[एम.एम. चन्द्रा के संपादन में अट्टहास के जुलाई,17 के अंक में छपा लेख। जुलाई अंक व्यंग्य के अंतर्विरोध पर केन्द्रित है। ]
लिखत-पढत की दुनिया में नयी-पुराने की बातें होती रहती हैं। नये पुराने की परिभाषा लोगों के हिसाब से बदलती है। उमर के हिसाब से तय करने चलें उम्रदराज लोग पुरानी पीढी में आयेंगे। लेकिन बुजुर्गवार जो देर से लिखना शुरु करते हैं वे लेखन में नवागत कहलायेंगे। जिन लोगों ने जवान होने के पहले ही लिखना शुरु कर दिया वे बुजुर्ग होने के पहले ही पुरानी पीढी में धंस जायेंगे। Om Varma, नीरज दहिया जैसे लोग बुजुर्ग लेखक जो लिखते-छपते वरिष्ठ नागरिक हुये उनकी किताबें देरी से छपी वे किस खाते में आयेंगे? किताबें अगर पैमाना होंगी तो ’व्यंग्य के नींव की ईंट’ Anup Srivastava श्रीवास्तव का एडमिशन किसी पीढी में नहीं हो पायेगा। खुद के व्यंग्य और संकलन मिलाकर 40 के ऊपर किताबें छपाने का Subhash Chander को अगर बुजुर्ग लेखक कहा जायेगा तो कल्लू मामा पिनक जायेंगे। निरन्तर छपने के विकट रिकार्ड के आधार पर Alok Puranik को जब ’व्यंग्य बाबा’ कहा जाता है तो वे इसका इतनी जोरदारी से खंडन करते हैं जितनी जोरदारी से तो पाकिस्तान भारत द्वारा की गई सर्जिकल स्ट्राइक की खबर का भी खंडन नहीं करता है।
मेरी समझ में कोई सर्वमान्य पीढीगत वर्गीकरण करना उतना ही मुश्किल काम है जितना किसी भी विधा के दस-पांच सबसे अच्छे लेखक तय करना।
नयी पीढ़ी-पुरानी पीढ़ी का वरिष्ठता के आधार पर गुणवत्ता तय करने का मसला भी खासा पेचीदा है। 2008 में एक फिल्म आयी थी-टशन। इसमें अक्षय कुमार और अनिल कपूर थे। अनिल कपूर को इस फिल्म के पोस्टर खास अहमियत न मिलने पर उन्होने कुछ वैसा भाव जताया था, जैसा हिंदी का आम लेखक लगभग रोज या कहें रोज चार बार जताता है-मेरी उपेक्षा हो रही है मैं तो अक्षय कुमार से बहुत सीनियर हूं। डिबेट उठी कि भाई पोस्टर पर बड़ा फोटो सीनियर अनिल कपूर का जाये या अक्षय कुमार का जाये। डिबेट में एक तर्क यह आया कि 2008 में पब्लिक अनिल कपूर का फोटो देखकर फिल्म देखने आ रही है या अक्षय कुमार का फोटो देखकर। इसका जवाब आसान था-अक्षय कुमार का फोटो देखकर आ रही है। यानी अनिल कपूर उपेक्षित महसूस न करें, बदलते हालात के हिसाब से समायोजित कर लें, या घर बैठें।
गुणवत्ता बहुत ही सब्जेक्टिव कंसेप्ट है आम तौर पर। किसी सर्वसम्मानित लेखक को कोई लेखक कूड़ा घोषित कर सकता है। गुणवत्ता का गणित सबका अलग है। गुणवत्ता का ताल्लुक काल से भी है। कालातीत गुणवत्ता बहुत ही दुर्लभ है, गालिब, मीर, शेक्सपियर, श्रीलाल शुक्ल इस तरह के लोगों को हासिल है। कोई सत्तर के दशक के दो साल सुपर स्टार रहा है, उन सालों को याद करके उसका दिल हुड़कता है और वह कहता है कि हम जब धर्मयुग में छपते थे, तो ये आज का ये व्यंग्यकार नेकर पहनकर अपनी मम्मी से दो रुपये मांगता था आइसक्रीम खाने के लिए। बदतमीज नवोदित जवाब देता है-धर्मयुग बंद हो गयी, आप न बंद हुए, यह दुर्भाग्य है हिंदी साहित्य और हिंदी व्यंग्य का। आप भी धर्मयुग की तरह बंद हो जाओ। एक कहता है कि मैं जो लिखता हूं वही व्यंग्य है। दूसरे कूड़ा कर रहे हैं। कुल मिलाकर एक कोलाहल सा मचा हुआ व्यंग्य के बाजार में वरिष्ठ उपेक्षित हैं, कनिष्ठ अपनी धुन में हैं। बवाल मारकाट सघन इसलिए दिख रही है कि सोशल मीडिया नामक भोंपू सबके पास हैं।
