http://web.archive.org/web/20140419213853/http://hindini.com/fursatiya/archives/519
कल जीतेन्द्र चौधरी के पन्ने के चार साल हुये और नीरज गोस्वामी ने भी एक साल पूरा किया।
इसके पहले तरुण भी अपने निठल्लेपन की चौथी सालगिरह मना चुके।
पिछ्ले महीने बीस तारीख को फ़ुरसतिया के चार साल पूरे हुये। इस मौके पर सोचा एक पोस्ट ठेल दी जाये लेकिन फ़िर सोचा आराम से लिखा जायेगा। ई पता ही न था कि आराम हराम है।
आज फ़ुरसतिया के पिछले तीन साल के बड्डे पोस्ट देखी।
जब हमने लिखना शुरू किया तब ब्लागर संख्या ३० के करीब थी। पहली साल गिरह में ब्लागर संख्या ३० से ९० तक पहुंची थी।
दूसरी सालगिरह के मौके पर अपने खुद के साक्षात्कार के बहाने जो बातें लिखीं थीं उनमें से काफ़ी आज भी सही हैं।
तीसरी वर्षगांठ के अवसर पर जो लिखा वो लगता है अभी कल ही लिखा है। आज भी ज्ञानदत्तजी और आलोक पुराणिकजी तो सबेरे की चाय के साथी हैं। अभी भी कवियों की बहुतायत है लेकिन अभी भी मेरी कविता की समझ उत्ती ही अच्छी है जित्ती गये साल थी! समीरलाल जैसे चंपू लेखक आज भी छाये हैं! प्रियंकरजी के लिखने का आज भी इंतजार है। प्रमोदसिंह की शब्दों की ड्रिबलिंग देखकर आज भी ताज्जुब होता है। जिन लोगों ने पिछले साल तक लिखना छोड़ दिया था उन्होंने आज तक दुबारा शुरू नहीं किया है। कुछ और लोग उनके साथ चले गये हैं।
आज से तीन साल पहले जब नब्बे ब्लाग थे तब सक्रिय लोग करीब बीस-तीस थे। बीस अगस्त २००५ को नब्बे ब्लाग थे। नब्बे से सौ तक पहुंचने में १६ दिन लगे थे। मतलब १० ब्लाग जुड़ने में १६ दिन लगे। आज स्थिति यह है कि आठ-दस ब्लाग तो रोज जुड़ते हैं। यह आंकड़ा तो संकलकों का है, लिखना तो और भी लोग शुरू कर देते होंगे। आज चिट्ठाजगत की गिनती के हिसाब से कुल ४२३८ ब्लाग हैं। आज देखा करीब बारह घंटे में १५० पोस्ट हो गयीं। मतलब एक दिन में लगभग ३०० पोस्ट।
ब्लागिंग के बहुत कुछ कहा जा चुका है। नये-नये अंदाज में। तमाम लोग जुड़ रहे हैं। अपने-अपने क्षेत्र के महारथी। विषय विविधता बढ़ रही है। पाडकास्टिंग और वीडियो पोस्ट के चलते यह वर्चुअल माध्यम कुछ और रियल सा लगने लगा है। नये लोगों में सबसे ज्यादा संख्या में जुड़ने वाले लोग पत्रकार/मीडिया कर्मी हैं।
ब्लागिंग का मजा यही है कि ससुर जो मन आये सो लिखो, जिधर मन आये उधर स्टियरिंग घुमा दो, गाड़ी दौड़ा दो- फ़र्राटा। जौन गियर में चाहे तौन गियर में ठेल दो। यही इसकी सामर्थ्य है और यही शायद इसकी सीमा भी। आप जिन पोस्टों पर हचक के वाह-वाह पाये होंगे वही पोस्ट कभी अकेले में पढते होंगे तो लगता होगा -अरे गुरु, ये चिरकुटई हमारी ही की है। क्या कूड़ा ठेल दिया है!! जय हो, जय हो। ठेले रहो!
कम से कम अपने बारे में मैं यह सच मानता हूं। करीब पांच सौ पोस्टों में से अगर कोई कहे कि पांच ऐसी पोस्ट छांट दो जो बार-बार पढ़ते हो तो मैं शायद न कर पाउं। पढ़ता ही नहीं झूठ क्यों बोलूं!!
