हमने अमेरिका जाने का प्रोगाम झटके में बनाया था। इधर वीजा हुआ , उधर टिकट खरीद लिया। २० दिन बाद का। कोई तैयारी नहीं। अनुमति वगैरह के लफ़ड़े तो थे ही इसके अलावा भी तमाम तैयारी करनी थी। दिन कम। सबसे बड़ा काम जो बचा था वह लोगों को बताने का था –’अमेरिका जा रहे हैं। हल्के में मत लेना।’
लोगों को बताने का काम शुरु किया तो एक दिन में ही सबको पता चल गया। कोई और बचा ही नहीं बताने को। लेकिन हमको लगे कि अभी सबको बताया नहीं। इस चक्कर में कुछ लोगों को कई-कई बार बताया। लोग झेल गये। इसके बाद लोगों ने भी कायदे से बदला चुकाया। हम किसी को काम बताते अगला पूछता –’साहब, अमेरिका कब जा रहे हैं?’ किसी को पूछते –’काम कब तक हो जायेगा?’ अगला कहता –’आपके अमेरिका जाने/लौटने से पहले हो जायेगा।’ हाल यह कि हमारी अमेरिका यात्रा ग्रीन विच मीन टाइम हो गयी। कोई काम या तो हमारे अमेरिका जाने के पहले पूरा हो जायेगा या वहां से वापस लौटने पर।
बात यहीं तक रहती तो ठीक था। बाद में हाल यह हुआ कि हम किसी की गलती पर उसको हड़काने की सोचते तो अगला बिना हड़के हमसे पूछ लेता –’साहब, अमेरिका कब जा रहे हैं?’ हमारे गुस्से की मिसाइल पर को अपने सवाल की एंटी निसाइल से ध्वस्त कर देता। हाल यह हुआ कि हर आने-जाने को देखते ही हम डर लगता कि कहीं यह पूछ न ले –’साहब, अमेरिका कब जा रहे हैं।’
अमेरिका यात्रा हमारे लिये बवाल हो गयी।
बहरहाल, जब प्लान बन गया तो तैयारी भी हो ही गयी। लेकिन इस बीच लोगों ने डराया बहुत- ’बहुत सर्दी पड़ेगी इस मौसम में वहां। यह ठीक मौसम नहीं है।’ लेकिन डेढ लाख की टिकट खरीद कर बैठा इन्सान इन बातों से चाहने के बावजूद भी विचलित होने की विलासिता नहीं कर सकता।
लेकिन मेहरबानी रही सूरज भाई कि हम जहां-जहां रहे वहां-वहां रोशनी और गर्मी का पक्का जुगाड़ करते रहे। हवाओं ने ठंड फ़ैलाने की कोशिश की तो हडका दिया –’औकात में रहो।’ कुल मिलाकर मौसम आशिकाना ही रहा।’ जलवे का हिसाब यह समझा जाये कि हमारे न्यूयार्क छोड़ते ही मौसम ठंडा हो गया। बर्फ़ गिरने लगी।
हां तो बात फ़िर न्यूयार्क की। दो दिन देखने के बाद भी बहुत कुछ बचा था देखने को। हम निकल लिये। घरैतिन आराम के मूड में थीं उस दिन। हमको अकेले जाने की अनुमति मिल गयी। जाओ देख लो जी भर के। कोई अरमान बाकी न रहें। हम भी निकल्लिये। पहुंच गये न्यूयार्क।
स्टेशन से ही हमने फ़ोनियाया अभिषेक ओझा को। बोले –’बस अभी पहुंचते न्यूयार्क। मिलते हैं।’ बलियाटिक अभिषेक के गणित के किस्से और पटनिहा प्यार के किस्सों के हम मुरीद हैं। कानपुर आई.आई.टी. से बीटेक करने के बाद कुछ दिन एक बड़ी कम्पनी में काम किया। इसके बाद अपने दोस्तों के साथ खुद का काम शुरु किया।
अभिषेक के आने तक अपन ने बाकी बचा हुआ न्यूयार्क देख डाला। फ़ोटो खैंच डालीं। बुलन्द इमारतों निहार डाला। एकाध से कहा भी – ’कानपुर में होती तो तुम्हारी दीवारों पर पीक-श्रंगार भी हुआ होता। यहां तुम खड़ी हो अकेली खूबसूरती समेटे।’ इमारतों की दीवारें कुछ बोलीं नहीं। लगता है यहां की दीवारों के कान नहीं होते या वे कुछ ऊंचा सुनती हैं।
कुछ देर पैदल टहलने के बाद अपन ने बस पकड़ी। पैसा दिये थे तो वसूल भी लें वाली गरज भी हावी थी। राकफ़ेलर सेंटर पर उतर गये ।
