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जब से उनकी तबियत खराब हुयी है तब से उनकी कविताओं में भगवान से उलाहने बढ़ गये हैं। कभी वे लिखते हैं-
अपने अमेरिका में रहने वाले नाती अंकित की फोटुओं के साथ उसकी चिट्ठी की फोटो भी है। चिट्ठी में नाना, अंकित और अपने भाई के रेखाचित्र भी हैं। चिट्ठी कुछ यों है-
यह तो मैंने जानकारी दी उस किताब , खुशबू का लिबास के बारे में जिसका असली आनन्द उसे देखकर ही उठाया जाता है , जिसे मुझे देते हुये मामाजी ने किताब पर लिखा- प्रियवर अनूप को ,मेरे जीवन की तमाम-तमाम यादों के साथ, जिनकी साक्षी मेरी प्यारी बहन बिटेऊ है…प्यार और आदर सहित।
क्या खूब नखरे हैं परवरदिगार के
By फ़ुरसतिया on September 11, 2007
[कल की पोस्ट में प्रियंकरजी ने किस्से की सच्चाई के बारे में सवाल किया। सच मानो भाई किस्सा सच्चा है। आलोक पुराणिक कहते हैं कि हम ज्यादा फुरसत में आ गये यहां। यहां शाम के बाद छुट्टी सो नेट सुविधा का लाभ उठा रहे हैं। साथियों ने आग्रह किया सो आगे की कथा कह रहे हैं। पूरी सुनायेंगे जिसमें ब्लागर साथियों से मुलाकात के किस्से भी हैं। फिलहाल बात वहां से जहां कल छूटी थी।]
मामाजी से उनके घर में काफी दिन बाद मुलाकात हो रही थी। बातचीत की शुरुआत तबियत से हुयी। मामाजी की दोनों किडनियां खराब हैं। हफ्ते में दो बार डायलिसिस होती है। मंगलवार और शुक्रवार को। मैंने इस पर मौज लेते हुये कहा- मामाजी, आप बजरंगबली और नमाजअली के सहारे हो। वे हंसने लगे। बोले ठीक कहते हो!
इसके बावजूद उनकी जिजीविषा और व्यस्तता में कोई कमी नहीं आई है। मुझे जितना उनका लेखन प्रभावित करता है उससे ज्यादा विपरीत परिस्थितियों में उनकी संघर्ष करने का जज्बा प्रभावित करता है। ७४ साल की उमर में भी वे लगातार काम करते हैं। इधर-उधर जाते-आते रहते हैं।
इधर के दिन उनके लिये कुछ ज्यादा ही भारी रहे। खुद की बीमारी के अलावा मामीजी भी गंभीर रूप से बीमार हैं। जब उनको डाक्टरों को दिखाया तो उन लोगों ने कहा-आपने इनको लाने में बहुत देर कर दी। उस समय की अपनी मन:स्थिति को उन्होंने अपनी एक कविता में व्यक्त किया है। यह कविता उनके आपसी संबंधों के बारे में बहुत
कुछ कहती है-
कुछ कहती है-
मैंने पाया है उसे सारा जमाना छोड़कर,
बस समझ लो सांस का आना-जाना छोड़कर।वो मिला तो जन्नतों की सारी दौलत मिल गयी,
दर्द भागा अपना पुश्तैनी ठिकाना छोड़कर।वो मेरे अफसाने का मोतबर किरदार है,
मैं उसे जाने नहीं दूंगा फसाना छोड़कर।
पहले इस गजल की आखिरी लाइन थी- वो गया तो मैं भी चल दूंगा फसाना छोड़कर। बाद में
उनको लगा कि ऐसे बिना संघर्ष किये हार मान लेना कमजोरी है तब उन्होंने गजल का अंत बदला।
उनको लगा कि ऐसे बिना संघर्ष किये हार मान लेना कमजोरी है तब उन्होंने गजल का अंत बदला।
नंदनजी की कविताओं में ईश्वर का जिक्र पहले भी आता रहा है। लेकिन उस जिक्र में भक्त की दीनता कम, भगवान से उलाहना, शिकायत के स्वर हमेशा से प्रधान रहे हैं-
सब कुछ देखकर समरस बने रहना
ओह कितनी बड़ी सजा है
ऐसा ईश्वर बनकर रहना।
कभी युद्द के मैदान में उपदेश देते भगवान से कहते हैं:
योग और क्षेम के
ये पारलौकिक कवच मुझे मत पहनाओ
अगर हिम्मत है तो खुलकर सामने आओ
