दफ़्तर रोज जाते हैं। घर से निकलते ही कैमरा आन कर देते हैं। दांये-बायें निहारते हुये बीच-बीच में मोबाइल में समय देखते जाते हैं। घड़ी 1992 से छोड़ दिये हैं। उसका भी मजेदार किस्सा है। कभी सुनायेंगे।
सबेरे जब दफ़्तर जाते हैं तो हड़बडाये ही रहते हैं। पहली रुकावट विजय नगर क्रासिंग पर होती है। कोई न कोई गाड़ी आकर मुंह अड़ा देती है हमारी गाड़ी के आगे। नयी-नयी बच्चा गाड़ियां तक हमारी बुजुर्ग गाड़ी के आगे अड़ जाती हैं। लगता है गाड़ी न हो आजकल के लौंडे - लफ़ाड़े हों जो बुजुर्गों की इज्जत करने में अपनी बेइज्जती महसूस करते हों।
आगे जरीब चौकी क्रासिंग पर जब फ़ाटक बन्द मिलता है तो पहला विचार यही आता है -’आज तो हो गये लेट। देर नहीं करना चाहिये निकलने में। कल से जल्दी निकला करेंगे।’ क्रासिंग खुलते ही ऐसे फ़ुर्ती से भागते हैं जैसे मार्च के महीने में ग्रांट आते ही बाबू लोग चुस्तैद हो जाते हैं बजट निपटाने में। कुछ दुपहिया वाहन क्रासिंग बन्द देखते ही उल्टी तरफ़ पहुंचकर सबसे आगे खड़े हो जाते हैं। क्रासिंग खुलते ही गाड़ी का वज्रगुणन टाइप करके फ़र्राटा भरते हुये निकल लेते हैं।
कल एक बच्ची साइकिल पर स्कूल जाती दिखी। उसका टुपट्टा हवा में उड़ रहा था। टुपट्टा उड़ते देख गाना याद आना चाहिये :
हवा में उड़ता जाये, तेरा लाल टुपट्टा मलमल का।
लेकिन हमको गाना नहीं याद आया। हमको दो दिन पहले किसी इजरायली जाहिल नेता का दिया हुआ बयान याद आया। उसने कहा था- ’पांच साल से ज्यादा उमर की लड़कियों को साइकिल नहीं चलानी चाहिये। उससे देखने वाले को उत्तेजना होती है।’
हमको लगा भला हो भगवान का, पाक परवरदिगार का (ज्यादातर धतकरम जिनके नाम पर भी ही होते हैं) कि नमूने कम ही बनाये हैं उन्होंने दुनिया में। क्या पता कल को कोई जमूरा बयान दे बालिग लड़कियों को खुले में सांस नहीं लेनी चाहिये। उनके सांस लेने से, उतार-चढ़ाव से देखने वाले को उत्तेजना होती है।
फ़जलगंज क्रासिंग के आगे एक पेड़ धड़ाम हो गया था। सड़क पर आने-जाने का रास्ता बंद। आगे भीड़ देखकर हम एक गली में मुड़ गये। गली क्या कुलिया थी। मुख्य सड़क से सटी गली में दोनों तरफ़ सुस्ताया हुआ समाज था। हमारी गाड़ी रेंगती हुयी निकली गली थी। दोनों तरफ़ दुकानें आधी सड़क पर पसरी हुई थीं। लोग इतने आराम-आराम से आ-जा रहे थे कि उनको डिस्टर्ब करते हुये शरम आ रही थी मुझे। लेकिन दफ़्तर जाना था इसलिये पों-पों करते हुये निकले।
आगे पंकज बाजपेयी बैठे मिले। रोज मिलते हैं। चाय पिये नहीं थे। बोले - ’अब जायेंगे पीने। मामू के यहां।’ चलते समय रोज कहते हैं- ’गन्दी चीज नहीं खाना।’