ब्लागिंग करते चार साल हुये और काम भर का सक्रिय भी हूं। चिट्ठाचर्चा पर हमारी हालिया सक्रियता से आक्रांत साथी लोग सलाह भी देते हैं कि घर-परिवार भी देखना चाहिये। ज्ञानजी जैसे शुभचिंतक (अशुभचिंता के लिये हम आत्मनिभर हैं) ब्लाग ऊर्जा की तारीफ़ करते हैं। परोक्ष रूप से लोग यही कहते हैं- कोई काम-धाम नहीं है क्या जो ब्लागिंग में पिले पड़े रहते हो! न खुद चैन से रहते हो न अगले को चैन से बैठने देते हो।
इन चार वर्षों में कुछ समय एकाध माह का छोड़ दिया जाये जब मेरे भाई साहब नहीं रहे तो कभी लम्बे समय तक ब्लागिंग से अलग नहीं रहा। लेकिन अक्सर यह सोचता जरूर रहता हूं कि यह कैसा, अजब-गजब अभिव्यक्ति का माध्यम है। एक पिटार में बंद। जब तक यह पिटारा बंद रहता है कुछ नहीं दिखता, जहां यह सिमसिम खुला, नेट जुड़ा नहीं कि भड़ से एक नयी दुनिया सामने आ जाती है।
ब्लागिंग में ज्यादातर लोग जो पाठक हैं , वही लेखक हैं। लेखन और टिप्पणियों में एक खास तरह की ’टाइप्डनेस’ सी कभी-कभी लगती है। लगता है कि किसी एयरकंडीशनर कार की हवा सर्कुलेट हो रही है। कभी लगता है ए.सी. खोल के ताजी हवा का लुत्फ़ उठाया जाये लेकिन फ़िर लगता है ए.सी. चलाया जाये।
लेखन में विविधता के चलते ब्लाग पढ़ने में एक और चीज देखने को मिलती है। पता चला आप किसी की एक संवेदनशील पोस्ट पढ़ के काम भर के संवेदनशील हुये और अगली पोस्ट पढ़ने लगे जो निहायत लहकटई से सराबोर है तो आपका ’फ़ेस’ बदल जायेगा। आप हेहेहे मोड में आ जायेंगे। आप जैसे ही हलके होकर अगली पोस्ट पर गये पता चला वह क्रांतिकारी पोस्ट है जिसमें आपकी लानत-मनालत की गयी है कि आप ’आप’ क्यों हैं जबकि दुनिया भर के तमाम लफ़ड़े आपके सामने हो रहे हैं। आदमी शर्म से गड़ जाता है, मन करता है मुंह की बोर्ड में छुपा के शुतुरमुर्ग हो जाये। इत्ते शेड बदलने पड़ते हैं दिमाग को कि वो भी बेचा्रा सो्चता होगा कब ब्लागिंग निपटेगी। यह एक तरह की “साइकिलिक लोडिंग” हैं। यह तो आपको पता ही होगा कि किसी आईटम की ’साइकिलिक लोडिंग’ में लाइफ़ आधी हो जाती है। कल को अगर यह खोज सामने आये कि ब्लागिंग से आदमी की आयु कम होती है तो झटक न जाइयेगा।
इस समस्या का समाधान शायद इस बात में हो कि आप एक साथ कविता कानन g>दुखी मन मेरे टाइप पोस्ट पढ लें, फ़िर टिप्पणी ब्रेक लेकर लाफ़्टर चैलेंज वा्ले ब्लाग बांच लें, इसके बाद में टहल में इसके बाद क्रांतिकारी टाइप के लेख पढ़ लें। तमाम ब्लाग ऐसे भी हैं जो आपको व्यक्ति रूप में नहीं बल्कि आपकी मानसिकता के लिये आपको कोसतें-टोंकते हैं। वे आपकी जिंदगी इसलिये नरक बनाते हैं ताकि धरा को स्वर्ग बना सकें। अब चूंकि मानसिकता तो दिखती नहीं लिहाजा सारे शिकायती-कूरियर आपको ही थमा के लोग चले जाते हैं। आप झेलते रहो। ब्लाग के टाइप का ( किस तरह के पहले पढ़ने हैं) क्रम आप अपने अनुसार तय कर सकते हैं।
