Sunday, September 29, 2024

शरद जोशी के पंच -6


1. प्रेमियों की मुलाक़ातें छोटी और प्रायः बेमानी होती हैं, पर उसकी तैयारी में मुँह धोने से सेंट छिड़कने तक जो-जो किया जाता है,वह अधिक समय लेता है।
2. ऊँची मुलाक़ातें प्रायः अपने देश में खुद को ऊपर उठाने के लिए होती हैं। शांति चाहने वाले तो टेलीफोन पर दस मिनट बात कर किसी घटाने वाले अनर्थ को रोक सकते हैं। पर उसमें तमाशा कहाँ है? उसमें वाक्यों का कूँगफू और कराटे देखने को नहीं मिलेगा।
3. (कमेटी के) सदस्य दो तरह के होते हैं। एक तो वे , जो पहले से ही अपराधी, चोर, भ्रष्ट आदि होते हैं और फिर सदस्य बनते हैं। दूसरे वे, जो कमेटी के सदस्य बनने के बाद यह सब होते हैं।
4. (पत्रकारों के) प्रश्नोत्तर की पूरी शैली लोकसभा और विधानसभा की प्रश्नोत्तर शैली से प्रभावित है। वहाँ सरकार ढाल हाथ में ले सामने से आते तीरों का उत्तर देती है अर्थात बचाव करती है। सवालों में विरोध से लेकर चमचागीरी तक सब नज़र आती है। जवाबों में मूर्खता से लेकर ग़ैर-ज़िम्मेदारी तक टपकता है।
5. गरीब और मध्यमवर्गीय परिवार के बच्चों के सपनों में सुंदर खिलौने पारियाँ लेकर देती हैं, उनके बाप लाकर नहीं देते। दे नही सकते,क्योंकि खिलौने उनकी औक़ात से भारी होते हैं।
6. हमारे देश के नेता बच्चों के गाल थपथपाते रहते हैं और बड़ी उदारता से उपयोग हो चुके हार भी बच्चों को देते हैं। वे चाहते हैं कि बच्चे उनकी जय बोलें, नारे लगाएँ,उनकी अपील पर रैलियाँ निकालें, पर आज़ादी के इतने बरसों बाद वे हार भारतीय बच्चे को एक सस्ते,सुंदर खिलौने की गारंटी नही दे सकते।
7. इस देश में राष्ट्रीय, अंतर्राष्ट्रीय कुछ भी हो,जब तक वह विधानसभा, म्यूनिसिपल्टी और गाँव पंचायत के स्तर पर न धमीचा जायँ, जब तक वह इन धोबी घाटों पर न धुले,उसके राष्ट्रीय या अंतर्राष्ट्रीय होने का कोई मतलब नहीं। यथार्थ हो या आदर्श,वह भोगा तो इसी स्तर पर जाना है।
8. यदि कौरव और पांडव अपनी ज़मीन का मामला निपटाने के लिए कुरुक्षेत्र में महाभारत करने की बजाय वकीलों की मदद से मामला निपटाने का प्रयत्न करते तो आज इतने वर्षों बाद भी उनका केस नही निपटता और आज भी उनके वंशज किसी जिला कोर्ट के बाहर बेंच पर बैठे नज़र आते।
9.भारतीय न्यायालयों का सौभाग्य है कि अधिसंख्य भारतवासी मानते हैं कि पुलिस में रपट लिखवाना स्वयं अपनी दुर्दशा करना है और कोर्ट में ज़िंदगी बरबाद करना है। यदि उन्हें न्याय और पुलिस पर पूरा विश्वास होता तब सोचिए कि आज मुक़दमों की संख्या कितनी होती?
10. भारत में न्याय-प्राप्ति का प्रयत्न करने का अर्थ अपराध का लाभ उठाने की अवधि को बढ़ाना। अधिसंख्य मामलों में अदालतों का यही योगदान है।

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