Sunday, December 06, 2015

अति सर्वत्र वर्जयेत

 
पूरे दस साल के बाद वेतन आयोग आया । अखबार कह रहे आयोग ने खूब पैसा बढ़ाया। सरकारी कर्मचारियों पर खजाना लुटाया । उधर  कर्मचारी कह रहे हैं- यार मजा नहीं आया। ऐसा लग रहा कि आयोग ने तो मिठाई के डिब्बे की जगह लेमनचूस टिकाया।
एक सरकारी कर्मचारी का कहना है- जितना पैसा साल भर की मंहगाई भत्ते किस्तों में मिल जाता था उतना आयोग ने दस साल में बढ़ाया है। गोया नगाड़े की आवाज की जगह झुनझुना बजाया है।
ज्यादा पैसे बढ़ते तो क्या करते के जबाब में कर्मचारी बोला- तो हम ज्यादा खर्च करते। ज्यादा सामान खरीदते। ज्यादा खुश होते।
ओह ये बात है। समस्या की जड़ ज्यादा की इच्छा में हैं। यह तो भारतीय संस्कृति के संस्कृति सुभाषित –’अति सर्वत्र वर्जयेत’ की भावना के खिलाफ़ है। जो वर्जित है उसकी चाहना करोगे तो दुख तो होगा ही। दुख को खुद न्योता देने के समान है ज्यादा की इच्छा करना।
लेकिन सुख की इच्छा तो सहज भाव है मन का। उसका क्या करें ?
अरे तो उसके लिये उपाय है। संतोष की शरण में जाओ। संस्कृत में सुभाषित है न – ’संतोषम परमम सुखम।’ ऐसी कौन सी समस्या है जिसका इलाज भारतीय संस्कृति में नहीं है? संतोष की शरण में जाओ और परम सुख की प्राप्ति करो। मन करे तो गाते-बजाते हुये कोरस में जाओ- ’ज्यादा की जरूरत हमें नहीं, थोड़ी में गुजारा होता है।
लेकिन मंहगाई तो बढती जा रही है। उसका मुकाबला कैसे करेंगे? बाजार में सब कुछ तो मंहगा हो रहा है।
अरे बाजार से मुकाबला करने के लिये ही तो यह सारे उपाय किये गये हैं। सरकार पहले से ही बाजार के पर कतरने के लिये तमाम उपाय कर चुकी है। रेलवे की रिजर्वेशन का पैसा बढ़ाया, गैस की सब्सिडी कम की, सेवा शुल्क लगाया। जो रही बची कसर है वह वेतन आयोग पूरी कर देगा। बाजार के लिये पैसे की सप्लाई काट दी।
वो तो कहो आयोग ने तन्ख्वाहें कम नहीं की। वर्ना आयोग के एक सदस्य का सवाल  तो यह था कि का वेतन बढ़ना क्यों चाहिये। सरकारी कर्मचारी तो सरकार का अंग होने के नाते वेतन के लिये अयोग्य होता है। उसकी तन्खाहें तो कम होनी चाहियें।
अब बोलो क्या कहना है वेतन आयोग के बारे में?  एक लाइन में बोलो। मैंने सरकारी कर्मचारी से पूछा।
सरकारी कर्मचारी ने आंखे लाल करके झल्लाते हुये कहा- अति सर्वत्र वर्जयेत।

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