ब्लागिंग जब शुरू की थी मैंने तब विन्डो-९८ था हमारे कम्प्यूटर में। डायल अप कनेक्शन में एक पन्ना काफ़ी देर में खुलता। तख्ती की सहायता से लिखना शुरू किया। छहरी का प्रयोग करके कट-पेस्ट से ब्लागिंग शुरू की। कमेंट भी कट-पेस्ट करके ही किये जाते। जो साथी आज लिखना शुरू किये हैं और जिनके लिये बारहा आदि तमाम सुविधायें मौजूद हैं उनको शायद इस बात का अन्दाज लगाना मुश्किल होगा कि शुरुआती दिन ब्लागिंग के कितने रेंगते हुये बीते।
जो गुगल और दूसरी साइटों ने किया वह तो खैर है ही लेकिन शुरुआत से उनकी जानकारी देने का काम और सुविधाऒं को सहज बनाकर लोगों तक पहुंचाने का काम शुरुआती दिनों में आलोक, देबाशीष, रविरतलामी,पंकज नरूला, जीतेन्द्र चौधरी, ई-स्वामी, रमणकौल, श्रीश पंडित, अमित गुप्ता ने बेहतरीन तरीके से किया। श्रीश तो मा्स्टर जी ही कहलाने लगे। दूसरे दौर में बेंगाणी बन्धुऒं ने तमाम उपलब्धियां हासिल कीं। तरकश मेरे ख्याल से हिंदी ब्लागरों द्वारा संचालित सबसे ज्यादा पढी जाने वाली साइट होगी। लेकिन तरकश ने संजय बेंगाणी और पंकज बेंगाणी का लिखना कम करा दिया है। पंकज बेगाणी तो अब होली -दिवाली ही अपना हुनर दिखाते हैं।
शुरूआती दिनों से अभी कुछ माह पहले तक मेरा ब्लाग लेखन रात को होता था। अपनी लम्बी-लम्बी पोस्टें देर तक रात तक टाइप करके ठेल के ही सोते। सबेरे उठ के देखते क्या टिपियाया है लोगों ने। एक पोस्ट तो मैंने सबेरे तक लिखकर सबेरे पांच बजे पोस्ट की इसके बाद अगले २६ जनवरी का झंडा फ़हराने गये और लौट के आकर दोपहर के बाद सोये। वो दीवानगी अब कुछ कम हुई है। अब सबेरे उठते हैं चाय-वाप पीते हुये कुछ ठेल-ठाल के दफ़्तर चले जाते हैं। फ़िर ब्लाग जगत की दुनिया में शाम को ही वापस आना होता। पिछले साल दिसम्बर से अभी जुलाई तक सुबह साढ़े आठ से शाम साढ़े आठ तक का समय दफ़्तरी दुनिया में ही बीता।
चिट्ठाचर्चा के चलते लोगों के ब्लाग पर टिपियाना कम हुआ। कुछ लोगों ने इसे हमारी गुमानी माना और कहा भी। कुछ लोगों ने तो पोस्टें भी लिखीं और उसमें बताया कि मठाधीश ब्लागर अपने आप को न जाने क्या-क्या समझते हैं। हम अभी भी अफ़सोस करते हैं कि हम उस मौके का फ़ायदा उठाते हुये अपनी खिंचाई न कर सके। ये ऐसे नुकसान हैं जिनकी भरपाई नहीं है।
इस बीच तमाम बेहतरीन ब्लागर साथी जुड़े। उनको पढ़ना अपने में एक मजेदार अनुभव है। शिवकुमार मिसिर, डा.अमर कुमार अनुराग आर्य, पल्लवी त्रिवेदी के लेखन से तो सब परिचित हैं लेकिन इसके अलावा कई ऐसे ब्लागर हैं जो नेटवर्किंग के अभाव के चलते उत्ते सामने नहीं आ पाये हैं जित्ता अच्छा उनका लेखन है। इनमें से एक नाम शमा जी का है। उनके घर-परिवार के सदस्यों से जुड़े संस्मरण पढ़कर उनके लेखन की ईमानदारी और परिपक्वता का पता चलता है। शिवकुमार जी की व्यंग्य प्रतिभा खुल रही है धीरे-धीरे। डा.अमर कुमार का लेख नारी- नितम्बों तक की अंतर्यात्रा तो मैंने कई बार पढ़ा। इसके अलावा भी तमाम साथी हैं जिनका लिखा पढ़ने का मन करता है। जिय रजा बनारस हालिया शुरू हुआ ब्लाग है जिसे देखने के लिये हम बार-बार उसे क्लिक करते हैं।
