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प्रभुजी, तुम चन्दन हम पानी
By फ़ुरसतिया on September 1, 2007
कल रात रेडियो पर गाना सुन रहे थे।
गाना जब हम सुनते हैं तो याद नहीं करते। हम एक समय में एक ही काम करने में यकीन करते हैं। जो करो सो कायदे से करो। हम ज्ञानजी की तरह नहीं एक पोस्ट में कहें आ जाओ और दूसरी में कहें -क्या सच में आओगे? आ ही जाओगे? फिर हम क्या करेंगे! एक दिन गुणगान दूसरे दिन हलकान। ऐसे कैसे चलेगा भगवान!
बहरहाल, गाने के बोल शायद कुछ यों थे- मैं धरा की धूल हूं तुम गगन के चन्द्रमा।
गाने के बोल में कशिश थी। हमारा रेडियो पुराने जमाने का है इसलिये टेड़ा-मेढ़ा नहीं हुआ। लेकिन पता चल रहा था कि गायिका/नायिका के गले में लोच भी था।
आवाज में मिठास थी। उतार-चढ़ाव भी था।
आवाज में मिठास थी। उतार-चढ़ाव भी था।
और क्या होता है जी गाने में? कशिश हो गयी, लोच हो गया, मिठास भी गिना दी, उतार भी हो गया, चढ़ाव भी आ गया। हमें तो इत्ता ही याद आ रहा है। आपको जो और याद आ रहा हो वह पढ़ लीजियेगा कि गाने में वह भी था। हमें असल में याद नहीं रहता अब। आजकल गायिकाओं/नायिकाऒं के टच में जरा कम रहते हैं।
हम गाने में ऐसा डूबे कि सुनते ही रहे। उबरे तब ही जब बताया गया। इस गाने के लिये फ़रमाइस की थी झुमरी तलैया से सोनू,मोनू,बबली,बंटी ने। बख्सी का तालाब से रामखिलावन, कन्हैता, दीनू, चंपा, सोनाली ने।
जैसे ही गाने के लोच से हम उबरे हमें उसका लोचा भी नजर आया। होता है भाई ऐसा होता है। आप किसी महान व्यक्ति से भी मिलो। उससे अविभूत होते हुये साथ में रहो। जब बाहर आओ तब कोई न कोई लोचा पकड़ में आ ही जाता है जिससे यह तय किया जाना आसान होता है कि वे भी परफ़ेक्ट नहीं हैं। तमाम लोग तो ऐसे महान लोगों के लोचे दिखा-दिखा के ही रोजी-रोटी कमाते हैं।मौलिक चिंतक अलग से कहलाते हैं। है कि नहीं।
हां तो गीत में लोच यह लगा कि यह एक प्रेम गीत है। इसमें नायिका कह रही है मैं धरा की धूल हूं और तुम गगन के चन्द्रमा। मतलब भयंकर कशिश के क्षणों में भी नायिका नायक से दूरी बना के रखना चाहती है। जोश में होश नहीं खोती। अगर हम कहें नायिका को इत्ता तक नहीं पता कि धरा की धूल की आवाज चंद्रमा को सुनायी नहीं देगी क्योंकि चांद में वायुमंडल नहीं है ,इसलिये आवाज सुनायी नहीं देती उसकी ,वह बहरा है तो कविता समर्थक पोयटिक जस्टिस का हथियार लेकर हमारे ऊपर हल्ला बोल देंगे। लेकिन हल्ला बोल से धरा और चंद्र्मा की दूरी तो नहीं पट जायेगी।
प्रेम हमेशा से बवाले जान रहा है। इसलिये प्रेमी हमेशा दूरी बना के एक्शन करते रहे। जो प्रेमी मिला वह चला गया। प्रेम की कहानियां भले अमर हो गयीं लेकिन
प्रेमी चला गया। कोई प्रेम ले लो। लैला-मजनूं, शीरी-फ़रहाद, सोहनी-महिवाल। सब जहां पास आये, हमेशा के लिये दूर चले गये।
प्रेमी चला गया। कोई प्रेम ले लो। लैला-मजनूं, शीरी-फ़रहाद, सोहनी-महिवाल। सब जहां पास आये, हमेशा के लिये दूर चले गये।
ऐसा सा हुआ कि प्रेमी जन बिजली के दो तार हों जैसे ही संपर्क में आये आवाज आयी भड़ाम उनका हो गया जय श्रीराम!