और जैसे हमारी जिंदगी दांव पर लगी है
वैसे खुद भी लगाओ।
जब से उनकी तबियत खराब हुयी है तब से उनकी कविताओं में भगवान से उलाहने बढ़ गये हैं। कभी वे लिखते हैं-
हर सुबह को कोई दोपहर चाहिए,
मैं परिंदा हूं उड़ने को पर चाहिए।मैंने मांगी दुआएँ, दुआएँ मिलीं
उन दुआओं का मुझपे असर चाहिए।
परेशानियां बढ़ीं तो परवरदिगार के प्रति उनकी नाराजगी भी बढ़ी। न्यूयार्क में उन्होंने शायद पहली बार यह कविता पढ़ी थी-
सब पी गये,पूजा, नमाज बोल प्यार के,
क्या खूब नखरे हैं परवरदिगार के।
हमने जब यह बात उनसे कही – आजकल आपकी कविताओं में भगवान के प्रति उलाहने का स्वर ज्यादा दिखता है। उन्होंने कहा- सही कह रहे हो तुम। असल में मैंने कवितायें कम लिखीं हैं। और जब भी लिखीं हैं कोशिश की है कि जो महसूस करता हूं वही लिखूं।
आपने बातचीत के उन्होंने विश्व हिंदी सम्मेलन के किस्से सुनाये। अनूप भार्गवजी से मुलाकात के बारे में जानकारी दी। अनूप भार्गवजी ने ब्लागिंग के बारे में उनको जितना बताया था उसके बारे में भी जिक्र किया। हमने मौका अच्छा जानकर अपनी दो कवितायें सुना दीं और उनकी शाबासी हथिया ली। अब भानजा होने के नाते इतना तो हक बनता है भाई!
नाश्ता करते-करते दस बज गये। मुझे उन्होंने अपनी दो किताबें दीं। एक तो उनकी आत्मकथा का पहला भाग
है जिसका शीर्षक है- कहां-कहां से गुजरा। इसमें उन्होंने अपने बचपन से लेकर धर्मयुग में
नौकरी ज्वाइन करने तक के किस्से हैं।
है जिसका शीर्षक है- कहां-कहां से गुजरा। इसमें उन्होंने अपने बचपन से लेकर धर्मयुग में
नौकरी ज्वाइन करने तक के किस्से हैं।
एक बात जो उनके व्यक्तित्व की मुझे बहुत अच्छी लगी वो है उनकी संबंधों की गरिमा बनाये रखने की। उनसे जुड़े लगभग सब लोग जानते हैं कि धर्मयुग के ग्यारह साल के समय में धर्मवीर भारती जी के साथ काम करते हुये उनकों बहुत कुछ झेलना पड़ा। उनके साथ के तमाम लोगों ने उनको इस बारे में ,भारतीजी के खिलाफ लिखने के लिये बहुत उकसाया। लेकिन उन्होंने किसी के उकसावे पर लिखना कभी कुबूल नहीं किया। कुछ लोग इस पर उनसे नाराज भी हो गये। अभी भी वे धर्मवीर भारतीजी के बारे में बहुत सम्मान की भावना रखते हैं लेकिन कहते हैं अब जब भारतीजी नहीं हैं तब इस बारे में और सजग होकर लिखना पड़ेगा।
अपनी आत्मकथा के अलावा उन्होंने मुझे एक और किताब भेंट की। ‘खुशबू का लिबास’ नाम की इस किताब में उनके जीवन से जुड़ी तमाम खुशनुमा यादों के चित्र हैं। दुनिया की तमाम नामचीन हस्तियों के साथ उनके फोटो हैं। लेकिन सबसे अच्छा मुझे उन तस्वीरों का प्रस्तुतिकरण लगा। फोटो के साथ किसी का मजेदार पत्र है। परिचय है। किताब की शुरुआत होती है इस कविता पंक्ति के साथ-
जो बहुत खुद में खास होते हैं,
जिंदगानी के बस वही लमहे
खुशबुओं के लिबास होते हैं।
अपने बारे में लिखते हुये अर्ज किया गया है-
कुछ भी तो नहीं था मेरे पास
सिर्फ मुसीबतों में कड़े होते जाने का अहसास
संघर्षों ने मुझे और कड़ा कर दिया है
धीरे-धीरे अनुभवों की आंच ने पकाया
मुझे और बड़ा कर दिया है।
विश्वनाथ सचदेव की फोटो के बगल में विश्वनाथ सचदेव की नंदनजी के बारे में राय भी दिखती है-