जितना तमाम लोगों का लिखना अच्छा लगता है उतना ही या उससे ज्यादा उन तमाम लोगों का न लिखना भी खलता है जिनको पढ़ते हुये हमने शुरुआती दिन बिताये ब्लागिंग के। देबाशी्ष, अतुल अरोरा, आशीष श्रीवास्तव, ठेलुहा, तत्काल (विजय ठाकुर), रत्ना की रसोई, निधि श्रीवास्तव, पंकज नरुला, काकेश( दीवार बहुत दिन से गिरी पडी है) , जगदीश भाटिया, प्रियंकर और भी कुछ नाम जो शायद पोस्ट करने के बाद याद आयें।
कल ज्ञानजी ने सवाल भी किया था- हम पोस्ट नहीं लिखेंगे तो क्या चर्चा न होगी। चर्चा होगी। आप अगर नियमित नहीं लिखेंगे तब भी चर्चा होगी लेकिन इसी तरह की सालगिरही मौकों पर। और सालगिरह रोज-डेली तो होती नहीं।
पिछले साल हुये छुटपुट विवादों के अलावा मामला ब्लागजगत में लगभग शांत ही रहा। सबसे ज्यादा बबाल कुछ पुरुष ब्लागरों में स्त्री विरोधी मानसिकता पायी, खोजी और प्रमाणित की गयी। हमें पता चला है कि हम भी उसी पार्टी के आदमी माने जाते हैं। हम यही सोचकर चुप लगा गये कि जिसकी जैसी समझ होती है वो वैसी धारण बनाता है, वैसी बातें करता है और उसी तरह के तर्क खोज लेता है। ब्लाग जगत में वैसे भी बहस आम तौर पर नतीजे तय करने के बाद विवेचना करने के लिये होती है जैसे अभय तिवारी के सा्थ हुआ कि वे मुस्लिम तुष्टिकरण करने वाले बता दिये गये अब उसकी विवेचना की जानी है।
पारिवारिक जीवन में ये समय मेरा बेहद उथल-पुथल में बीता। भाई को साल के शुरु में खो दिया। मैं आज भी उनके बारे में लिखी पोस्ट पढ़ता हूं तो उदास हो जाता हूं, आंसू आ जाते हैं आंख में। लेकिन इससे अलग मुझे लगता ही नहीं है कि मेरे भाई रहे नहीं। मुझे हमेशा ऐसा लगता है कि वे कहीं गये नहीं हैं , अपने घर में हैं किसी दिन मौका निकालकर उनसे मिलने जाना है। अभी पिछले हफ़्ते ही भाईसाहब की बिटिया स्वाती जो हमारे साथ ही रही हमेशा , एक पुत्री की मां बनी। हम ४५ साल की बाली उमर में नाना बन गये। लगता है किसी न किसी रूप में भगवान ने भाईसाहब के बदले उसे भेजा है। हमारे परिवार में हमारे बाद की पीढ़ी की यह पहली सन्तान है।
दफ़्तर में पिछला पूरा साल उठापटक में बीता। कैरियर के सबसे संघर्षपूर्ण समय से सामना हुआ। लेकिन कहा गया है न कि दुख है तो दुख हरने वाले भी होंगे। अंतत: सब ठीक हो गया। ऐसे चिरकुट समय में ब्लागिंग न करते होते तो तनाव से बोर होकर हलकान हो जाते। इसी लिये कहा गया – ये ब्लागिंग बड़े काम की चीज है।
पिछले साल के तमाम तय किये हुये काम अभी भी किये जाने हैं। उनको गिनाके हम आपको बेकार में काहे बोर करें। ऐसे ही क्या कम बोर हुये इत्ती देर!
