इस मां के संकट के उन दिनों को बिस्मिल की बहन श्रीमती शास्त्री देवी के शब्दों में देखिए-"पिताजी की हालत दुख से खराब हुई। तब विद्यार्थी जी पन्द्रह रुपये मासिक खर्च देने लगे। उससे कुछ गुजर चलती रही। फिर विद्यार्थी जी भी शहीद हो गए। मुझे भी बहन से ज्यादा समझते थे। समय-समय पर खर्चा भेजते थे। माता-पिता, दादा, भाई, दो गाय थीं। रहने के लिए हरगोविंद ने एक टूटा-फूटा मकान बता दिया था, उसमें गुजर करने लगे। वर्षा में बहुत मुसीबत उठानी पड़ी। फिर पांच सौ रुपये पंडित जवाहरलाल जी ने भेजे। तब माता जी ने कहा कि कुछ जगह ले लो। इस तरह के दुख से तो बचें।
नई बस्ती में जमीन अस्सी वर्ग गज ले ली। एक छप्पर एक कोठरी थी। उसमें गुजर की। पिताजी भी चल बसे। माताजी बहुत दुखी हुईं। एक महीने बाद मैं भी विधवा हो गयी। अब दोनों मां-बेटी दुखित थीं। मेरे पास एक पुत्र तीन साल का था। माता जी बोलीं कि मैं तो शरीर से कमजोर हूँ किस तरह दूसरे की मजदूरी करूँ। बिटिया अब क्या करना चाहिए। मैंने कहा कि जहां तक मुझसे होगा, माताजी आपकी सेवा करूंगी, आप धीरज बांधो। ईश्वर की यही इच्छा थी।
माता जी के पास रामप्रसाद जी के सोने तीन टोले तोले के बटन थे। उन्होंने किसी को नहीं बताया, छिपाए रहीं। जाने कैसा समय हो, इसलिए कुछ तो पास रखना चाहिए। पिताजी के स्टाम्प खजाने में दाखिल किए, दो सौ रुपये मिले। फिर बटन बेच दिए। फिर मैंने ईंट-लकड़ी लगाकर एक तिचारा तथा उसके ऊपर एक अटारी बनवाई। ऊपर माता जी ने गुजर की। नीचे का हिस्सा आठ रुपये में किराए पर उठा दिया। आठ रुपये में मैं , माताजी तथा बच्चा रहते थे बहुत ही मुसीबत से। एक समय वह भी कभी-कभी खाना प्राप्त होता था। मैंने एक डॉक्टर के यहां खाना बनाने का काम छह रुपये में कर लिया। माता जी ने सबसे फरियाद की कोई इस बच्चे पढ़ा दो। कुछ कर खायेगा। मगर शाहजहाँपुर में किसी ने ध्यान नहीं दिया।"
कहाँ थे तब बिस्मिल के शहर के राजनेता और समाजसेवी। किसी ने बिस्मिल की मां और उनके पिता को सहारा नहीं दिया। वे कब, कहां और कैसे मरे यह भी किसी को नहीं पता। कोई यादगार नहीं बनी शाहजहाँपुर की धरती पिता मुरलीधर और माँ मूलमती की। इस शहर के किसी सभागार में इनकी तस्वीरें नहीं लटकाई गईं। 1992 में जब मैं इस शहर के खिरनी बाग मुहल्ले में रामप्रसाद बिस्मिल उद्यान का निर्माण करा रहा था तब मैंने बिस्मिल की आदमकद संगमरमर की प्रतिमा के एक ओर मां मूलमती की समाधि भी बनवा दी जिस पर गोरखपुर जेल में बिस्मिल से मां के मिलन की कथा भी दर्ज है।
बिस्मिल की मां और पिता के अंतिम दिन इस शहर के माथे पर कलंक की तरह लगते हैं मुझे। आखिर कौन माफ करेगा हमें। क्या हम बिस्मिल के एक भाई और उनके मां-पिता को स्वाभिमान से जीने और मरने की सुविधा देने लायक भी नहीं थे।
सुधीर विद्यार्थी जी की पुस्तक 'मेरे हिस्से का शहर' के
लेख 'एक मां की आंखें' का अंश
अमर शहीद पंडित रामप्रसाद बिस्मिल के जन्मदिवस पर श्रद्धा सहित।
https://www.facebook.com/anup.shukla.14/posts/10222490748630953
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