रीजेंसी से टहलते हुए रावतपुर क्रासिंग पर आए। सवारी तलाश रहे थे कि सामने से बस धड़धड़ाती हुई आई। हम लपककर चढ़ लिए। किनारे की सीट खाली थी। हम बैठ गए। बैठने से पहले देख लिया कि सीट महिला और बुजुर्ग की तो नहीं है।
रावतपुर से फूलबाग का टिकट काट दिया कंडक्टर ने 12 रुपये। हम सालों बाद शहर में किसी बस में बैठे थे। अकेले ऑटो इत्ती दूर के सौ-दो सौ लेता। ओला कम से कम 200 रुपये का गोला छोड़ता। लेकिन सार्वजनिक बस 12 रुपये की। ये खूब सारी चलनी चाहिए।
ड्राइवर गाड़ी चला रहा था और कंडक्टर को हिदायत भी देता जा रहा था। एक तरह से ड्राइवरी और कंडक्टरी एक साथ कर रहा था। इसके बाद उसको हड़काता भी जा रहा था कि तुम्हारा काम भी मैं ही कर रहा हूँ। किसी सरकार के ऐसे मुखिया की तरह जो अपने काम के साथ अपने सहयोगियों के काम भी करता रहे।
फूलबाग दस-बारह मिनट में ही पहुँच गए। उतरकर पैदल चल दिये कैंट की तरफ। रास्ते में कई नजारे दिखे। एक जगह एक रिक्शा वाले फुटपाथ पर बैठे लकड़ी चीरने का जुगाड़ कर रहे थे। बताया कि बिठूर से आये थे। सालों पहले। तबसे यहीं फुटपाथ पर बसेरा है। मिट्टी, मोमिया और कबाड़ के गठबंधन की झोपड़ी। अतिक्रमण करके रहते हुए बीस साल गुजर गए।
बिठूर के रहने वाले सत्यप्रकाश गुप्ता मुंह में फुल मसाला भरे अपने बिठूर से कैंट आने की कहानी सुनाते रहे। पचास की उम्र है। चार बच्चों में एक बिटिया की शादी कर चुके। तीन को पालना है। बच्चे अब्बी पढ़ते हैं। फुटपाथ में रहते हुए क्या पढ़ते होंगे, क्या जीते होंगे समझना मुश्किल।
हमारे घर की बाउंड्री के बाहर एक रिक्शेवाले गद्दी पर बैठे खाना खा रहे थे। साथ में रिक्शे के पास खड़े कुत्ते को खिला रहे थे। पता चला शुक्लागंज में रहते हैं। रिक्शा लेकर अभी कुछ देर पहले घर से निकले हैं। खाना लेकर। अभी खाना खाकर कुछ देर आराम करेंगे फिर दो बजे से रिक्शा चलाएंगे।
हमने पूछा -'जब घर से निकलते ही खाना खाना था तो खाना खाकर निकलते। आराम से दो बजे।' इस पर बोले -'घर से खाकर निकलते तो फिर निकल नहीं पाते। खाना खाने के बाद आलस आता है । निकलने का मन नहीं करता।'
'किधर चलाओगे रिक्शा आज' पूछने पर बोले बेगमगंज, परेड की तरफ जायेंगे। उधर सवारी मिल जाती हैं आज के दिन।
और बात करने पर पता चला कि गोण्डा के रहने वाले हैं मोहम्मद शामी उर्फ छिद्दन मियां। लेकिन रहे शुरू से कानपुर में। ससुराल रानीगंज पश्चिम बंगाल।
हम पूछे कि गोण्डा, कानपुर के आदमी की ससुराल बंगाल। फिर किस्सा सुनाया कि उनकी पत्नी कहीं आईं थीं किसी शादी में वहीं किसी ने दिखाया। तो हो गयी शादी।
किस्से पर किस्से बताते गए छिद्दन मियां। बोले-'हमारे ससुर बड़े रईस आदमी थे। मिल चलती थीं उनकी। ऊंचे खानदान की है हमारी बीबी। हम तो अनपढ़ हैं लेकिन वो खूब पढ़ी लिखी हैं। अंग्रेजी 9 तक पढ़ी हैं, उर्दू की बड़ी वाली किताब पढ़ी हैं, बंगला भी जानती है।'
फिर ऐसे अंतर के बाद तुम्हारी शादी कैसे हुई? हमारे इस सवाल के जबाब में जो बताया छिद्दन ने उसका लब्बो लुआब यह था कि उनके चेहरे में कुछ ट्यूमर टाइप था। इन्होंने कहा-'शक्ल तो अल्लाह ने दी। हो गयी शादी।'
बात फिर दिहाड़ी की तरफ मुड़ी। बोले -'जबसे ये बैटरा (ई रिक्शा) चला है , रिक्शेवालों की आफत है। पहले रोज चार-पांच सौ कमा लेते थे। अब 200 रुपया कमाना मुहाल हो गया है। उसमें भी 50 रुपये रिक्शे वाले को किराए के देने होते हैं।'
हमने कहा -'तुम भी ले लो बैटरा लोन लेकर।' बोले-'अब बन्द होने वाले हैं। रजिस्ट्रेशन होगा तो कम हो जाएगे सब।'
बच्चों के बारे में बताया - 'बेटा कैरीबैग का काम करता है। दो बेटे रहे नहीं। पता होता कि ऐसा हो सकता तो पत्नी का ऑपरेशन न करवाते।'
बातें तो औऱ तमाम हुईं। जो याद रहीं वो लिखी यहां।
आप देखिए अपना देश कितनी तेजी से तरक्की कर रहा है। शहर स्मार्ट हो रहे हैं। मंगल पर पहुँच रहे है हम। लेकिन उसी हिंदुस्तान का बहुत बड़ा तबका जिस तरह जी रहा है वह बेहद कठिन जिंदगी है। उस पर भी तुर्रा यह कि हममें से तमाम लोगों को यह पता भी नहीं कि ऐसा हिंदुस्तान हमारे अगल-बगल भी है जिसके लिए आज का दिन जी लेना भी एक चुनौती है। संग्राम है। मजे की बात वह जी भी रहा है बिना शिकवे-शिकायत के। मजबूर है - क्या करे।
बकौल परसाई जी -''हड्डी ही हड्डी, पता नहीं किस गोंद से जोड़कर आदमी के पुतले बनाकर खड़े कर दिए गए हैं। यह जीवित रहने की इच्छा ही गोंद है।'
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