इसमें कोई शक नहीं कि नंदन अवसर का उपयोग करना जानते हैं, पर सच यह भी है कि वे अवसर तलाशते भी हैं और बनाते भी हैं। आप इसे कुछ भी नाम दें, यह तय है कि वे चनौतियों के सामने बौने नहीं पड़े। गुनगुनाना नंदन जी का शौक भी है और अदा भी। प्यारे-प्यारे गीत अपने भी और दूसरों के वे अक्सर गुनगुनाते -सुनाते रहते हैं। टेलीफोन पर भी। सच तो यह है कि कई बार टेलीफोन की घंटी बजती है। आप फोन उठाकर हेलो कहते हैं तो उत्तर में कभी किसी गीत की और कभी किसी कविता की पंक्तियां सुनायी देने लगती हैं। यह कम सिर्फ नंदन जी ही कर कर सकते हैं। पर कविता सुनाने का नंदनजी का अंदाज बड़ा प्यारा है। टेलीफोन पर भी और मंच पर भी। बात करते-करते भी अचानक नंदन कविता की दुनिया में पहुंच जाते हैं। अक्सर बात खत्म होती है उनके इस वाक्य से-क्या कर लोगे?
अपने अमेरिका में रहने वाले नाती अंकित की फोटुओं के साथ उसकी चिट्ठी की फोटो भी है। चिट्ठी में नाना, अंकित और अपने भाई के रेखाचित्र भी हैं। चिट्ठी कुछ यों है-
नामस्तं नाना।
वहां का मौसम कैसा है?
या का मौसम गरम होता जाता है।
मैं बोत चिठी लिखन्गा। कविता भी।
कविता
आप कब आओगे हमारे पास
आप कब आओगे हमारे पास
नहीं तो मैं हो जाउन्गा ऊदास।
यह तो मैंने जानकारी दी उस किताब , खुशबू का लिबास के बारे में जिसका असली आनन्द उसे देखकर ही उठाया जाता है , जिसे मुझे देते हुये मामाजी ने किताब पर लिखा- प्रियवर अनूप को ,मेरे जीवन की तमाम-तमाम यादों के साथ, जिनकी साक्षी मेरी प्यारी बहन बिटेऊ है…प्यार और आदर सहित।
यह मात्र संयोग है कि नंदनजी मेरे मामा हैं। लेकिन मैं जब भी उनके बारे में सोचता हूं तो एक ऐसे व्यक्ति के रूप में सोचता हूं जिसने अपने तमाम अभावों के वावजूद अपनी मेहनत,लगन से सफलताओं के शीर्ष छुये। अदम्य जिजीविषा है उनमें जो खुद बीमार होने के बावजूद आपकी खैरियत पहले पूछते हैं। वे मेरे लिये इसलिये आदरणीय हैं कि ७४ साल की उमर में भी वे जितनी मेहनत करते हैं इतनी लोग भरी जवानी में नहीं कर पाते। इसलिये वंदनीय हैं कि जिसको अपना आदरणीय माना उसके बारे में ओछे बयान कभी नहीं दिये। ये विरल गुण हैं जो दिन पर दिन दुर्लभ होते जा रहे हैं।
आज तो जिसे देखो अभिव्यक्ति की आजादी का झंडा लहराते हुये जिसकी मन आये छीछालेदर करते बहादुरी दिखा रहा है।
बात करते-करते दस बज गये। मुझे लेने के लिये अरुण अरोरा आ गये थे। अरुण अरोरा और सृजन शिल्पी मामाजी से मिलने के लिये उत्सुक थे। इसलिये मैंने उनसे कहा कि आप भी चलिये। वे जाने को उत्सुक न थे क्योंकि घर में मामीजी की तबियत खराब थी। बाद में थोड़ी देर के लिये आने के लिये राजी हो गये। हम सिरिल और अरुण अरोरा के साथ चल दिये। पास में ही मैथिलीजी अपने आफिस में मेरा इंतजार कर रहे थे।
मेरी पसंद
मैंने तुम्हें पुकारा लेकिन पास न आ जाना
किसी एक आशा में चहका मन
तो ताड़ गयी
एक उदासी झाड़ू लेकर
सारी खुशियां झाड़ गयी
वही उदासी तुमको छुये
यह मुझको नहीं गवारा
मैंने तुम्हें पुकारा लेकिन पास न आ जाना।मौसम ने सीटी दे दे
मुझको बहुत छला
मैं अभाव का राजा बेटा
पीड़ायें निगला
भटके बादल की प्यासों सा
दहका हुआ अंगारा
मैंने तुम्हे पुकारा लेकिन पास न आ जाना।
कन्हैयालाल नंदन
Posted in बस यूं ही | 22 Responses
अच्छा किया नन्दन जी के निमित्त यह बताया आपने. उनके नाम में भी तो गोविन्द हैं!
