साहित्य जीवन की तरह ही है। यहां खूबसूरत , बेहद खूबसूरत फूल भी खिलते हैं तो कम खूबसूरत माने जाने वाले रंगबिरंगे फूल भी। अच्छा-खराब भी हमेशा सापेक्ष ही होता है। तथाकथित अच्छे लिखने वाले तथाकथित खराब लिखने वालों की खिल्ली उड़ाते हैं यह गली-मोहल्लो वाली छुटभैयों की गुंडई जैसी हरकत है। अनगिनत स्तर होते हैं समाज के। उसी के अनुरूप उस स्तर के लोगों की अभिव्यक्ति भी। जो किसी स्तर के लिए शानदार, जबरदस्त , जिंदाबाद हो सकता है वही दूसरों के कूड़ा, फालतू, बकवास हो सकता है।
साहित्य कोई बतासा नहीं है जो खराब लेखन (जिसे नवांकुरों द्वारा लिखा बताया गया) की बारिश मे घुल जायेगा। सबको खिलने, खुलने, पनपने का एकसमान हक़ है यहाँ।
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