दफ़्तर जाने की हड़बड़ी में ज्यादा बात नहीं हो पाती लेकिन मिलते जरूर हैं रोज। हाथ भी मिला लेते हैं अक्सर। लेकिन कल लफ़ड़ा हुआ।
हुआ यह कि जैसे ही डिवाइडर के पास उस जगह पहुंचे जहां पंकज बाजपेयी का ठीहा है तो हमने गाड़ी रोक दी उनको नमस्ते करने के लिये। हम उनसे बतियाने लगे। इस चक्कर में हम भूल गये कि सड़क हमारे अलावा दूसरों के लिये भी बनाई गयी है। लेकिन हमारे पीछे आने वाले मोटरसाइकिल वाले भाई जी यह नहीं भूल पाये थे। वे हमारे एकदम पीछे सटे हुये चले आ रहे थे। मतलब ’असुरक्षित दूरी’ बनाकर चल रहे थे। हमारे गाड़ी रोकते ही उनको भी ब्रेक मारने पड़े। जित्ता ब्रेक गरम हुये होंने उससे दोगुने ज्यादा वे सुलग गये। अपना जरूरी काम छोड़कर उन्होंने हमारी गाड़ी का दरवाजा खटखटाया। ’अंखियों से गोली मारने’ वाली मुद्रा देखते ही हमने हाथ जोड़ दिये। चेहरे पर दीनता और थोड़ी सी मुस्कान का पैक लगा लिया। वे भाई साहब भुन्नाते हुये चल दिये।
हम भी चल दिये। लेकिन हमको फ़िर लगा कि बताओ एक फ़टफ़टिया वाला एक सैंट्रो वाले को हड़का जाये। बीच सड़क पर। बड़ी गाड़ी वाला आदमी मजबूर होता है छोटी गाड़ी वाले आदमी को अपने से हीन समझने के लिये। आदमी जिस गाड़ी की सवारी करता है वह गाड़ी भी आदमी के सर पर सवार रहती है।
यह याद आते ही हमने गाड़ी दौडाई। सोचा उसको हड़काते हैं। किस बात पर हड़कायेंगे यह नहीं पता था लेकिन यह तय था हड़काना है। मन ही मन यह डर भी लग रहा था कि कहीं आगे मिल न जाये। लेकिन डर के साथ बड़ी गाड़ी के चलते वीर रस हाबी थी लल्लन मियां वाला:
फ़ूंक देंगे पाकिस्तान लल्लन
दो सौ ग्राम पीकर देखो।
दो सौ ग्राम पीकर देखो।
हमने दो सौ ग्राम पिये बिना तय कर लिया कि अब मिलते ही फ़टफ़टिया वाले को हड़काना ही है। बहाना भी तय कर लिया कि देखते ही कहेंगे-’ फ़टफ़टिया को सैंट्रो को सटाकर चलाते हुये शरम नहीं आती। ऊपर से गरमी दिखाते हो।’
आगे दिख भी गया अफ़ीमकोठी पर जामकृपा से। हड़काने का बहाना भी मिल गया एक और। वह हेलमेट नहीं लगाये था। सोचा हड़कायेंगे -’ बिना हेलमट लगाये फ़टफ़टिया धारी तुम सीट बेल्ट धारी सैंट्रो सवारी को हड़काते हो। शरम नहीं आती।’ हम लपककर उसके बगल में पहुंचे। लेकिन उसका भाग्य तगड़ा था (उससे ज्यादा हमारा तगड़ा रहा होगा) कि वह बीच सड़क से किनारे होते हुये दूसरी तरफ़ चला गया।
इसके बाद हम चुपचाप चलते हुये चले आये। मोटरसाइकिल पर सवारियों के बिना हेलमेट सर गिनते हुये। न जने कब लोग यह समझेंगे कि हेलमेट लगाना उनके लिये जरूरी है उनकी सुरक्षा के लिये।
खैर अब फ़िलहाल हमारे लिये निकलना जरूरी है। हम निकलते हैं। आप मस्त रहिये।
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