यह बात हमारे यहां लोग पुराने जमाने जानते थे। इसलिये प्रेम करते थे लेकिन दूरी बनाये रखते थे। अभी पिछली पीढ़ी तक के लोग बहुत ज्यादा प्रेम करते थे लेकिन भाई-बहन के रिश्ते का संरक्षा कवच पहने रहते थे। देशी माडल थोड़ा अटपटा लगने लगा तो विदेशी माडल वाला संरक्षा कवच, कजिन पापुलर हुआ। बहुत पापुलर हुआ। अब इधर क्या चल रहा है, हमें पता नहीं। बहुत दिन से गये नहीं प्रेमनगर।
हमारी बात को आप हंसी में मत उडायें। जरा सोचें कि प्रेम में आदमी को अकर्मण्य बनाने का क्या तुक कि चातक की तरह चंद्रमा को ताकते रहो। कोई डाक्टर बेचारे चातक को समझाने वाला नहीं कि ऐसे नहीं करते। एक ही तरफ़ देखोगे तो गरदन अकड़ जायेगी। स्पांडिलाइसिस हो जायेगी। बांधे-बांधे पट्टा हलकान हो जाओगे।
और भी तमाम उदाहरण सुधी जन जानते होंगे जिसमें प्रेम में आदमी बौराने की सीमा तक पहुंच जाता है। ये बौराने की प्रथा इत्ती चलन में है कि लोग जब तक बौरा न जायें कोई मानता ही नहीं कि उसको प्रेम रोग हुआ है। बौराना प्रेम का पैमाना हो गया है। यह इतना चलन में हो गया है कि अब तो लोग प्रेम करने के पहले बौराना सीखते हैं। बड़ी बात नहीं कि कल को तमाम बौराना कोचिंग सेंटर खुल जाये।
यही हाल भगवान और भक्त के रिश्ते में हैं। भक्त कहता है कि प्रभुजी तुम चंदन हम पानी। यहीं से भक्त अपनी सीमा तय कर लेता है। भगवान आप महान हैं लेकिन दिन में केवल दो बार। केवल दो बार हम आपसे मिलेंगे। लोग जानते हैं कि चंदन पानी में डूबा नहीं रहता। केवल दो बार पानी के संपर्क में आता है। रगड़ता है पानी को, पानी चंदन को घुला देता है। बस अलग। तखलिया। ज्यादा देर तक मिलना दोनों के लिये नुकसान देह है। चंदन घुल जायेगा। पानी सूख जायेगा।
वे अलग होते हुये कहते होंगे- दुर्घटना से दूरी भली।
हमारा तो यह सोचना है। सोचा तो और भी बहुत कुछ है। लेकिन वह सारा बताने में एक लोचा है। सब बता देंगे तो आपकी और हमारी दोनों की हालत सोचनीय हो जायेगी।
इसलिये फ़िलहाल इतने में ही संतोष करों। कहा भी है-
गोधन,गजधन, बाजिधन और रतन धन खान,
जब आवै संतोषधन सब धन धूरि समान।
गोधन,गजधन, बाजिधन और रतन धन खान,
जब आवै संतोषधन सब धन धूरि समान।
येल्लो फिर धूल आ गयी। बचना मुश्किल है इससे। क्या यह शाश्वत सच है?
Posted in बस यूं ही, सूचना | 17 Responses
हम तो पोस्ट देख कर समझ गये थे कि रेडियो पर मस्त गाना और भजन “प्रभुजी तुम चंदन हम पानी।” पानी आ जाने की खुशी में ही है!
और हां – हमारे गुणगान/हलकान/भगवान से आप क्यों परेशान हैं जी!
प्रेमी को तुम गगन के चंद्रमा बताने का एक आशय यह भी हो सकता है कि हे प्रेमी, पूर्णिमा को तो तू फुलमफुल मुंह के साथ राजा बेटा बनकर खुश-खुश पेश होता है चंदा की तरह, फिर मेरे पहलवान भाई तेरा थोबड़ा बिगाड़ कर उशे कम कम करना शुरु करते हैं, और अमावस्या तक तेरी इतनी ठुकाई हो लेती है कि तू गायब हो जाता है। पर तू भी बेशरम है, फिर पूर्णिमा को फुल फेस ले कर आ जाता है। ऐसे पिटने वाले , मुंह छोटा बड़ा करने वाला चंद्रमा टाइप के प्रेमी, मैं धूल की तरह कंसिस्टेंट हूं। जहां हूं वहीं पड़ी रहती हैं, ना कम होती ना ज्यादा।
बहूत चक्खास व्याख्या की आपने।
जब आवै संतोषधन सब धन धूरि समान।
ये गलत है दादा इसका जमाना गया,अब तो ये है..
गोधन,गजधन, बाजिधन और रतन धन खान,
जब हम कहलावे नंबर वन सब धन धूरि समान।
इसलिए मैं इस दोहे में सब धन विरथा जान कहता हूं. धूल-मिट्टी तो बेशकीमती है.
अब बैटरियों का इंतज़ाम कर लीजिए ज्ञान जी की तरह
और ना सिर्फ सुनिए बल्कि याद भी रखिए ।
गाना सुनने से बाक़ी सब भी ठीक रहेगा ।
ना मानें तो ज्ञान जी से पूछ लीजिये ।
या फिर आलोक जी से पूछिये ।
पूछिये पूछिये ।
आप का कौन भरोसा कहो इसी बात पर एक दो जिल्द ठेल दें..