Monday, March 06, 2017

झाड़े रहो कलट्टरगंज -4

इसके पहले का किस्सा बांचने के लिये इधर आयें https://www.facebook.com/anup.shukla.14/posts/10210716067631287
एक तरफ़ जहां सिंघाड़े का सौदा करने वाले जमा थे वहीं एक जगह कुछ औरतें सिंघाड़े बीनने पछोरने का काम कर रही थीं। अलग-अलग साइज के सिंघाडे अलग कर रही थीं। सूप और छलनी लिये काम में चुपचाप जुटी हुईं थीं। उनमें से एक मुझे फ़ोटो खींचते देखकर पास आ खड़ी हुई।
पता चला कि उस महिला का नाम परदेशन है। वह शायद उन कामगार महिलाओं की इंचार्ज थी। बात करने लगी। उसकी बातचीत से पता चला कि वर्षों पहले वह कानपुर आई थी। तबसे यहां काम करती है। पास में ही झोपड़िया है। दिन भर काम करने के बाद शाम को थककर खाना खाकर सो जाती है।
वहीं पर अंदर एक आदमी खाना खा रहा था। बोरों पर बैठे लोगों ने उस आदमी के बारे में मजाकिया लहजे में कुछ कहा। परदेशन से उनको डपट दिया। उसके बारे में कुछ मजाक किया तो परदेशन ने उसको मारने के लिये हाथ उठाया लेकिन मार नहीं। हंसते हुये घुड़ककर छोड़ दिया। मसाला रंगे , धिसे दांत चियारते हुये वह आदमी हल्की हंसी हंसने लगा।
परदेशन मेहनती है। बातचीत और हावभाव से दबंग टाइप। उसके चेहरे पर निराला जी की वह तोड़ती पत्थर का दैन्य नहीं बल्कि एक मेहनती कामगार का आत्मविश्वास है।
फ़ोटो खिचाने की बात पर कई फ़ोटो खिंचाये परदेशन ने। हमने खींचकर दिखाये तो खुश हुई। फ़िर एक फ़ोटो सिंघाड़े के पास बैठकर उस ढेर पर हाथ फ़िराते हुये खिंचाया। देखकर खुश हुई। हमने वादा किया है कि उसको ये फ़ोटो बनवाकर देंगे। अभी इस फ़ोटो को देखते हुये उस वादे की याद आई। उसकी फ़ोटो बनवाकर देनी है।
पास में ही बोरे भरने के बाद सिलने और उस पर नीली/हरी स्याही की सील टाइप लगाने का काम हो रहा था। मुंह भरने के बाद भरे हुये बोरे इस तरह चुपचाप खड़े हो गये थे जैसे किसी तेज-तर्रात बाबू की जेब गरम करने के बाद वह आज्ञाकारी मुद्रा अपना लेता है।
सामने से पल्लेदार एक गोदाम से बोरे निकालते हुये ला रहा था। सिंघाड़े के ढेर में पलटकर फ़िर वापस जा रहा था। ढेर के ऊपर खड़ा दूसरा साथी बोरा पलटवाने में उसका सहयोग कर रहा था। साथी हाथ बढाना मुद्रा में।
पता चला कि साल में करीब आठ महीने काम रहता है। इसके बाद काम कम हो जाता है। जब यह फ़ोटो लिये तब शिवरात्रि आने वाली थी इसीलिये भीड़ जैसी थी वहां पर। दीगर दिनों में कम लोग रहते हैं वहां।
लोगों ने हमको कैमरा लादे देखा तो पूछा भी कि क्या मैं प्रेस से हूं। कौन अखबार में काम करता हूं। हमने जब बताया कि हम ऐसे ही निठल्ले टहल रहे हैं तो उनको काफ़ी देर लगी यह बात मानने में।
लोगों से बतियाये और फ़िर वापस लौटकर आये। आज इसे पोस्ट करते हुये एक बार फ़िर से कह रहे हैं -झाड़े रहो कलट्टरगंज।

https://www.facebook.com/anup.shukla.14/posts/10210735100907107

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