सबेरे भगे चले आ रहे थे फ़ैक्ट्री की तरफ़। आज हालांकि रोज के मुकाब ले जल्दी ही थे। लेकिन कानपुर में और शहरों की तरह जाम और लफ़डे का कोई भरोसा नहीं कहां मिल जाये। एस.ए.एफ़ के फ़ैक्ट्री के सामने कर्मचारी लोग सभा कर रहे थे। एक जन माइक पर। बाकी सामने से उसको उसको सुन रहे थे। हम उधर से गुजरे तो श्रोताओं में से एक ने देखा तो नमस्कारी-नमस्कारा हो गया। कार के अंदर से ही हमने हाथ हिलाये। ज्यादा नहीं जरा सा। ज्यादा हिलाने पर कार का संतुलन बिगड़ जाता।
ओएफ़सी के सामने एक महिला सड़के पर भीख मुद्रा में बैठी थी। आज वह छाता नहीं लगाये थी। उसके बच्चे उसके आसपास खेल रहे थे। महिला का पति रिक्शा चलाता है। उसके दो बच्चे हैं। तीसरा शायद उसकी जेठानी का है। जब तक पति रिक्शा चलाता है तब तक वह भी मांगकर कुछ कमाई कर लेती होगी।
जरीब चौकी का रेलवे फ़ाटक खुला था। झटके से मने भागते हुये मल्लब कार स्पीड में करके उसको पार किया। न जाने कब फ़ाटक बन्द हो जाये और फ़ैक्ट्री पहुंचने में देर हो जाये। घर से डांट पड़े , जब जल्दी निकले थे तो देर कहां हुई। फ़ैक्ट्री से सूचनार्थ जानकारी मिले -’ आज आप तीन मिनट लेट आये।’
रेलवे फ़ाटक पार करते ही जो सांस ली कुछ लोग उसे चैन की कहते हैं कुछ लोग सुकून की। अब यह तसल्ली थी कि जो भी मिलेगा वह जाम होगा। रेलवे फ़ाटक की बाधा तो पार हो गयी जिस पर कोई बस नहीं अपन का। जाम में तो कोई गुंजाइश भले न हो लेकिन हमेशा लगता है बस अब खुलने ही वाला है।
अनवरगंज स्टेशन के आगे देखा कि एक हाथ रिक्शा पर दो लोग चले जा रहे थे। दोनों लोग साथी हाथ बढ़ाना की तर्ज पर हाथ से रिक्शा चला रहे थे। आगे निकलकर गाड़ी किनारे लगाई। रोककर उनका फ़ोटो खैंचा। पूछा किधर जा रहे हो, किधर ध्यान है।
पता सफ़ेद शर्ट वाला दिव्यांग है। पैर से दिव्यांग। दूसरा वाला उसके लिये रोजी-रोटी का जुगाड़ करने जा रहा है। कहीं पर खड़ा करके पान-मसाला बेंचने का इंतजाम करेगा उसके लिये। मलतब खुद तो विकलांग है ही। पचीस और लोगों को विकलांग बनाने का इंतजाम करेगा। पान-मसाला खाकरे इतने साथियों को कैंसर से मरते देखा है पिछले दिनों कि यह धंधा करने वाले समाज के दुश्मन ही नजर आते हैं।
जब फ़ोटो खैंच रहे थे तभी याद आया लगता है गाड़ी का दरवाजा बन्द कर दिये और चाबी गाड़ी में ही रह गयी। मतलब हो गयी लभेड़। कहां जल्दी निकले थे और इधर लेट का इंतजाम हो गया। फ़ौरन पलटे कि देखें कोई दरवाजा खुल्ला है क्या । दरवाजा खुला देखा तो एक बार फ़िर चैन की सांस आई। मतलब दस मिनट के ही अंतर में दो बार चैन की सांस मिल गयी। इत्ती चैन से अच्छा तो लगा लेकिन यह भी लगा कि इत्ता चैन ठीक नहीं जिन्दगी के सुकून के लिये।
आगे सड़क किनारे एक झोपड़ पट्टी के पास एक बच्ची अपनी सहेलियों के साथ जमीन पर उछलती हुई कड़क्को खेल रही थी। उसके आगे एक आदमी सड़क के किनारे भैंस दुह रहा था। उसके चारो तरफ़ गोबर पसरा हुआ था। गोबर की भीनी-भीनी सुगन्ध गाड़ियों से निकलने वाले धुयें से पंजा लड़ा रही थी। पास के नाले की दुर्गन्ध भी उनके साथ गलबहियां कर रही थी।
फ़ैक्ट्री के सामने एक जनप्रतिनिधि आत्मविश्वास पूर्ण आवाज में भाषण दे रहा था-’ साथियों आपको चिंता करने की जरूरत नई है।’
हम उस आवाज को अनसुना करके फ़टाक से फ़ैक्ट्री में जमा हो गये। समय से पहले पहुंचने की खुशी में फ़िर से चैन की सांस लेने का मन हुआ लेकिन फ़िर सोचा कार्यस्थल पर चैन से रहना ठीक नहीं हमने चैन की सांस को कह दिया - ’अब फ़िर आना। अब हम काम पर लगेंगे। ’
हम तो लग लिये काम पर आप भी काम पर लगोगे कि चैन की सांस ही लेते रहोगे।
No comments:
Post a Comment