Thursday, November 14, 2024

शरद जोशी के पंच-21

 1. हमारा राष्ट्रीय स्वभाव है कि जब हम एक बार किसी को अपना शत्रु मान लेते हैं , तो फिर उससे लड़ते नहीं। समझौते का प्रयास करते हैं। 

2. यदि सरकार अपनी बुराई स्वयं न करे, तो लोग उसकी बुराई करने लगते हैं।

3. अख़बार की खबरें पढ़ना बावन पत्तों को बार-बार फेंटकर देखने की तरह है। हर पत्ता एक खबर है। उनमें से ही जैसे पत्ते निकल आएँ, वह आपका आज का समाचार से भरा अख़बार है। उन्हीं पत्तों की नई सजावट। चूड़ी के टुकड़ों से सजा एक नया फूल। आपके देश की ताज़ा तस्वीर , जो पुरानी तस्वीर से रंग चुराकर बनाई गई है। 

4. जब भी साजिश होती है, भांडे फूटते हैं, पत्रकार का मुँह बंद करने की उचित व्यवस्था की जाती है। यों मान जाए तो ठीक है, नहीं तो हाथ-पैर तोड़ देने से लाश ठिकाने लगा देने तक का सारा इंतज़ाम करना वे जानते हैं। 

5. सरकारें जो भी हों, मैं वित्तमंत्रियों से सदा प्रभावित रहा हूँ। उसे मैंने सत्ता के रहस्य-पुरुष की तरह महसूस किया है। वह कुछ करेगा। क्या करेगा , कह नहीं सकते मगर कुछ करेगा। हो सकता है, ग़लत ही करे, मगर किए बिना नहीं रहेगा। 

6. मुझे लगता है, कई बार ऐसे क्षण आए होंगे , जब क्रांति हो सकती थी, पर इसलिए नहीं हुई कि तभी वित्तमंत्री ने आलू-प्याज़ के भाव बढ़ा दिए और लोग बजाए क्रांति के आलू-प्याज़ पर सोचने लगे। इस तरह देखा जाए तो इतिहास-पुरुष होते हैं वित्त-मंत्री।

7.  आर्थिक क्षेत्र की सारी सारी गुत्थी इस दर्शन से सुलझ सकती है कि जो सफ़ेद कमाई करते हैं, वे टैक्स भरेंगे और जो काली कमाई करते हैं , सरकार उन्हें छूट देगी, क्योंकि सरकार काली कमाई से अपना कोई रिश्ता नहीं रखना चाहती। काली कमाई की सहायता से राजनीतिक पार्टी चल सकती है, मगर सरकार नहीं। 

8. पूरे देश में जो कुकरमुत्तों की तरह तथाकथित लघु उद्योग बने हैं , उनमें अधिकांश को न माल बनाना आता है और न बेचना आता है। उन्हें एक्साइज बचाना आता है। टैक्स न चुकाना आता है। इस क्षेत्र में कूद पड़ने की उनकी प्रेरणा भी यही रही है। यदि उत्पाद शुक्ल देना पड़े तो उन्हें स्वयं को बीमार उद्योग घोषित करते देर नहीं लगती।

9. आदिवासी की ओर देखो तो संस्कृति कम और ग़रीबी अधिक नज़र आती है। वे ज्ञानी-ध्यानी सचमुच बड़े बेरहम हैं, जो आदिवासियों में संस्कृति के दर्शन किया करते हैं। उनकी हालत देख , उनके साथ  बजाय नाचने के, जेब का पैसा बाँटने की इच्छा होती है। 

10. आम भारतीय नागरिक की ज़िंदगी ही धक्के खाने की है। अधिकांश का पूरा जीवन धक्के खाते बीत जाता है। स्कूल में एडमिशन के लिए धक्के खा रहे हैं, जवानी में नौकरी के लिए और बुढ़ापे में पेंशन के लिए। बम्बई का आदमी रोज लोकल ट्रेन में दोहरा धक्का सहन करता है। सामने से उतरने वाले धक्का दे रहे हैं, पीछे से चढ़ने वाले। पर लाइन लगवाने वाली सभ्यता ,पता नहीं , रेल के डिब्बों के दरवाज़े पर कहाँ ग़ायब हो जाती है। 

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