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ईमानदारी की कीमत
By फ़ुरसतिया on September 10, 2007
हम जीतेंदर और पाखी को जनमदिन मुबारक करके चल दिये स्टेशन। पत्नी से हमने कहा कि अपना नया मोबाइल दे दें ताकि उसके कैमरे से फोटो-सोटो लेते रहेंगे। लेकिन जैसे विकसित देश अविकसित देशों को , दुरुपयोग की आशंकायें जताते हुये, नयी तकनीक देने से मना कर देते हैं, हमें कैमरा देने से मना कर दिया गया।
स्टेशन पहुंचे तो पता लगा गाड़ी एक घंटा लेट।
स्टेशन पर ही एक कंप्यूटर लगा था जैसे एटीएम घरों में लगे होते हैं। हमें भी अपनी कनफर्म टिकट का कनफर्मेशन चेक करने लगे। हर बार बताये -आप का पी.एन.आर. नंबर गलत है। सोचा पांडेयजी को बतायें, शिकायत करें। फिर यह सोचकर कि पांडेयजी दस बजे ही निद्रायमान हो जाते हैं, हमने उनको परेशान नहीं किया। बाद में पता चला कि यह सुविधा केवल स्टेशन पर कम्प्यूटर की सुविधा रात ग्यारह बजे तक ही चालू रहती है। सो हम अपनी सीट के प्रति आश्वस्त हो गये।
बहरहाल ट्रेन आ ही गयी और हम उसमें सवार होकर अपनी ऐतिहासिक दिल्ली यात्रा पर चल दिये। गाड़ी में कोच अटेंडेंट
से एक ने पूछा -ये चादर इत्ते गंदे क्यों हैं? कहां धुलते हैं? कोच अटेंडेंट ने तत्वज्ञानियों की तरह जानकारी दी- धुलाई में कुछ गड़बड़ है। शिकायत करने वाला चुप हो गया। जब लोग आपकी बात का समर्थन करने लगते हैं तो आप अनायास उसका विरोध करने का या उससे कुछ कहने का मन नहीं बना पाते। इसी स्वर्ण नियम के चलते हां साहब, आप सही कह रहे हैं कहने वाले लोग मजे से रहते आये हैं -हमेशा।
से एक ने पूछा -ये चादर इत्ते गंदे क्यों हैं? कहां धुलते हैं? कोच अटेंडेंट ने तत्वज्ञानियों की तरह जानकारी दी- धुलाई में कुछ गड़बड़ है। शिकायत करने वाला चुप हो गया। जब लोग आपकी बात का समर्थन करने लगते हैं तो आप अनायास उसका विरोध करने का या उससे कुछ कहने का मन नहीं बना पाते। इसी स्वर्ण नियम के चलते हां साहब, आप सही कह रहे हैं कहने वाले लोग मजे से रहते आये हैं -हमेशा।
दिल्ली गाड़ी पहुंची एक घंटा लेट। हम बाहर निकले। आटो वाले ने बताया कि कैलाश विहार के 150/- रुपये लगेंगे। बात मोलभाव की होने लगी। हमने बोली पचास रुपये से शुरू की। पांच-पांच रुपये पास आते हुये हमारा मोलभाव-मिलन सौ रुपये पर खतम हो गया। लेकिन आटो वाले ने कहा- साथ में सवारी ले चलेगें।
हमने सोचा- एक से भले दो। हो सकता है हम साथ की सवारी को ब्लागिंग सिखाने में ही सफ़ल हो जायें। हमने कहा-ले आओ भाई। सवारी ले आओ लेकिन किसी पंगेबाज को मत लाना। एक को हम मना कर चुके हैं स्टेशन आने के लिये।
काफ़ी देर हो गयी वह सवारी लेकर नहीं आया। हमने सोचा आटो बदल लें। लेकिन फ़िर यह सोचकर, कि वह क्या सोचेगा कि कनपुरिया ब्लागर भी दिल्ली के ब्लागरों की तरह होते हैं, सबर नहीं कर सकते! उसी की गाड़ी में बैठा रहा। सौ तक गिनती भी गिन डाली कि सौ गिनने तक नहीं आया तो चल देंगे दूसरा आटो लेकर।