तो फ़िर आप चलिये निकलिये। तमाम बेहतरीन ब्लाग आपका इंतजार कर रहे हैं। उनका आनंद उठाइये। हम भी दुकान समेटते हैं।
…और ये फ़ुरसतिया के चार साल
By फ़ुरसतिया on September 7, 2008
इसके पहले तरुण भी अपने निठल्लेपन की चौथी सालगिरह मना चुके।
पिछ्ले महीने बीस तारीख को फ़ुरसतिया के चार साल पूरे हुये। इस मौके पर सोचा एक पोस्ट ठेल दी जाये लेकिन फ़िर सोचा आराम से लिखा जायेगा। ई पता ही न था कि आराम हराम है।
आज फ़ुरसतिया के पिछले तीन साल के बड्डे पोस्ट देखी।
जब हमने लिखना शुरू किया तब ब्लागर संख्या ३० के करीब थी। पहली साल गिरह में ब्लागर संख्या ३० से ९० तक पहुंची थी।
दूसरी सालगिरह के मौके पर अपने खुद के साक्षात्कार के बहाने जो बातें लिखीं थीं उनमें से काफ़ी आज भी सही हैं।
तीसरी वर्षगांठ के अवसर पर जो लिखा वो लगता है अभी कल ही लिखा है। आज भी ज्ञानदत्तजी और आलोक पुराणिकजी तो सबेरे की चाय के साथी हैं। अभी भी कवियों की बहुतायत है लेकिन अभी भी मेरी कविता की समझ उत्ती ही अच्छी है जित्ती गये साल थी! समीरलाल जैसे चंपू लेखक आज भी छाये हैं! प्रियंकरजी के लिखने का आज भी इंतजार है। प्रमोदसिंह की शब्दों की ड्रिबलिंग देखकर आज भी ताज्जुब होता है। जिन लोगों ने पिछले साल तक लिखना छोड़ दिया था उन्होंने आज तक दुबारा शुरू नहीं किया है। कुछ और लोग उनके साथ चले गये हैं।
आज से तीन साल पहले जब नब्बे ब्लाग थे तब सक्रिय लोग करीब बीस-तीस थे। बीस अगस्त २००५ को नब्बे ब्लाग थे। नब्बे से सौ तक पहुंचने में १६ दिन लगे थे। मतलब १० ब्लाग जुड़ने में १६ दिन लगे। आज स्थिति यह है कि आठ-दस ब्लाग तो रोज जुड़ते हैं। यह आंकड़ा तो संकलकों का है, लिखना तो और भी लोग शुरू कर देते होंगे। आज चिट्ठाजगत की गिनती के हिसाब से कुल ४२३८ ब्लाग हैं। आज देखा करीब बारह घंटे में १५० पोस्ट हो गयीं। मतलब एक दिन में लगभग ३०० पोस्ट।
ब्लागिंग के बहुत कुछ कहा जा चुका है। नये-नये अंदाज में। तमाम लोग जुड़ रहे हैं। अपने-अपने क्षेत्र के महारथी। विषय विविधता बढ़ रही है। पाडकास्टिंग और वीडियो पोस्ट के चलते यह वर्चुअल माध्यम कुछ और रियल सा लगने लगा है। नये लोगों में सबसे ज्यादा संख्या में जुड़ने वाले लोग पत्रकार/मीडिया कर्मी हैं।
ब्लागिंग का मजा यही है कि ससुर जो मन आये सो लिखो, जिधर मन आये उधर स्टियरिंग घुमा दो, गाड़ी दौड़ा दो- फ़र्राटा। जौन गियर में चाहे तौन गियर में ठेल दो। यही इसकी सामर्थ्य है और यही शायद इसकी सीमा भी। आप जिन पोस्टों पर हचक के वाह-वाह पाये होंगे वही पोस्ट कभी अकेले में पढते होंगे तो लगता होगा -अरे गुरु, ये चिरकुटई हमारी ही की है। क्या कूड़ा ठेल दिया है!! जय हो, जय हो। ठेले रहो!
कम से कम अपने बारे में मैं यह सच मानता हूं। करीब पांच सौ पोस्टों में से अगर कोई कहे कि पांच ऐसी पोस्ट छांट दो जो बार-बार पढ़ते हो तो मैं शायद न कर पाउं। पढ़ता ही नहीं झूठ क्यों बोलूं!!