राकफ़ेलर सेंटर में न्यूयार्क की 48 वीं गली से 51 वीं गली के बीच बने कई कामर्शियल इमारते हैं। सन 1950 से 1961 के मंदी के दौर में बनी ये इमारतें अपने समय की सबसे बड़ी परियोजना थी। इमारतें अपनी कला, मजबूत नींव और क्रिसमस ट्री के लिये प्रसिद्ध हैं।
राकफ़ेलर सेंटर पर पहुंचे तो देखा कि खूब ऊंचा ढांचा बन रहा था जैसे कोई शादी का बड़ा सा मंडप बन रहा हो। लेकिन उंचाई देखकर लगा कि शादी का मंडप इत्ता ऊंचा नहीं होता। यह तो किसी बिजलीघर का व्यायलर हाउस जैसा बन रहा। खुटुर-खुटुर जारी थी। क्रेन भी लगी थी। पता चला कि ऊंचा क्रिसमस ट्री बन रहा है।
वहीं सेंटर पर ही बर्फ़ का स्केटिंग रिंग बना था। लोग स्केटिंग कर रहे थे। काश हम भी कर पाते। स्केटिंग भी साइकिल सीखने जैसा ही जटिल काम है। शुरु में सीख ले तो ठीक वर्ना फ़िर न हो पाता। हमारे दोस्त सुरेन्द्र सिंह सावन्त माउथ आर्गन बजाते हुये स्केटिंग करते थे। उनका चेहरा और याद बिना वीजा, पासपोर्ट और टिकट के सामने आकर खड़ी हो गयी। देरतक खड़ी रही फ़िर अभिषेक आ गये तो याद वापस चली गयी।
राकेफ़ेलर सेंटर पर काफ़ी देर खड़े रहने के बतियाने के बाद हम सड़क पर टहलने निकले। एक आदमी स्टील कलर की कपड़ों और पेंट में मूर्ति की तरह खड़ा था। पैसे लेकर साथ में फ़ोटो खिंचाने की अनुमति दे रहा था। हमने भी खिंचाई। सोचा भी कि अमेरिका में मांगने वालों के भी जलवे हैं।
एक बड़ी इमारत के पास कुछ पुलिस के सिपाही खड़े थे। स्मार्ट, हीरो टाइप। उनके पास अपनी पुलिस की तरह डंडा नहीं था लिहाजा चेहरे से रुआब और आतंक वाला भाव भी नदारत। डंडा अपनी पुलिस की ताकत है। उसके पास फ़टकते हुये भी आम आदमी डरता है। डंडा-विहीन अमेरिका पुलिस का सिपाही माई डियर टाइप लग रहा था। उसका ’माईडियरपना’ तब और बढ गया जब उसने साथ खड़े होकर मुस्कराते हुये फ़ोटो खिंचाई।
पास ही ट्रम्प टावर है। उसे भी देखने गये। ट्रम्प टावर का ऊपरी मंजिल पर ट्रम्प का एक घर है। बाकी में होटल, रेस्तरां। अन्दर जाने का कोई टिकट नहीं सो हम घुस गये। नीचे काउंटर पर ही ट्रम्प और उनसे जुड़ी चीजें बिक रही थीं। कैप, टी-शर्ट, बैज आदि। अमेरिका के लोग बेंचना अच्छी तरह से जानते हैं।
ऊपर पहुंचकर अपन ने लाटे टी पी। कुछ देर आते-जाते लोगों को ताका। कुछ को नहीं ताक पाये तो बाकी लोगों के लिये छोड़ दिया। रेस्टरूम का उपयोग किया। कोई कहे तो बातचीत में शेखी मार सकते हैं-’ हमको हल्के में न लेना, ट्रम्प टावर में निपट के आये हैं।’
ट्रम्प टावर पर ट्रम्प का घर होने के बावजूद पुलिस बहुत कम थी। दस-बारह लोग। टावर के बाहर ही एक आदमी ट्रम्प की शक्ल बनाये टहल रहा था। उनकी ही तरह हरकतें करता। उंगली उठाता, मुंह बनाता। लोग उसको देखते मजे ले रहे थे जैसे दुनिया ट्रम्प की अदाओं के मजे लेती है। ट्रम्प का हमशक्ल भी लोगों की प्रतिक्रियाओं से बेखबर अपनी अदायें जारी रखे था –ट्रम्प की तरह। ’आई डोंट केयर’ के भाव का झंडा अपने चेहरे पर फ़हराते हुये।
ट्रम्प टावर को देखने के बाद हम बाकी बचा हुआ न्यूयार्क देखने के लिये बढ गये।
https://www.facebook.com/anup.shukla.14/posts/10218266455826273
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