्यों का प्रचार
करता है। इस प्रेम गीत में कवि जब कहता है-
तो ऐसा लगता है कि कवि नायिका को आग में कूदने के लिये उकसा रहा है।
अंसार कंबरी और उनकी रचनाओं के बारे में कभी विस्तार से लिखूंगा। उन्होंने गीत भी लिखे हैं, गजलें भी। तरन्नुम में जब वे पढ़ते हैं तो सुनते रहने का ही मन करता है।
उनका एक शेर है-
इस रविवार को हमारे परिवार के घनिष्ठ और हम लोगों से आत्मीयता रखने वाले शतदलजी के यहां जाना हुआ। मुझे पता था कि उनके पास रमानाथ अवस्थी और नीरजजी की कई कविताओं गीतों का संकलन है। मैं खासतौर पर रमानाथजी की कवितायें तलासने गया था। उन्होंने अपना कम्यूटर हमारे हवाले कर दिया और कहा कि जो मन आये ले जाओ। मैंने वे सब कवितायें कापी कर लीं और ले आया। उनमें रमानाथ अवस्थी, नीरज, माहेश्वर तिवारी, प्रमोद तिवारी, उपेन्द्रजी, अंसार कंबरी, वीरेन्द्र मिश्र की कवितायें संकलित हैं। शतदल जी ने हर कविता के बारे में बताया भी कि ये कौन पढ़ रहा है, ये कौन है। एक जगह हमने पूछा तो वे बोले- ये माबदौलत पढ़ रहे हैं। पूरे नशे में।
बहरहाल माबदौलत शतदलजी की कवितायें तो आपको फिर सुनवायेंगे। उन्होंने कुछ बहुत बेहतरीन गीत, कवितायें लिखी हैं। कानपुर के लोगों पर संस्मरणात्मक लेख भी ।
फिलहाल आपको अंसार कम्बरी की वो कविता सुनवाते हैं जो मुझे उनकी सबसे अच्छी कविता लगती है। अंसार कंबरी का परिचय और फोटो आगे जल्दी ही पेश करूंगा।
एक भी लांक्षन सिद्ध होगा नहीं,
अग्नि में जानकी सी दहो तो सही।
तो ऐसा लगता है कि कवि नायिका को आग में कूदने के लिये उकसा रहा है।
अंसार कंबरी और उनकी रचनाओं के बारे में कभी विस्तार से लिखूंगा। उन्होंने गीत भी लिखे हैं, गजलें भी। तरन्नुम में जब वे पढ़ते हैं तो सुनते रहने का ही मन करता है।
उनका एक शेर है-
आप मौत के डर से नाहक परेशान हैं,ऐसे ही एक और शेर है-
आप जिंदा कहां हैं जो मर जायेंगे।
अब तो बाजार में आ गये ‘कंबरी’पिछले साल जब मेरी उनसे मुलाकात हुयी थी तो मैंने उनसे एक कविता का जिक्र किया जो मुझे बहुत पसंद है और जिसे मैंने 1984-85 में सुना था। उसके बाद दुबारा सुनना नहीं हुआ था लेकिन कविता पूरी याद थी। उसके बोल हैं-
अपनी कीमत को और हम क्या करें?
फिर उदासी तुम्हें घेर बैठी न हो,जब मैंने अंसारजी इस कविता का जिक्र किया तो पता चला कि यह कविता उन्हीं की है। मैंने उनसे शिकायत भी दर्ज करायी कि आप नकारात्मक मूल्यों समर्थन करने वालीकविता पढ़ने की बजाय इसको क्यों नहीं पढ़ते। उन्होंने वायदा किया था कि वे इसे सुनायेंगे। लेकिन उसके बाद ऐसा सुयोग न बन सका कि उनसे कविता सुन सकें।
शाम से ही रहा मैं बहुत अनमना।
इस रविवार को हमारे परिवार के घनिष्ठ और हम लोगों से आत्मीयता रखने वाले शतदलजी के यहां जाना हुआ। मुझे पता था कि उनके पास रमानाथ अवस्थी और नीरजजी की कई कविताओं गीतों का संकलन है। मैं खासतौर पर रमानाथजी की कवितायें तलासने गया था। उन्होंने अपना कम्यूटर हमारे हवाले कर दिया और कहा कि जो मन आये ले जाओ। मैंने वे सब कवितायें कापी कर लीं और ले आया। उनमें रमानाथ अवस्थी, नीरज, माहेश्वर तिवारी, प्रमोद तिवारी, उपेन्द्रजी, अंसार कंबरी, वीरेन्द्र मिश्र की कवितायें संकलित हैं। शतदल जी ने हर कविता के बारे में बताया भी कि ये कौन पढ़ रहा है, ये कौन है। एक जगह हमने पूछा तो वे बोले- ये माबदौलत पढ़ रहे हैं। पूरे नशे में।
बहरहाल माबदौलत शतदलजी की कवितायें तो आपको फिर सुनवायेंगे। उन्होंने कुछ बहुत बेहतरीन गीत, कवितायें लिखी हैं। कानपुर के लोगों पर संस्मरणात्मक लेख भी ।
फिलहाल आपको अंसार कम्बरी की वो कविता सुनवाते हैं जो मुझे उनकी सबसे अच्छी कविता लगती है। अंसार कंबरी का परिचय और फोटो आगे जल्दी ही पेश करूंगा।
फिर उदासी तुम्हें घेर बैठी न हो
फ़िर उदासी तुम्हें घेर बैठी न हो,-अंसार कंबरी
शाम से ही रहा मैं बहुत अनमना।
पूछना हूं स्वयं से कि मैं कौन हूं
किसलिये था मुखर किसलिये मौन हूं
प्रश्न का कोई उत्तर तो आया नहीं,
नीड़ एक आ गया सामने अधबना।
फ़िर उदासी तुम्हें घेर बैठी न हो,
शाम से ही रहा मैं बहुत अनमना।
चित्र उभरे कई किंतु गुम हो गये,
मैं जहां था वहां तुम ही तुम हो गये,
लौट आने की कोशिश बहुत की मगर,
याद से हो गया आमना-सामना।
फ़िर उदासी तुम्हें घेर बैठी न हो,
शाम से ही रहा मैं बहुत अनमना।
पंक्तियां कुछ लिखी पत्र के रूप में,
क्या पता क्या कहा, उसके प्रारूप में,
चाहता तो ये था सिर्फ़ इतना लिखूं
मैं तुम्हें बांच लूं, तुम मुझे बांचना।
फिर उदासी तुम्हें घेर बैठी न हो,
शाम से ही रहा मैं बहुत अनमना।
Posted in कविता, पाडकास्टिंग, मेरी पसंद | 12 Responses
एक भी लांक्षन सिद्ध होगा नहीं,
अग्नि में जानकी सी दहो तो सही।
स स्नेह,
– लावण्या