ब्लागिंग करते चार साल हुये और काम भर का सक्रिय भी हूं। चिट्ठाचर्चा पर हमारी हालिया सक्रियता से आक्रांत साथी लोग सलाह भी देते हैं कि घर-परिवार भी देखना चाहिये। ज्ञानजी जैसे शुभचिंतक (अशुभचिंता के लिये हम आत्मनिभर हैं) ब्लाग ऊर्जा की तारीफ़ करते हैं। परोक्ष रूप से लोग यही कहते हैं- कोई काम-धाम नहीं है क्या जो ब्लागिंग में पिले पड़े रहते हो! न खुद चैन से रहते हो न अगले को चैन से बैठने देते हो।
इन चार वर्षों में कुछ समय एकाध माह का छोड़ दिया जाये जब मेरे भाई साहब नहीं रहे तो कभी लम्बे समय तक ब्लागिंग से अलग नहीं रहा। लेकिन अक्सर यह सोचता जरूर रहता हूं कि यह कैसा, अजब-गजब अभिव्यक्ति का माध्यम है। एक पिटार में बंद। जब तक यह पिटारा बंद रहता है कुछ नहीं दिखता, जहां यह सिमसिम खुला, नेट जुड़ा नहीं कि भड़ से एक नयी दुनिया सामने आ जाती है।
ब्लागिंग में ज्यादातर लोग जो पाठक हैं , वही लेखक हैं। लेखन और टिप्पणियों में एक खास तरह की ’टाइप्डनेस’ सी कभी-कभी लगती है। लगता है कि किसी एयरकंडीशनर कार की हवा सर्कुलेट हो रही है। कभी लगता है ए.सी. खोल के ताजी हवा का लुत्फ़ उठाया जाये लेकिन फ़िर लगता है ए.सी. चलाया जाये।
लेखन में विविधता के चलते ब्लाग पढ़ने में एक और चीज देखने को मिलती है। पता चला आप किसी की एक संवेदनशील पोस्ट पढ़ के काम भर के संवेदनशील हुये और अगली पोस्ट पढ़ने लगे जो निहायत लहकटई से सराबोर है तो आपका ’फ़ेस’ बदल जायेगा। आप हेहेहे मोड में आ जायेंगे। आप जैसे ही हलके होकर अगली पोस्ट पर गये पता चला वह क्रांतिकारी पोस्ट है जिसमें आपकी लानत-मनालत की गयी है कि आप ’आप’ क्यों हैं जबकि दुनिया भर के तमाम लफ़ड़े आपके सामने हो रहे हैं। आदमी शर्म से गड़ जाता है, मन करता है मुंह की बोर्ड में छुपा के शुतुरमुर्ग हो जाये। इत्ते शेड बदलने पड़ते हैं दिमाग को कि वो भी बेचा्रा सो्चता होगा कब ब्लागिंग निपटेगी। यह एक तरह की “साइकिलिक लोडिंग” हैं। यह तो आपको पता ही होगा कि किसी आईटम की ’साइकिलिक लोडिंग’ में लाइफ़ आधी हो जाती है। कल को अगर यह खोज सामने आये कि ब्लागिंग से आदमी की आयु कम होती है तो झटक न जाइयेगा।
इस समस्या का समाधान शायद इस बात में हो कि आप एक साथ कविता कानन g>दुखी मन मेरे टाइप पोस्ट पढ लें, फ़िर टिप्पणी ब्रेक लेकर लाफ़्टर चैलेंज वा्ले ब्लाग बांच लें, इसके बाद में टहल में इसके बाद क्रांतिकारी टाइप के लेख पढ़ लें। तमाम ब्लाग ऐसे भी हैं जो आपको व्यक्ति रूप में नहीं बल्कि आपकी मानसिकता के लिये आपको कोसतें-टोंकते हैं। वे आपकी जिंदगी इसलिये नरक बनाते हैं ताकि धरा को स्वर्ग बना सकें। अब चूंकि मानसिकता तो दिखती नहीं लिहाजा सारे शिकायती-कूरियर आपको ही थमा के लोग चले जाते हैं। आप झेलते रहो। ब्लाग के टाइप का ( किस तरह के पहले पढ़ने हैं) क्रम आप अपने अनुसार तय कर सकते हैं।