हम परमश्रेष्ठ हैं-ऐसा भाव बुजुर्गों में आता जाता है, क्योंकि इस भाव के अलावा उनके पास कम ही बचता है। नये इसकी अब परवाह बिलकुल नहीं कर रहे है क्योंकि मठाधीशी की दीवारें नये मीडिया ने हिला दी हैं।
तो नयी-पुरानी पीढी को लेखन में सक्रियता के आधार पर देखा जाये तो एक वर्गीकरण यह किया जा सकता है जिसमें लम्बे से समय से लिख रहे लोग पुरानी पीढी के और हाल में लिखना शुरु किये लोग नयी पीढी में शामिल माने जायेंगे। लेखक जिस पीढी में शामिल होना चाहते हैं वे उस लिहाज खुद तय कर सकते हैं कि वे लम्बे समय से लिख रहे हैं या हाल में लिखना शुरु किया।
पुरानी पीढी और नयी पीढी में अंतर्विरोध अलग-अलग लोगों को अलग-अलग दिखेंगे। मेरी समझ में लिखने के अनेक प्लेटफ़ार्म उपलब्ध होने के चलते नयी पीढी के लेखकों की संख्या बहुत तेजी से बढी है। अभिव्यक्ति की सहजता के चलते नित-नये लेखक सामने आ रहे हैं। चमत्कृत कर रहे हैं। रोज लिख रहे हैं। दिन में कई बार लिख रहे हैं। बिना किसी गुरु से गंडा बंधाये। उनके लेखन में तमाम अनगढपन है। कमियां हैं। त्रुटिया हैं। पुरानी पीढी के कुछ लोग इनमें से कुछ को पकड़कर सारे नये लेखन को खारिज कर रही है।
नयी-पीढी और पुरानी पीढी में अगर कोई अन्तर्विरोध है तो सिर्फ़ इतना कि कुछ नये लोगों को शिकायत है कि पुरानी पीढी उनका नोटिस नहीं लेती, उनको आशीर्वाद नहीं देती। वहीं पुरानी पीढी के कुछ लोगों से शिकायत है कि नये लोग उनके लेखन अपरिचित है, उनसे आशीर्वाद नहीं लेती, उनको महान लेखक नहीं मानती।
पुरानी पीढी और नयी पीढी में एक अंतर मठाधीशी के भाव में है। पुराने लोगों पर मठाधीशी के आरोप ज्यादा लगते हैं। नये लोग कचरा लेखन, अपरिपक्व लेखन , प्रसिद्ध होने की हड़बड़ी, छपने की लिप्सा से युक्त, मेहनत से जी चुराने वाले माने जाते हैं। देखा जाये तो पुरानी पीढी का नये पीढी के बारे में यह आरोप शाश्वत है। Harish Naval जी के एक संस्मरण के अनुसार रवीन्द्रनाथ त्यागी जी ने हरीश नवल जी और प्रेम जनमेजय जी की इस ’लेखन अलाली’ की पर नाराजगी व्यक्त की थी। अगर आज की पुरानी पीढी यही बात नये लेखकों के बारे में कहती है तो इसमें Gyan ज्ञानजी के शब्दों में पुरानी पीढी के लोग नयी पीढी के बारे में एक ही धारणा के आसपास ’कदमताल’ कर रहे हैं।
मठाधीशी की बात चलती है तो मठाधीश वही होगा जिसके पास कोई मठ हो। मठ का मतलब इनाम दिलाने की क्षमता रखने वाला, किसी के लेखन को चमकाने की क्षमता रखने वाला और लोगों को लिखना सिखाने और मार्गदर्शन करने की क्षमता रखने वाला। एक बार मठ बन जाता है तो फ़िर चलता रहता है। बकौल आलोक पुराणिक - मठाधीश बनने के दो ही उपाय हैं या तो वर्क या नेटवर्क। वर्क और नेटवर्क दोनों में विकट मेहनत लगती है। मठाधीशी आसान काम नहीं है। जो लोग किसी को मठाधीश मान कर उनकी निन्दा करते हैं वे उसकी मेहनत का असम्मान करते हैं। पसीने की बेइज्जती करते हैं। मठाधीश बनना आसान नहीं है, रोज बीस फोन सुनते होते हैं। खिचियापुर से कोई व्यंग्यकार मठाधीशजी को फोन करता है-भाई साहब खिचियापुर गोलगप्पा एसोसियेशन आपको सम्मानित करने की सोच रही है, और हां आपने मेरी किताब का रिव्यू तो आपने छपवाया नहीं है। ऐसे रोज बीस फोन झेलने ताकत वाला ही मठाधीशी कर सकता है। मठाधीशी सबकी नहीं चलती।
