सबेरे निकले। साइकिल निकाली। ताला खुल ही नहीं रहा था। कुनमुनाता रहा। शायद कह रहा था -'अभी सुबह नहीं हुई। सोने दो जरा।'
थोड़ी देर प्यार से खोलते रहे। नहीं खुला तो कस के दबाया। तड़ से खुल गया। बदमाश कहीं का। वैसे ताले की भी क्या गलती? जब रोज खोला नहीं जाएगा तो उसको लगेगा कि बन्द रहना ही उसका काम है।
गेट तक पहुंचे ही थे कि बूंदे गिरने लगीं। मन किया लौट ले। लौटने को हुए तब तक राहत इंदौरी का शेर याद आ गया:
जिंदगी क्या होती है खुद ही जान जाओगे,
बारिशों में पतंगे उड़ाया करो।
बारिशों में पतंगे उड़ाया करो।
अब पतंग तो खैर क्या उड़ाते। वो सलमान खान का काम। हम साइकिल पर निकल ही लिए। निकलने के पहले मोबाइल मोमिया में लपेटकर जेब में 'धल्लीये'।
गेट के बाहर ही कुछ बन्दर, बंदरिया सड़क पर बने तालाब के पानी के किनारे बैठे थे। एक बंदरिया बच्चे को पेट से चिपकाए पानी को हिलाते हुए साफ़ करती पानी पीने लगी। हमको देखकर सब हमको घेर लिए। हमारे हाथ में मोबाइल देखकर शायद इंटरव्यू देने के मूड में आ गए। हम उनको नजरंदाज्ज करके आगे बढ़ लिए।
चाय की दुकान तक पहुँचते हुए पानी बहुत तेज हो गया। मोबाइल हम चाय की दुकान पर धर दिए। चाय वाला बोला- भीग जाएंगे। हम बोले-'भीगना ही है।' निकल लिए।
शुक्लागंज की तरफ निकले। सड़क के दोनों तरफ झुग्गी-झोपड़ियों में लोग सोये हुए थे। एक महिला झोपडी के अंदर से बाहर बरसते पानी को देख रही थी।
एक बुजुर्ग सड़क पर खरामा-खरामा चलते हुए जा रहे थे। पैंट को घुटनों के ऊपर से पकड़े हुए उठाये थे। ऐसे जैसे शादी-व्याह की पार्टियों में लड़कियां घाघरा जमीन पर लिथड़ने से बचाने के लिए पकड़े रहती हैं।
शुक्लागंज पुल के मुहाने पर कई दुपहिया सवार पुल की आड़ में बारिश खत्म होने का इन्तजार कर रहे थे। हम भीगते हुए पैडलियाते हुए पुल पर चलते चले गए। बीच पुल पर खड़े गंगा जी को देखा। अलमस्त पसरी हुई लेटी थीं। पानी बरसते हुए नदी में जमा हो रहा था। नदी बेपरवाह उस पानी को आगे भेजती जा रही थी।
एक ट्रेन बीच पुल पर खड़ी थी। शायद सिग्नल के इन्तजार में। हमने जैसे ही उसके इंजन को पार किया वह सीटी बजाते हुए चल दी। हमको लगा हमारी इज्जत में रुकी हुई थी। हम भावविभोर टाइप हुए। आलोक धन्वा की कविता भी याद आई सीटी सुनते ही:
हर भले आदमी की एक रेल होती है
जो उसकी माँ के घर की और जाती है
धुंआ उड़ाती हुई,
सीटी बजाती हुई।
जो उसकी माँ के घर की और जाती है
धुंआ उड़ाती हुई,
सीटी बजाती हुई।
पुल के पार चाय की दुकान पर लोग चाय के इंतजार में बैठे थे। हम भी बैठ गए। एक जन बोले -' लखनऊ से चले तो पता ही नहीँ चला कब उन्नाव आ गए। जरा सा चूकते तो कानपुर ही पहुँचते।'
पानी बरसते देखते हुए एक बोला - 'बहुत देर हो गयी पानी में इस बार।'
दूसरा बोला-'अब लस्सी, कोल्डड्रिंक की बिक्री बंद हो जाएंगी।'
चाय वाला बड़े भगौने में चाय बना रहा था। लोग अच्छे दिनों की तरह चाय के इन्तजार में थे। अनुशासित खड़े थे। चाय बन गयी तो लोग लेने के लिए लपके। पहले से खड़े कुछ लोग पीछे ही खड़े रहे। बोले-'बोहनी का मामला है।' पता चला वे उधारी वाले ग्राहक थे। पहले नकद वाले ले लें तब वे लेंगे।
