कल सुबह उठने के बाद दरवज्जा खोलने लगे तो देखा सिटकनी के पास एक चीटा ऊपर की तरफ़ चला जा रहा था। चीटे के पंख भी निकले हुये थे। बरसात में निकल आते हैं पंख। चीटे के पंख ऐसे लग रहे थे मानो वो सफ़ेद लुंगी लपेट के निकला हो। लगा तो यह भी कि मानों कोई आदमी मोरपंख लगाकर डांस करने के लिये निकला हो। चीटा अकेला ही चला जा रहा था ऊपर की तरफ़। आदमी हो तो ताम-झाम लेकर चलता। वीडियो सीडियो बनाता। सेल्फ़ी फ़ेल्फ़ी लेता। भले ही इस चक्कर में लद्द से गिर पडता।
घर से निकले तो एक दुबला-पतला आदमी सिकुड़ा-सिमटा सा सड़क पर जा रहा था। सिकुड़ने-सिमटने के चक्कर में वो और दुबला लगने लगा था। शायद सड़क पर चलते हुये उसको लग रहा हो कि कहीं फ़ैलकर चले तो कोई टोंक न दे। क्या पता कोई किसी तरह का सर्विस टैक्स ही न ठोंक दे। गरीब आदमी हर जगह सहम कर चलता है।
ओएफ़सी के पास सड़क पर बैठी महिला अपने बच्चे को दूध पिला रही थी। उसकी तसल्ली देखकर लग रहा था अपने घर के आंगन में बैठी है। साथ में उसके आज एक बुजुर्ग महिला भी थी। शायद सास रही हो । दोनों ’मंगती मुद्रा’ में बैठी थी। उसकी बच्ची पास में आकर रुकी कार की खिड़की पर मुंड़ी सटाकर भीख मांग रही थी। लम्बाई बमुश्किल कार की खिड़की के बराबर थी इसलिये थोड़ा उचककर मांग रही थी। दो-चार मिनट जब कार वाले ने उसको तवज्जो नहीं दी तो वह अगली कार की तरफ़ लपक ली जो उसी समय बगल में आकर खड़ी हुई थी।
सड़क किनारे बच्ची को दूध पिलाती महिला को देखकर पिछले दिनों वायरल हुये किसी विदेशी राजनयिक की उस फ़ोटो की याद आई भाषण देते हुये अपने बच्चे को दूध पिला रही थी। जिस सहज भाव से वह भाषण देते हुये पिला रही थी उसकी तारीफ़ करते हुये उसके समाज की तारीफ़ करते हुये यह सवाल टाइप भी किया गया था कि क्या भारत में यह संभव है। हमारा कहने का मन हुआ कि भारत में लाखों-करोड़ों कामकाजी महिलायें अपना काम करते हुये ऐसा करते हुये ऐसा करती हैं लेकिन उनकी फ़ोटो वायरल नहीं होते क्योंकि उनके लिये यह रोजमर्रा का काम है। फ़ोटो तो कभी-कभार किये जाने वाले कामों का वायरल होता है। उस राजनयिक का काम है भाषण देना, सड़क किनारे बैठी महिला का काम है भीख मांगना। लेकिन इसका फ़ोटो वायरल होने का सवाल ही नहीं उठता।
फ़जलगंज के पास कूड़े का ढेर बदस्तूर फ़ैला हुआ था लेकिन कल सुअर नहीं दिखे वहां पर। शायद शनिवार होने के चलते वीकएंड पर रहे हों या फ़िर किसी और दूसरे कूड़े के ढेर पर मुंह मारने चले गये हों।
अनवरगंज के सामने एक बुजुर्ग बीच के डिवाइडर पर रोज बैठे दिखते हैं। कल भी दिखे। जिस जगह दिखते हैं , फ़तेहपुर वहां से 85 किलोमीटर दूर है। पता नहीं क्या करते हैं। दफ़्तर जाने की हड़बड़ी में रुककर पूछना संभव नहीं होता। आज दिखेंगे तो पूछेंगे हाल।