ब्लागिंग जब शुरू की थी मैंने तब विन्डो-९८ था हमारे कम्प्यूटर में। डायल अप कनेक्शन में एक पन्ना काफ़ी देर में खुलता। तख्ती की सहायता से लिखना शुरू किया। छहरी का प्रयोग करके कट-पेस्ट से ब्लागिंग शुरू की। कमेंट भी कट-पेस्ट करके ही किये जाते। जो साथी आज लिखना शुरू किये हैं और जिनके लिये बारहा आदि तमाम सुविधायें मौजूद हैं उनको शायद इस बात का अन्दाज लगाना मुश्किल होगा कि शुरुआती दिन ब्लागिंग के कितने रेंगते हुये बीते।
जो गुगल और दूसरी साइटों ने किया वह तो खैर है ही लेकिन शुरुआत से उनकी जानकारी देने का काम और सुविधाऒं को सहज बनाकर लोगों तक पहुंचाने का काम शुरुआती दिनों में आलोक, देबाशीष, रविरतलामी,पंकज नरूला, जीतेन्द्र चौधरी, ई-स्वामी, रमणकौल, श्रीश पंडित, अमित गुप्ता ने बेहतरीन तरीके से किया। श्रीश तो मा्स्टर जी ही कहलाने लगे। दूसरे दौर में बेंगाणी बन्धुऒं ने तमाम उपलब्धियां हासिल कीं। तरकश मेरे ख्याल से हिंदी ब्लागरों द्वारा संचालित सबसे ज्यादा पढी जाने वाली साइट होगी। लेकिन तरकश ने संजय बेंगाणी और पंकज बेंगाणी का लिखना कम करा दिया है। पंकज बेगाणी तो अब होली -दिवाली ही अपना हुनर दिखाते हैं।
शुरूआती दिनों से अभी कुछ माह पहले तक मेरा ब्लाग लेखन रात को होता था। अपनी लम्बी-लम्बी पोस्टें देर तक रात तक टाइप करके ठेल के ही सोते। सबेरे उठ के देखते क्या टिपियाया है लोगों ने। एक पोस्ट तो मैंने सबेरे तक लिखकर सबेरे पांच बजे पोस्ट की इसके बाद अगले २६ जनवरी का झंडा फ़हराने गये और लौट के आकर दोपहर के बाद सोये। वो दीवानगी अब कुछ कम हुई है। अब सबेरे उठते हैं चाय-वाप पीते हुये कुछ ठेल-ठाल के दफ़्तर चले जाते हैं। फ़िर ब्लाग जगत की दुनिया में शाम को ही वापस आना होता। पिछले साल दिसम्बर से अभी जुलाई तक सुबह साढ़े आठ से शाम साढ़े आठ तक का समय दफ़्तरी दुनिया में ही बीता।
चिट्ठाचर्चा के चलते लोगों के ब्लाग पर टिपियाना कम हुआ। कुछ लोगों ने इसे हमारी गुमानी माना और कहा भी। कुछ लोगों ने तो पोस्टें भी लिखीं और उसमें बताया कि मठाधीश ब्लागर अपने आप को न जाने क्या-क्या समझते हैं। हम अभी भी अफ़सोस करते हैं कि हम उस मौके का फ़ायदा उठाते हुये अपनी खिंचाई न कर सके। ये ऐसे नुकसान हैं जिनकी भरपाई नहीं है।
इस बीच तमाम बेहतरीन ब्लागर साथी जुड़े। उनको पढ़ना अपने में एक मजेदार अनुभव है। शिवकुमार मिसिर, डा.अमर कुमार अनुराग आर्य, पल्लवी त्रिवेदी के लेखन से तो सब परिचित हैं लेकिन इसके अलावा कई ऐसे ब्लागर हैं जो नेटवर्किंग के अभाव के चलते उत्ते सामने नहीं आ पाये हैं जित्ता अच्छा उनका लेखन है। इनमें से एक नाम शमा जी का है। उनके घर-परिवार के सदस्यों से जुड़े संस्मरण पढ़कर उनके लेखन की ईमानदारी और परिपक्वता का पता चलता है। शिवकुमार जी की व्यंग्य प्रतिभा खुल रही है धीरे-धीरे। डा.अमर कुमार का लेख नारी- नितम्बों तक की अंतर्यात्रा तो मैंने कई बार पढ़ा। इसके अलावा भी तमाम साथी हैं जिनका लिखा पढ़ने का मन करता है। जिय रजा बनारस हालिया शुरू हुआ ब्लाग है जिसे देखने के लिये हम बार-बार उसे क्लिक करते हैं।
