Thursday, July 27, 2017

देश के राजनीतिज्ञ समझदार होते जा रहे हैं


देश में ट्रक बनाने वाली दो प्रमुख कंपनियां टाटा और अशोक लेलैंड हैं। वी एफ जे में काम करने के दौरान अशोक लेलैंड के कुछ सीनियर अफसरों से मिलने पर पता चलता था कि वे अशोक लेलैंड में आने के पहले 20-30 साल टाटा में काम कर चुके थे। बाद में उन्नति के लिए उन्होंने कम्पनी बदली।
प्राइवेट संस्थानों में उन्नति के लिए कुछ साल बाद कंपनी बदलने का चलन आम बात है। नौकरी वहां 'कांट्रैक्ट मैरिज' टाइप होती है।
सरकारी नौकरियां हिंदुस्तानी विवाह की तरह होती हैं। नौकरी करने वाला इंसान हिंदुस्तानी बहुओं की तरह होता है। जिस घर मे डोली आई वहीं से अर्थी निकलने की तर्ज पर जहां ज्वाइन करता है वहीं से रिटायर मेन्ट लेता है।
पहले की राजनीति भी आमतौर पर सरकारी नौकरियों की तरह करते थे लोग। जिस दल, विचार धारा से शुरू करते थे, आमतौर पर उसी से जुड़े रहते थे।
इधर सरकारी नौकरियां तेजी से कम हुई हैं। काम चलाने के लिए कांट्रैक्ट वर्कर का चलन बढा है। ठिकाना नहीं कि कब निकाल दिए जाएं।
राजनिति में भी प्राइवेटाइजेशन बढ़ा है। लोग मौका देखकर धुर विरोधी पार्टी में शामिल होने में गुरेज नहीं करते। बल्कि मौके पर पार्टी और स्टैंड बदल लेना सबसे बड़ी समझदारी मानी जाती है। जिसको गरियाते हुए सत्ता में पाई बाद में उसी के साथ सरकार बनाना सफल और समझदार राजनीतिज्ञ की निशानी है।
देश के राजनीतिज्ञ समझदार होते जा रहे हैं। वे ठेके पर काम करने वाले मजदूरों की तरह काम करने लगे हैं।जो ठेकदार रोजी-रोटी देगा उसी के जुड़कर जनता की सेवा करने पर मजबूर है।
आज राजनीति का सबसे बड़ा ठेकेदार बाजार है। क्या पक्ष क्या विपक्ष सब बाजार के इशारे पर उठते-बैठते, हिलते-डुलते हैं। बाजार के इशारे पर पक्ष-विपक्ष आपस में ग्लेडियेटर की तरह लड़ने का नाटक करते हैं। बाजार दोनों में से किसी को मरने नहीं देता। जिंदा रखता है दोनों को। आखिर दोनों को बनाने में उसका ही पैसा लगता है।
जनता बेचारी इन्हीं लोगों से अपनी सेवा कराने को मजबूर है। जिसको वह अपनी सेवा के लिए चुनती है वह अगर बाजार को पसन्द नहीं आता तो वह उसे बदल देता है। आखिर सेवक चुनने में पैसा तो उसी का लगता है। इसलिए जनता का सेवक चुनने का हक भी उसी को है।
जनता को तो बस सेवा से मतलब होना चाहिये। सेवक कौन होगा यह तय करना बाजार का काम है।


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