रोज फ़ैक्ट्री जाते समय अनवरगंज के पास डिवाइडर पर बैठे इनको देखते थे। बैठकी मुद्रा से लगता था कि शायद पूजा कर रहे हैं बैठे हुये। समय पर पहुंचने की जल्दी में कभी रुककर फ़ोटो नहीं ली। बात नहीं की। बस देखते हुये निकल लेते थे।
अनुशासन और समय की पाबंदी का साइड इफ़ेक्ट है कि अपने आसपास की दुनिया से हम अपरिचित रह जाते हैं। पता ही नहीं चलता कि क्या हो रहा है हमारे अगल-बगल।
लेकिन परसों इतवार था। आराम से दफ़्तर जाने की सुविधा। जरा जल्दी भी निकले थे। दिख गये तो गाड़ी किनारे खड़ी करके हाल-चाल लिये बुजुर्गवार के।
पंकज बाजपेयी नाम है। इसके बाद दस मिनट की बतकही में इतनी विरोधाभासी, एक दूसरे से असंबद्ध बातें बताईं कि याद रखना मुश्किल। लेकिन बताने का अंदाज इतना रोचक कि उनको सुनते रहने का मन करता रहा।
बताया कि बचपन में उनका अपहरण हो गया था। डा. के. एल. रोहतगी चांदकुमारी अस्पताल में पैदा हुये थे। जब पैदा हुये बदल दिया गया। हमारी जगह लड़की को वो वहां डाल आई , होशियार थीं। हमको उठा लाईं। असल में उनके बार-बार लड़की होती थीं और वो लड़का चाहती थीं इसलिये हमको उठा लाईं। फ़िर दो हजार पौंड में नैनीताल में बेंच रहीं थी बस स्टाप पर। हमारे पास कागज हैं, हम आपको दिखायेंगे।
बाद में कोर्ट का आर्डर हुआ और हमारा नाम बदला गया। पहले हमारे नाम के आगे शुक्ला लिखा था। बाद में कोर्ट ने काट के बाजपेयी कर दिया।
यहां रोज डिवाइडर पर बैठते हैं। धूप तेज होने तक। फ़िर सामने मामा की चाय की दुकान पर चाय पीते हैं। इसके बाद मम्मी के यहां चले जाते हैं। पद्मा जयललिता बाजपेयी मम्मी हैं। उन्हीं के यहां रहते हैं।वो जीत के आई हैं उन्होंने ही हमारा नाम बदलवाया।
बच्चों को जो लोग अपहरण करते हैं हम उनको बचा लेते हैं। मजिस्ट्रेट के यहां जमा करवा देते हैं।
परिवार के बारे में पूछा तो बताया कि पत्नी हैं। लेकिन आती नहीं। शहर में गन्दगी बहुत है। इसलिये नहीं आतीं। बच्चा था उसको मरवा दिया लोगों ने। विदेशी लोग यहां आते हैं। वे बच्चों को खाते हैं। बच्चे के कपड़ों से पता चला कि उसको मरवा दिया गया है।
बोले-’ अब हम कुछ दिन में महाराष्ट्र चले जायेंगे। बांद्रा में रहने के लिये।’ जब कभी गये नहीं महाराष्ट्र तो कैसे जायेंगे रहने के लिये बांद्रा इस सवाल का कोई जबाब दिये बिना वे अपनी ही बात कहते रहे। जिस आत्मविश्वास से वे बोल रहे थे उससे लग रहा था कि इनको माइक के सामने खड़ा कर दिया तो लोग फ़ैन हो जायें इनके तो बड़ी बात नहीं।
मोटी सी जैकेट के जेब में न जाने क्या-क्या अगड़म-बगड़म सामान ठूंसे पंकज बाजपेयी जी के झोले में भी बहुत सामान भरा था। बोले इसमें तमाम सामान है। ''आर्नामेंट'' भी हैं। हम जमा कर देते हैं शाम को। फ़िर सुबह ले आते हैं सिटी मजिस्ट्रेट के यहां से।
तमाम और भी एक-दूसरे को काटती हुई बातें सुनने के बाद फ़ोटो लेने की कोशिश की तो बोले-’ फ़ोटो मत लेओ। सीबीआई ने मना किया है।’ फ़िर बोले -अच्छा लै लेव।
पास के लोग हमको डिवाइडर पर खड़े होकर पंकज बाजपेयी से बतियाते देख रहे थे। एक दुकान वाले ने बताया कि -’सामने हाते में संयुक्त परिवार में रहते थे। उन लोगों का ही हाता था। ज्यादा पढ-लिख गये तो दिमाग खराब हो गया। इनके बहनोई रहते हैं पास में। उन्होंने ही एक कमरा ले दिया है। वहीं रहते हैं। ऐसे ही इधर-उधर घूमते रहते हैं।’
हम चले गये फ़ैक्ट्री दुकानदार की कही बात याद करते हुये-’ ज्यादा पढ़ने-लिखने से दिमाग खराब हो जाता है।’
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