खैर वह बहादुर टेम्पोवाला आया और उसने हड़बड़ा के मुझे अपने आटो से उतार कर एक दूसरे आटो में बैठा दिया। वह दूसरा टेम्पोवाला बड़े हाई प्रोफ़ाइल वाला था। पता चला कि उसने पिछ्ले दिनों अपनी किसी सवारी के अपने आटो में छूटे दस लाख रुपये के जेवर-पैसे उनको खुद फोन करके लौटा दिये थे। हम पांच-पांच रुपये के लिये मोलभाव करने वाले टेम्पो वाले के चंगुल से बचकर दिल्ली के सबसे ईमानदार आटो वाले की शरण में आ गये। पहले वाले ने यह बताया भी कि इनको ईमानदारी का इनाम और मेडल मिला है। मेडल सरदारजी के गले में मंगलसूत्र की तरह लटक भी रहा था।
लेकिन इस ईमानदारी कीमत हमें बीस रुपये मंहगी पड़ी क्योंकि उसने कहा कि वह 120 रुपये लेगा, कैलाश विहार के। हम उसकी ईमानदारी से इतना आतंकित थे कि मोलभाव भी न कर सके कि भैया ये 100 रुपये में जा रहा रहा था साथ में एक सवारी भी और तुम 120 रुपये मांग रहे हो? इतनी कीमत है ईमानदारी की? इसीलिये लोग बिदकते हैं ईमानदारों से क्या?
बहरहाल, यात्रा शुरू हुयी। सरदार जी से हमने पूरा वाकया पूछा। उन्होंने बताया कि एक सवारी उनके आटो में साढ़े तीन लाख रुपये और सत्तर-अस्सी तोला सोना छोड़कर चली गयी थी। उसी में उनका मोबाइल नंबर भी था। सरदार जी को जब पता लगा तो उन्होंने उनको फोन किया और कि आपका सामान मेरी गाड़ी में छूट गया है। कन्फ़र्म करके सरदारजी ने उनको पैसे और सोना लौटा दिया। वे दस हजार रुपये दे रहे थे लेकिन सरदारजी ने लेने से मना कर दिया। यह कहते हुये कि आपके पैसे मिल गये मुझे इसका सुकून है। मुझे कुछ नहीं चाहिये।
इसके बाद सरदारजी अपने बारे में बताते रहे। अमृतसर के रहने वाले सरदारजी चालीस साल पहले दिल्ली आये थे। २३ साल की उमर में। सरदारजी को देखकर कहीं से भी नहीं लग रहा था कि वे साठ पार के हैं। चालीस-पचास के लग रहे थे।
सरदारजी ने अपने जीवन के उसूल बताते हुये बताया कि उन्होंने पैसे इसलिये लौटा दिये क्योंकि अगर उनको लौटाते तो परेशान बने रहते। मन को सुकून न मिलता। मन के सुकून पर उन्होंने काफ़ी बातें करीं। उनका यह भी मत था कि
जो आज लोगों को तमाम बीमारियां हैं उनका कारण भी लोगों को गलत काम में लगे होने के कारण मन का सुकून गायब हो जाना है।
जो आज लोगों को तमाम बीमारियां हैं उनका कारण भी लोगों को गलत काम में लगे होने के कारण मन का सुकून गायब हो जाना है।
रास्ते में हम थी तब तक अरुण अरोरा का फोन आया। हमने जेब से मोबाइल निकाला तो मोबाइल से सटा दस रुपये का नोट भी बाहर आ गया और वो बेशरम मेरी आंखों के सामने हवा के संग लस्टम-पस्टम होता हुआ आटो से बाहर हो गया। हमने तेज ट्रैफ़िक में आटो रुकवाकर कर दस का नोट उठाना मुनासिब न समझा। उसी समय हमें बिल गेट्स भी याद आये। बिल गेट्स की जेब से जब सौ रुपये का नोट गिर जाता है तो वे उसको उठाते नहीं क्योंकि उसके उठाने में जितना समय लगता है उससे ज्यादा कीमत उनके समय की होती है। अपनी जेब के नोट को पीछे छोड़ते हुये हम सोच रहे थे-हमारी और बिल गेट्स की समस्यायें एक हैं। महान लोग एक ही तरह से सोचते हैं।
