अमेरिका के किस्से लिखते हुये काफ़ी मामला इधर-उधर हो गया। किसी बाद वाले किस्से को पहले सुना दिया गया। कोई पहले वाला बाद के लिये रख लिया गया। किसी घटना को आउट आफ़ टर्न प्रोमोशन दे दिया गया। किसी को टरका दिया गया- ’जाओ नहीं लिखते तुम्हारे बारे में क्या कल्लोगे? जहां-जिससे मन आये करो जाकर शिकायत।’
कुछ किस्से ऐसे भी हैं जिसको तसल्ली से लिखने की बात सोचकर स्थगित कर दिया गया। वीआईपी ट्रीटमेंट देने के चक्कर में इनका नम्बर टलता गया। ऐसे ही किस्सों में एक है –किस्सा-ए-गोल्डन-गेटब्रिज। गोल्डन गेट पुल सैनफ़्रांसिस्को और मैरीन काउंटी के बीच बना हुआ पुल है। गोल्डन गेट नाम पड़ने के पीछे का किस्सा यह कि सैनफ़्रासिस्को प्रायदीप और मैरीन काउंटी के प्रायदीप को जोड़ने वाला पानी का हिस्सा गोल्डेन गेट जलडमरूमध्य (गोल्डन गेट स्ट्रेट) कहलाता है। इसी गोल्डन गेट जलडमरूमध्य के ऊपर बने होने के कारण यह पुल गोल्डन गेट कहलाता है।
बहरहाल जब पहुंचे सैनफ़्रांसिस्को तो गोल्डन गेट ब्रिज देखना पहली प्राथमिकता में था। पहुंचने के अलगे ही दिन सुबह ही निकल लिये पुल देखने। बेटे के घर से कुछ ही मिनट का रास्ता था। यही कोई पच्चीस-तीस मिनट। पार्किंग भी आराम से मिल गयी। अमेरिका में सड़क पर फ़्री की पार्किंग मिल जाना भी एक बड़ा सुकूनदेह माना जाता है। पार्किंग मिलना मतलब जाड़े में बिस्तर में सुबह-सुबह चाय मिलना! कहने को तो कह सकते थे कि पार्किंग मिलना मतलब जन्नत मिलना लेकिन जाड़े में रजाई छोड़कर जन्नत जाने में वो मजा कहां जो रजाई में बैठे-बैठे चाय मिल जाने में है। पार्किंग से पैदल दूरी पर ही पुल था। पूरा पुल कोहरे में डूबा हुआ था। ऐसे लग रहा था मानो कोहरे की रजाई ओढकर पुल ठंड से मुकाबला कर रहा हो। मतलब कि पुल तक को पता है कि कोहरे में सर्दी कम लगती है। वाकई स्मार्ट है पुल।
पुल के आसपास लोग अलग-अलग मुद्रा में टहल रहे थे। कोई फ़ोटो खिंचा रहा था। कोई बतिया रहा था। बच्चे खेल रहे थे। एक महिला बहुत कम कपड़ों में सड़क पर भागती जाती दिखी। जॉगिग कर रही थी, आसपास गुजरते लोगों को जगा रही थी। उसके अलावा भी तमाम लोग सड़क पर बहुत मन लगाकर दौड़ते दिखे। सांस ऐसे ले रहे थे जैसे दुनिया की सारी आक्सीजन बस उनके लिये ही सुरक्षित है।
हम सड़क से गुजर रहे थे तो कुछ वालंटियर हमको किनारे करते मिले। पता चला कोई मैराथन रेस हो रही थी। रेस में शामिल लोगों को रास्ता दिखाने के लिये वे वालंटियर वहां खड़े थे। कुछ के हाथ में पानी भी था। कुछ बुजुर्ग वालंटियर भी थे।
पुल के पास तमाम लोग अपनी साइकिलों में भी आये थे। साइकिल चलाते हुये पसीना बहा रहे थे। खाया हुआ पचा रहे थे।
गोल्डन गेट पुल बहुत देर तक कोहरे में डूबा रहा। निकल के ही न दिया। नीचे समुद्र , ऊपर आसमान और दोनों के बीच छाया कोहरा। पानी, कोहरे, आसमान की तिकड़ी ने पुल को अपने बीच ऐसे छिपा लिया जैसे चम्बल के बीहड़ डकैतों को अपने में छिपा लेते हैं।