नयी पीढी के लोग तो ज्यादातर लिखत-पढत में लगे रहते हैं। पुरानी पीढी के लोगों से अक्सर उपदेश, आशीष और व्यंग्य के गर्त में जाने की बचाने की जिम्मेदारी की बात सुनते रहते हैं। उनकी देखा-देखी हाल ही में लिखना शुरु हुये लोग भी व्यंग्य की दशा पर आंसू बहाते हुये उसको बचाने के लिये हल्ला मचाने लगते हैं।गोया व्यंग्य न हुआ आई.सी.यू. में पड़ा कोई मरीज हो गया। जिसका तुरन्त आपरेशन न हुआ तो मर जायेगा। व्यंग्य के बारे में दिन-रात चिन्तित दीखना भी व्यंग्य के मठाधीशों में शामिल होने का नया रास्ता है
व्यंग्य में नयी पीढी और पुरानी पीढी में जितने अन्तर्विरोध नहीं हैं उससे ज्यादा अन्तर्विरोध पीढी के अन्दर के लोगों में हैं। नयी पीढी में लोगों में आमतौर पर कोई आपसी मतभेद नहीं हैं। नये लोग अच्छा-खराब, कूड़ा-बेहतरीन लिखते हुये पुरानी पीढी के ’आशीष-काउंटरी’ पर खड़ी है। जिसको आशीष मिल जाता है वो निहाल हो जाता है। ’आशीष वंचित’ थोड़ा दुखी हो जाता है। कभी खिलाफ़ भी हो जाता है। पुरानी पीढी के लोगों के आशीष पैटर्न में इधर विकट बदलाव आया है। वह अपने आशीर्वाद की ’रिस्क एनालिसिस’ करवाने लगी है। आशीर्वाद का रिटर्न कैलकुलेशन करके आशीर्वाद देती है।
पुरानी पीढी के लोगों में आपस के अन्तर्विरोध ज्यादा हैं। हर पुराने लेखक के अपनी उपेक्षा के घाव हैं। किसी को शिकायत है कि दूसरों ने सब इनामों पर कब्जा कर लिया। कोई किसी के उपन्यास फ़ॉंट की छोटेपन के कारण नहीं पढता। कोई किसी के पुराने पाप गिनवाते हुये हुंकारी भरते हुये ’अदालत में नोट’ करवा रहा है। व्यंग्य के स्वर्णिम अतीत के कूड़े के साथ सेल्फ़ी लिये दीखते हैं कई बुजुर्गवार। पुरानी पीढी के लोग अपनी पीढी के लेखन के प्रति काम भर के अनुदार हैं।
नयी पीढी और पुरानी पीढी में तकनीक के प्रयोग का अन्तर भी है। नये लोग नये औजार प्रयोग कर रहे हैं। पुराने लोग कागज-कलम-दवात वाले हैं। इसी चक्कर में पुराने लोगों का तमाम लेखन नये लोगों ने पढा नहीं। पुराने लोग नयों का पढते नहीं।
समय के साथ नया पुराना हो जाता है और अगर अच्छा न हुआ तो नजरों से ओझल भी। पुराने कई अच्छे , बेहतरीन लेखक होंगे जिनका अब नाम ही सुनाई देता है। काम दिखाई नहीं देता। या तो वह इतना बेहतर नहीं रहा होगा कि आगे अपने आप पहुंचे या फ़िर इस तरह रखा नहीं गया कि आगे भी पहुंचे।
पीढियों के चक्कर और अन्तर्विरोध छोड़कर हम लोग खुले मन से खूब नये अनुभव ग्रहण करें।, खूब पढे। खूब लिखें। अच्छे को मुक्त मन से सराहें और आगे बढें। जो रचेगा वही बचेगा। यह याद रखें और इस पर अमल करें। काम ही सत्य है बाकी सब फ़र्जी। आप मानो ठीक न मानो तो आपकी मर्जी।
-अनूप शुक्ल
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