सोचने को तो हमने सोच लिया था लेकिन लिखते समय एक बार फिर सोच रहा हूं। अक्सर हम महान लोगों की कमियां अपनाकर उनके खानदान का बनने की कोशिश करते हैं। महान लोगों की चंद अपवाद चिरकुट हरकते अपनाकर अपनी सारी बेवकूफियों को जायज ठहराने का प्रयास करते हैं। फिराक गाली बकते थे इसलिये हमारा भी बकना जायज है, निराला ने ये किया तो हम भी करते हैं। लेकिन यह अक्सर भूल जाते हैं या याद रखने का मन नहीं करता कि फिराक और निराला ने तमाम ऐसा लेखन भी किया है जिसके आसपास भी हम नहीं फ़टकते।
बड़े लोगों की बचकानी बाते हमारी कमियों को गौरवान्वित करती हैं। हमें लगता है कि उन्होंने की इसलिये जायज हैं और उनको टोकने वाले कूढ़मजग!
बहरहाल, जब हम कैलाश बिहार पहुंचे तो सबेरे के नौ बज चुके थे। रास्ते में मामाजी को फोन करके पता कन्फ़र्म किया।
घर पहुंचकर सरदारजी आटो वाले का टैक्सी नम्बर नोट किया। उनसे कहा कि अपना आटोग्राफ़ भी दे दें। सरदारजी ने मेरी नोटबुक में लिखा-
बलबीर भाटिया
DLIRK1651
9910499682
Good man for honesty.
हस्ताक्षर बलबीर भाटिया
०९.०९.०७
सरदार जी इस बीच बातचीत करके बहुत प्रभावित हो चुके थे। हमने उनको १२० के अलावा तीस रुपये और दे दिये। ईमानदारी हमारे लिये पचास रुपये महंगी पड़ गयी। इसीलिये लोग ईमानदार बने रहने से बिदकते हैं। लेकिन हम यही सोचकर खुश हैं सरदारजी के दस लाख चले चले गये, हमारे तो सिर्फ़ पचास ही गये।
घर पहुंचकर सरदारजी आटो वाले का टैक्सी नम्बर नोट किया। उनसे कहा कि अपना आटोग्राफ़ भी दे दें। सरदारजी ने मेरी नोटबुक में लिखा-
बलबीर भाटिया
DLIRK1651
9910499682
Good man for honesty.
हस्ताक्षर बलबीर भाटिया
०९.०९.०७
सरदार जी इस बीच बातचीत करके बहुत प्रभावित हो चुके थे। हमने उनको १२० के अलावा तीस रुपये और दे दिये। ईमानदारी हमारे लिये पचास रुपये महंगी पड़ गयी। इसीलिये लोग ईमानदार बने रहने से बिदकते हैं। लेकिन हम यही सोचकर खुश हैं सरदारजी के दस लाख चले चले गये, हमारे तो सिर्फ़ पचास ही गये।
हमें साथ में कैमरा न होने का अफ़सोस हुआ।
टैक्सी से उतरकर जब हमने मामाजी के घर की घंटी बजायी तो दरवाजा उन्होंने ही खोला। हम घर में घुसते ही उनसे बतियाने में तल्लीन हो गये।
Posted in बस यूं ही | 20 Responses
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अरे हॉं साहब आप भी ठीक ही कह रहे हैं
गुड मैन फ़ॊर हॉनेस्टी भाटिया जी की तस्वीर की कमी अखर गई ।
घुघूती बासूती
बात जहां से शुरू होनी चाहिए थी वहीं आपने खत्म कर दी. इसके आगे की अब दास्तां किससे सुने?
2020 में 50 लाख, एवं 2025 मे एक करोड हिन्दी चिट्ठाकार!!
यहीं आकर लगता है कि यह तो मेरी बात कह दी आपने
आनन्द आया। जी जुड़ाया।