हमको लगा कि अब गोल्डन गेट पुल न देख पायेंगे। फ़िर से आना पड़ेगा। फ़िर से आने में कोई बुराई नहीं लेकिन यार पहली बार ही न दिखे तो मजा नहीं आता न ! पुल के पास आकर भी बिना कायदे से देखे वापस लौट जाना तो ऐसा ही हुआ जैसे चुनाव में जीता सबसे बड़ा दल सरकार बनाने से रह जाये।
हम कुछ समझ नहीं आया। हम बिना उदास हुये आसपास का नजारा देखते थे। हमारे अलावा भी तमाम लोग गोल्डन गेट पुल देखने आये थे। हम उनको भी देखते रहे। एक के साथ एक फ़्री वाले अन्दाज में। फ़ोटो लिये कई। पूरे परिवार के फ़ोटो लेने के लिये किसी से सहायता लेते गये।
घूमने जाने पर सबसे बड़ी कमी फ़ोटोग्राफ़र की खलती है। लगता है कि कोई फ़ोटोग्राफ़र भी साथ हो जो सबके फ़ोटो खींचता रहे। ऐसी फ़ोटो जिसमें सब आ जायें। कोई छूटे न। अब किसी से फ़ोटो खींचने के लिये तो कहने में संकोच भी होता है। कैसे कहें? इस झिझक का इलाज भी निकला। होता यह है कि ऐसी जगहों पर आपके अलावा भी और भी लोग होते हैं जिनकी तमन्ना होती है कि उनकी कोई फ़ोटो खींच दे। ऐसे लोग आपके अगल-बगल ही होते हैं। आप अपनी तरफ़ से उनकी फ़ोटो खींचने के लिये प्रस्ताव दे दीजिये। उनकी फ़ोटो खैंचकर धन्यवाद समेटते हुये अपनी भी फ़ोटो खींचने के लिये उनसे अनुरोध कर दीजिये। फ़ोटो खिंचाते हुये मुस्कराते हुये धन्यवाद बोलते हुये खुशी-खुशी आगे बढ जाइये। इसी फ़ार्मूले का उपयोग करते हुये हमने तमाम फ़ेमिली फ़ोटो खिंचवाये।
गोल्डन गेट ब्रिज बनने की कहानी भी रोचक है। पुल बनने के पहले लोग सैनफ़्रांसिस्को से मैरीन काउंटी फ़ेरी से आते-जाते थे। 20 मिनट करीब लगते थे पार होने में। सैंनफ़्रांसिस्को अकेला सबसे बड़ा शहर था जहां शहर पहुंचने के लिये फ़ेरी चलती थी। लोगों ने पुल बनाने की सोची। बहुत कठिन लगा। कारण यह कि एक तो सैनफ़्रांसिस्को और मैरीन काऊंटी के बीच पानी का बहाव बहुत था। पानी की गहराई भी कहीं-कहीं 100 मीटर से ऊपर थी। इसके अलावा बहुत तेज चलती हवायें और भयंकर कोहरे के कारण भी पुल बनना कठिन लगा।
लेकिन इंसान की फ़ितरत। कठिन काम को भी अंजाम करने के रास्ते खोजती है। 1916 में पुल बनाने का विचार बना। लोगों से आइडिये मांगे गये। 1917 में जोजेफ़ स्ट्रास (Joseph Strauss )ने पुल डिजाइन किया। कीमत अनुमानित हुयी 17 मिलियन डालर ! मतलब आज के 121 करोड़ रुपये। लोगों को पुल की डिजाइन बढिया नहीं लगी। कहा गया – ’जरा बढिया बनाओ। किसी एक्सपर्ट से सलाह लो।’
जोजेफ़ स्ट्रास ने एक्स्पर्ट से सलाह ली। कई एक्सपर्ट खासकर इर्विंग मारो (Irving Morrow) फ़िर से डिजाइन किया पुल। सस्पेंशन ब्रिज। इसको अंतिम रूप दिया Leon Moisseiff ने जो कि सस्पेंशन ब्रिज उस्ताद माने जाते थे। सस्पेंशन ब्रिज में लम्बे टावर होते हैं जिनमें रस्सियों (लोहे की) पर पुल लटकता है। पुल की अनुमानित कीमत बढकर हो गयी -215 करोड़ ! अब इत्ता पैसा कहां से आये। दोनों शहर के लोगों ने तय किया कि सरकारी बांड आम जनता को बेचकर पैसा जुटाया जाये। लेकिन इसे सुरक्षित नहीं माना गया। आखिर में सैनफ़्रांसिस्को की बैंक ऑफ़ अमेरिका ने सारे बांड खरीदकर पुल बनाने के लिये धन मुहैया कराया।