जितना तमाम लोगों का लिखना अच्छा लगता है उतना ही या उससे ज्यादा उन तमाम लोगों का न लिखना भी खलता है जिनको पढ़ते हुये हमने शुरुआती दिन बिताये ब्लागिंग के। देबाशी्ष, अतुल अरोरा, आशीष श्रीवास्तव, ठेलुहा, तत्काल (विजय ठाकुर), रत्ना की रसोई, निधि श्रीवास्तव, पंकज नरुला, काकेश( दीवार बहुत दिन से गिरी पडी है) , जगदीश भाटिया, प्रियंकर और भी कुछ नाम जो शायद पोस्ट करने के बाद याद आयें।
कल ज्ञानजी ने सवाल भी किया था- हम पोस्ट नहीं लिखेंगे तो क्या चर्चा न होगी। चर्चा होगी। आप अगर नियमित नहीं लिखेंगे तब भी चर्चा होगी लेकिन इसी तरह की सालगिरही मौकों पर। और सालगिरह रोज-डेली तो होती नहीं।
पिछले साल हुये छुटपुट विवादों के अलावा मामला ब्लागजगत में लगभग शांत ही रहा। सबसे ज्यादा बबाल कुछ पुरुष ब्लागरों में स्त्री विरोधी मानसिकता पायी, खोजी और प्रमाणित की गयी। हमें पता चला है कि हम भी उसी पार्टी के आदमी माने जाते हैं। हम यही सोचकर चुप लगा गये कि जिसकी जैसी समझ होती है वो वैसी धारण बनाता है, वैसी बातें करता है और उसी तरह के तर्क खोज लेता है। ब्लाग जगत में वैसे भी बहस आम तौर पर नतीजे तय करने के बाद विवेचना करने के लिये होती है जैसे अभय तिवारी के सा्थ हुआ कि वे मुस्लिम तुष्टिकरण करने वाले बता दिये गये अब उसकी विवेचना की जानी है।
पारिवारिक जीवन में ये समय मेरा बेहद उथल-पुथल में बीता। भाई को साल के शुरु में खो दिया। मैं आज भी उनके बारे में लिखी पोस्ट पढ़ता हूं तो उदास हो जाता हूं, आंसू आ जाते हैं आंख में। लेकिन इससे अलग मुझे लगता ही नहीं है कि मेरे भाई रहे नहीं। मुझे हमेशा ऐसा लगता है कि वे कहीं गये नहीं हैं , अपने घर में हैं किसी दिन मौका निकालकर उनसे मिलने जाना है। अभी पिछले हफ़्ते ही भाईसाहब की बिटिया स्वाती जो हमारे साथ ही रही हमेशा , एक पुत्री की मां बनी। हम ४५ साल की बाली उमर में नाना बन गये। लगता है किसी न किसी रूप में भगवान ने भाईसाहब के बदले उसे भेजा है। हमारे परिवार में हमारे बाद की पीढ़ी की यह पहली सन्तान है।
दफ़्तर में पिछला पूरा साल उठापटक में बीता। कैरियर के सबसे संघर्षपूर्ण समय से सामना हुआ। लेकिन कहा गया है न कि दुख है तो दुख हरने वाले भी होंगे। अंतत: सब ठीक हो गया। ऐसे चिरकुट समय में ब्लागिंग न करते होते तो तनाव से बोर होकर हलकान हो जाते। इसी लिये कहा गया – ये ब्लागिंग बड़े काम की चीज है।
पिछले साल के तमाम तय किये हुये काम अभी भी किये जाने हैं। उनको गिनाके हम आपको बेकार में काहे बोर करें। ऐसे ही क्या कम बोर हुये इत्ती देर!
तो फ़िर आप चलिये निकलिये। तमाम बेहतरीन ब्लाग आपका इंतजार कर रहे हैं। उनका आनंद उठाइये। हम भी दुकान समेटते हैं।
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