कौन मुस्काया
शरद के चांद-सा
सिंधु जैसा मन हमारा हो गया।
एक ही छवि
तैरती है झील में
रूप के मेले न कुछ कर पाएंगे
एक ही लय
गूँजनी संसार में
दूसरे सुर-ताल किसको भाएंगे।
कौन लहराया
महकती याद-सा
फूल जैसा तन हमारा हो गया।
खिल गया आकाश
खुशबू ने कहा
दूर अब अवसाद का घेरा हुआ
जो भी भी पास तक आती न थी
उस समर्पित शाम ने
जी भरकर छुआ।
कौन गहराया
सलोनी रात-सा
रागमय जीवन हमारा हो गया।
पूर्व से आती
हवा फिर छू गई
फिर कमल मुख हो गयी सम्वेदना
जल तरंगों में नहाकर चांदनी
हो गयी है
इन्द्रधनु-सी चेतना
कौन शरमाया
सुनहरे गात-सा
धूप जैसा क्षण हमारा हो गया।
- गीतकार विनोद श्रीवास्तव, कानपुर
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