5 जनवरी 1933 में बनना शुरु हुआ पुल अप्रैल 1937 में बन गया। लोग आने-जाने लगे। सबसे पहले पचास सेंट लगते थे पुल पार करने के। अब 8.35 डालर ( करीब 600 रुपये ) लगते हैं अगर फ़ास्ट्रैक से भुगतान (जिसमें पैसे अपने आप कटते हैं) करते हैं तो 7.35 (करीब 454 रुपये)।
पुल जब बना था तो यह दुनिया का सबसे लम्बा और ऊंचा लटकौआ पुल था। 1280 मीटर लम्बा, 227 मीटर ऊंचा। अब इससे लम्बे पुल भी बन गये हैं लेकिन इस पुल अभी भी अपने में अनूठा है। पुल की एक खाहियत इसके दोनों तरफ़ झूले की तरह इधर-उधर हो जाना भी है। बहुत तेज हवायें चलती हैं यहां। ताकतवर हवाओं का मुकाबला करना पुल के लिये मुश्किल हो सकता है। इसलिये पुल इस तरह बना है कि यह तेज हवा में दोनों तरफ़ आठ मीटर तक झूला जैसा झूल सकता है।
कभी दुनिया का सबसे पुल चार साल में बना देखकर अपने शहर दो फ़्लाईओवर याद आ गये जो एक दशक से भी अधिक समय से अपने पूरे होने के इंतजार में हैं।
इतनी बीहड़ परिस्थितियों में पुल के निर्माण की कहानी पढकर फ़िर से यही लगा -’कोई काम नहीं है मुश्किल , जब किया इरादा पक्का।’
दुनिया की हर जगर-मगर के पीछे तमाम अंधेरी गाथायें भी जुड़ी होती हैं। ऊपर से दिखें भले ने लेकिन रोशनी के पार देखने में दिखती हैं। इस पुल को बनाने का पूरा श्रेय मिला जोजेफ़ स्ट्रास को। भौकाली रहे होंने जोजेफ़ साहब। जो हुआ उसका हल्ला मचाकर खुद का किया बता दिया। लेकिन बाद में पता चला कि उनके अलावा भी कई लोगों ने सबसे महत्वपूर्ण काम किये इस पुल के निर्माण में। ऐसे ही एक थे ग्रीक के गणितज्ञ विद्वान एलिस( Ellis)। एक समय वो युनिवर्सिटी में बिना डिग्री के प्रोफ़ेसर थे। बाद में सिविल इंजीनियरिंग की डिग्री हासिल की। पुल डिजाइन के एक्सपर्ट हुये। खूब किताबें लिखीं।
प्रोफ़ेसर एलिस ने गोल्डन ग्रेट ब्रिज से जुड़ा बहुत सारा काम लिखाई-पढाई-डिजाइनिंग का काम किया। लेकिन उनके जीते जी उनको कोई श्रेय न मिला। बल्कि 1931 में जोजेफ़ स्ट्रास ने एलिस को यह कहते हुये निकाल दिया कि वो Leon Moisseiff को टेलीग्राम भेजने में बहुत पैसा खर्च करता है। प्रोफ़ेसर एलिस पुल से भावनात्मक रूप से इतना जुड़ गये थे कि निकाले जाने पर अवसाद में चले गये। कोई और काम भी नहीं मिला। वे मुफ़्त में पुल से जुड़ा काम करते रहे।
पुल बनने के बाद जोजेफ़ की वाहवाही हुई। सारा श्रेय उसने लूट लिया। लेकिन बाद में असलियत भी खुली कि अगले ने अपने साथियों का काम भी अपने नाम चढा लिया है। असलियत खुलने पर दोबारा रिपोर्ट बनाई गयी 2007 में। लोगों को उनके काम का श्रेय दिया गया उनमें प्रोफ़ेसर एलिस भी थे जिनको पुल डिजाइनिंग का श्रेय मिला। लेकिन जिन्दगी तो बेचारे की अवसाद और गुमनामी में निकल गई।
गोल्डन गेट ब्रिज बहुत खूबसूरत दिखता है। लेकिन इस खूबसूरत पुल से कूद कर तमाम लोग जीवन भी खत्म कर लेते हैं। अब तक करीब1600 लोग पुल से कूदकर जान दे चुके हैं। पता नहीं कैसे लोग भूल जाते हैं कि जीवन अपने आप में अमूल्य है।
गोल्डन गेट ब्रिज को देखने के बाद बाकी का सैनफ़्रांसिस्को देखने के लिये आगे बढे।
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