Thursday, July 20, 2017

जिंदगी में आगे बढ़ने के लिए खुरदुरापन भी जरूरी होता है

सबेरे उठते ही सोचते है कुछ लिख मारें। जहां लिखना शुरू करते हैं तो लगता है कि कुछ पढ़ डालें। लिख मारे और पढ़ डालें के दोनों पाटों के बीच समय पिस जाता है।
आज सोचा कि थोड़ी व्यंग्य के बारे में चिंता व्यक्त कर लें। लेकिन बहुत कोशिश करने के बावजूद चिंता आई ही नहीं। पता नहीं कहाँ रह गई। चिंता हो रही है 'व्यंग्य की चिंता' के लिए। कहीं बहला-फुसला के गड़बड़ न करे उसके साथ। लेकिन फिर देखा कई समर्थ ,अच्छे, भले टाइप के लोगों के साथ थी 'व्यंग्य की चिंता'। हम चिंता की तरफ से निशा खातिर हो गए।
व्यंग्य की चिंता खत्म होने के बाद देखा सुबह हो गयी। चाय बनाने के बाद देखा एक केचुआ कमरे में टहल रहा है। कमरे की फर्श पर पेट के बल टहलते हुए आगे-पीछे, पीछे-आगे हो रहा था। टाइल्स वाली चिकनी फर्श पर चिकने कछुए को चलने में मेहनत बहुत लग रही थी लेकिन आगे नहीं जा पा रहा था। एक ही जगह 'कदमताल' कर रहा था।
हमें फिर घर्षण के महत्व का अंदाज हुआ। जिंदगी में आगे बढ़ने के लिए खरदुरापन भी जरूरी होता है। यही अगर कच्ची फर्श होती तो अब तक केचुआ सरपट आगे बढ़ गया होता।
हमको केचुए की हिम्मत पर भी ताज्जुब हुआ। दस फुट दूर मिट्टी वाली जमीन छोड़कर सड़क पारकर, बरामदे में टहलते हुए कमरे तक आ गया। कष्ट में रहा। नई जगह की तलाश में आया या भूख मिटाने के लिए पता नहीं चला। बात भी नहीं हो पाई।
कुछ देर देखते रहने के उसको एक कागज पर धरकर बाहर मिट्टी में छोड़ दिया। कागज पर चढ़ते हुए पहले तो थोड़ा कुनमुनाया कछुआ लेकिन फिर पसरकर बैठ गया। एक मिनट की एयरलिफ्ट के बाद उसको बगीचे में लैंड करा दिए। कोई मेहनताना नहीं लिए। कारण यह कि हमको पता नहीं कि केचुये को एयरलिफ्ट करने पर कित्ते प्रतिशत जीएसटी है। दूसरा लफड़ा यह कि हमें पता नहीं केचुआ जीएसटी में रजिस्टर्ड है कि नहीं। उसको क्रेडिट मिलेगा कि नहीं। और भी पचास बवाल। इसलिए मुफ्त सेवा देकर बवाल काटे।
मिट्टी से जुड़ते ही केचुआ सरपट सरकने लगा। समर्थकों के बीच जैसे नेता अलाय-बलाय हांकने लगते हैं वैसे ही कुछ हाँकने भी लगा होगा। क्या पता कुछ केचुओं ने उसे कोलम्बस बताते हुए केचुआ अभिनन्दन भी कर डाला हो। जो किया हो करें। हम क्यों किसी केचुए के सम्मानित होने से जलें।
हड़बड़ी में गड़बड़ी यह हुई कि केचुए की फोटो लेने से रह गयी। कोई बात नहीं दूसरी हैं वो दिखाते हैं लेकिन पहले उनके बारे में बताते हैं।
कल जब घर से निकले तो मोड़ पर एक बच्चा रिक्शे पर उचकते हुए उसको चलाने की कोशिश कर रहा था। स्कूल नहीं जाता होगा। तमाम स्कूल चलो अभियानों से बचकर जिंदगी के स्कूल में दाखिल हो गया जहां फीस नहीं पड़ती। किताब-कॉपी का खर्च नहीं होता।
हीर पैलेस के सामने कुछ महिलाएं सड़क पर बैठी पत्तल बना रहीं थीं। हमने उनका फोटो लेंने के बारे में पूछा तो बोली -'लई लेव।' हमारे फोटो लेने पर हंसने भी लगीं। सोचती होंगी -'अजीब है। पत्तल बनाने का फोटो लेने क्या मतलब।'
आज सबेरे का समय व्यंग्य चिंता और केचुआ चिंतन में निकल गया। मन किया दोनों को एक बता दें। लेकिन अब नौकरी की चिंता हावी हो गयी । नौकरी की चिंता व्यंग्य और केचुए की चिंता से ज्यादा बड़ी है। खासकर तब जब हाजिरी आधारकार्ड से जुड़ी हो।
फिलहाल इतना ही। आगे फिर जल्दी ही।

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