कल झकरकटी पुल पर ’जाम दर्शन’ हो गये। आते समय कई बार फ़ंसे जाम में। लेकिन जाते समय कल पहली बार ऐसा हुआ। सोचा पांच दस मिनट में साफ़ हो जायेगा लेकिन आधे घंटे से ज्यादा फ़ंसे रहे उस जाम में। अगल-बगल से देखते कि मोटरसाइकिल और साइकिल सवार ’पैदल पट्टी’ पर चढकर सरसराते हुये निकलते जा रहे थे। हम कार पर सवार उचक-उचककर जाम हटने का इंतजार करते रहे।
जैसे ही जाम कुछ हटने को हुआ वैसे ही एक मोटरसाइकिल और फ़िर एक कार बगल से सरर्राते हुये आगे निकलकर बीच में जा खड़ी हुई। किसी कोर्ट के आदेश की तरह। ’जाम स्टे’ हो गया। मन किया उसको कोसते हुये देश के हालात पर कुछ भुनभुनायें। पर कोई सुनने वाला ही नहीं था तो किसको सुनाते। चुप बैठ गये। रहीमदास को याद करते हुये:
रहिमन चुप ह्वै बैठिये, देखि दिनन को फ़ेर।
चुप बैठे हुये देखा कि दफ़्तर पहुंचने के समय से आधा घंटा ऊपर हो गया था। मीटिंग होने के समय जाम में फ़ंसे थे। मल्लब ’मीटिंग जाम’ की जगह ’ट्रैफ़िक जाम’। साहब को फ़ोन करके बताया कि आने में देर होगी।
इस मामले में हम ’अच्छे दिन’ से ज्यादा जिम्मेदार हैं। देर हुई बता दिया। ऐसे ही ’अच्छे दिन’ भी फ़ोन करके बता देता कि ’घपला घोटाला जाम’ या फ़िर ’ ब्लैक मनी जाम’ या ’गोरक्षा जाम’ और कुछ नहीं तो ’असहिष्णुता जाम’ में फ़ंसे हुये हैं। आने में देर होगी। कोई कुछ कहता थोड़ी। मान लेते। लेकिन ’अच्छे दिन’ को सामान्य शिष्टाचार भी नहीं आता। लेकिन उसकी भी क्या गलती। पहली बार आ रहा है। उसको पता ही नहीं होगा कि जिस समाज में जा रहा है वहां के नियम कानून और सामाजिक शिष्टाचार क्या हैं।
लौटते हुये देखा एक आदमी रिक्शे पर अपने दोगुनी ऊंचाई के पीपे लादे लिये जा रहा था। वजन ज्यादा था तो उचक-उचक कर रिक्शा चला रहा था। आगे निकलकर कार खड़ी करके उसका इंतजार करने लगे कि फ़ोटो खैंचेगे। लेकिन देखा वह पहले ही सड़के की दूसरी तरफ़ चला गया था। मतलब पटरी बदल ली। जिस तेजी से उसने पटरी बदली उस तेजी से नेता लोग अपनी पार्टियां तक नहीं बदलते। लेकिन हमने जो फ़ोटो लेने की सोची थी वो लेकर ही माने। उसके बाद घर आये।
आज इतवार को द्फ़तर के लिये निकलते हुये जबलपुर की याद कर रहे हैं। वहां होते तो दोपहर तक ऐंडियाते बिस्तर पर पड़े-पड़े। सामने खुल्ले दरवज्जे से सड़क पर आते जाते वाहनों, लोगों को निहारते। सूरज भाई से बतियाते। साइकिल उठाकर टहल आते। दोपहर को मेस में डोसे का नाश्ता करते। चार ठो डोसा चांपकर कहते -आज लंच बंद। बीच में घर फ़ोन करके दूर होने का रोना भी रो लेते।
इस बीच जबलपुर से दीपा अपनी मौसी के यहां चली गयी। कटनी के पास गांव में रहती है दीपा। उसका पिता मजूरी कर रहा है बदस्तूर। कलीम का काम चल निकला है। मुर्गी दाने के साथ-साथ मछली का दाना भी बनाने की योजना है उसकी। रामफ़ल का बेटा फ़ल का काम कर नहीं पाया। दिहाड़ी मजूरी से काम चला रहा है। बकिया चकाचक है।
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आप मजे से रहो जी। अपन निकलते हैं दफ़्तर। देश सेवा का बहुत काम पड़ा है। देर होगी तो जिन्दाबाद हो जायेगा।
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