अखबार वाले बाजपेयी जी आ गए। चाय वाले की दूकान पर चढ़कर मग्घे के पानी से कुल्ला करके मुंह के मसाले को बाहर सड़क पर खदेड़ा। चाय के लिए मुंह तैयार किया। चाय लपकी। पीने लगे।
हमने कहा/पूछा-' बारिश में तो भीग जाते होंगे अखबार बांटने में।'
बोले-'यही माँ तो मजा है। ग्राहक को पता है आराम से आयेगा अख़बार। हम भी मजे-मजे में बांटते है।'
फिर बोले-'दुई-चार दिन की बात होय तौ छुट्टी कर लेई। लेकिन यह तौ चार महीना का खटराग है। मजबूरी है।'
दुकान पर बैठे हुए पानी की बूंदे पैन्ट पर गिरकर अंदर समा रहीं थीं। पैन्ट पर गिरते ही किधर चली गयीं पता ही नहीँ चल रहा था। एक दम राहत राशि जैसा मामला।किधर खप गयी , कोई हिसाब नहीं।
हाथ में गिरती बूंदे नरम-ठण्डी खुशनुमा लग एहसास दे रही थीं। हमने गिनती नहीं की कि कितनी बूंदे हाथ में गिरते हुए जमीन पर सरक गयीं। कौन इस पर अभी जीएसटी लगा है। लगेगा तब देखा जाएगा।
एक आदमी बीड़ी का बंडल और माचिश जिंदगी की जमापूंजी की तरह हाथ में लिए बैठा था। दो बंडल बीड़ी रोज पी जाता है। पता है नुकसान करती है लेकिन पीता है।
लौटते में बीच पुल पर एक जूता दिखा। सड़क पर पड़ा था। नदी की तरफ मुंह किये।मन किया पूछें -'जोड़ीदार किधर है भाई?' लेकिन पूछा नहीं। क्या पता हड़का दे -'हमारा आपस का मामला है। तुमसे क्या मतलब!' लेकिन जूता उदास था। क्या पता उसका जोड़ीदार नही में कूद गया हो। आजकल लोग जरा-जरा सी बात पर तो भन्ना जाते हैं।
पुल के मुहाने पर अभी भी कुछ लोग बारिश के रुकने के इन्तजार में खड़े थे। यकीनन ये लोग वही नहीं थे जो आते समय मिले थे।
वापस चाय की दूकान से मोबाइल लिया। कुछ लड़के मोटरसाईकल पर धड़ धड़ाते हुये। चाय पर टूट पड़े। पता चला सफीपुर जा रहे हैं। घूमने और आम खरीदने।मण्डी लगती है वहां। शहर में 50 रूपये किलो मिलते हैं तो वहाँ 25 में। 50 किलोमीटर होगा सफीपुर।
लड़के कर्नल गंज में रहते हैं। कपड़ा बाजार में काम करते हैं। बताया -ठण्डा है बाजार अभी। दस पन्द्रह दिन ऐसे ही चलेगा। फिर सब ठण्डा हो जाएगा।
परेशानी के नाम पर बोला -'हम तो लेबर हैं। हमको जीएसटी से क्या मतलब? लोग लेबरों से सब काम फ्री में कराना चाहते हैं। पैसा बढ़ाते हुए हवा खिसकती है।'
चाय पीकर लड़के लोग गाड़ी स्टार्ट करके निकल लिए सफीपुर। हम भी खिसक लिए घर की तरफ।
बहुत दिन बाद मन भर भीगे। मजा आ गया। आप भी न हो एक बार भीग लीजिए बारिश में। कोई टैक्स नहीँ है फिलहाल। बाद में न जाने कब क्या हो जाए। कोई ठिकाना नहीँ किसी बात का भाई।
पानी बरस रहा है। बरामदे से बरसते पानी को निहारते हुए यह पोस्ट लिख रहे थे। कहीं गाना बज रहा होगा:
बरखा रानी जरा जम के बरसो
मेरा दिल बरसा न पाये, झूमकर बरसो।
मेरा दिल बरसा न पाये, झूमकर बरसो।
मने आदमी खुद कुछ नहीं करना चाहता। सब काम दुसरे से ही करवाना चाहता है। काहिली पसरी चहुं ओर।
चलिए आपका दिन मंगलमय हो। हम चलते हैं अपने काम पर। आगे के मोर्चे हमको आवाज दे रहे हैं। इंकलाब जिंदाबाद। वन्देमातरम। भारतमाता की जय।
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