नन्दन जी को चरण स्पर्श.
किसी एक आशा में चहका मन
तो ताड़ गयी
एक उदासी झाड़ू लेकर
सारी खुशियां झाड़ गयी
वही उदासी तुमको छुये
यह मुझको नहीं गवारा
मैंने तुम्हें पुकारा लेकिन पास न आ जाना”
अपनी यात्रा के हर पड़ाव पर नयी ज़मीन से ही पड़ा है पाला
ज़मीन जिसे अपनी कह सकें,
उसने कोई रास्ता नहीं निकाला।
कैसे कहूँ कि
विरसे में मैंने यात्राएँ ही पाया है
जिनसे सम्बन्ध नहीं बने उनके प्रति भी ऒछी बात न कहना सचमुच विरल गुण है..
उन्हे मेरी शुभकामनाएं..
निखालिस कितबियानुमा फ़ुरसतिया पोस्ट होती यह तो भी नही अखरता
http://wms17.streamhoster.com/vhs2007/vhs-09.wmv
अगली बार दिल्ली गया तो उन की आत्मकथा और ‘खुशबु का लिबास’ ज़रूर अपनी साथ लाना चाहूँगा ।
नन्दन जी और आप की मामी जी के स्वास्थय की शुभ कामनाओं के साथ।
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मुहब्बत जो मेरे पूरे जनम की कमाई है
जिसे पाने में , और फ़िर ?
फ़िर उसकी अदा को
स्कूल के पहाड़े की तरह याद करनें
सांसों में बसानें में
आधी से ज्यादा उमर गँवाई है
धड़कन की तरह जिसे लगाकर
रखना पड़ता है सीने से
जिसे छुपा कर हर साँस के साथ
जीता रहा करीने से ।
**
आप को याद दिलाऊँ
कि आपको मंदिर में एक बार
घेर कर देर तक स्तुति गाई थी
आप चाहें तो कह लें की थी चापलूसी
परसाद-वरसाद भी चढाया था
तब जाकर आपको थोड़ा तरस आया था
और आपनें मुहब्बत का ये जज़्बा मुझ पर अता फ़रमाया था
***
तो याद आ जायेगी सारी बात
उसी से जुड़ी हुई दिख जायेगी मेरी यह सौगात
जिससे जुड़ गई है अब पूरी ये कायनात !
दर्ज होगी ज़रूर दर्ज होगी
आपके यहाँ रजिस्टर में
यह सारी वारदात
सच मानो, इतना खुश था मैं ..
इतना खुश था कि
नहीं सो पाया था सारी रात ।
**
होगी आपके लिये यह घटना मामूली
मगर मुझे तो आज तक नहीं भूली
**
अब देखो कि ..
जिसे इतना लम्बा समय लगा हो पाने में
कम से कम उतना समय तो लगेगा
उसे भुलानें में
**
हिसाब लगायें
कि इसके लिये साँसो का सिर्फ़ एक झटका
और पूरी स्लेट साफ़ ! ..
यह हिसाब नाकाफ़ी है !
इसे शिकायत न समझें परवरदिगार
यह बराबर का सौदा नहीं हुआ
पानें और भुलानें का अनुपात
सचमुच में नाकाफ़ी है
इसे सुधारिये !
ये न्यायप्रियता ईश्वरीयता में दाग़ है
सरासर नाइंसाफ़ी है
मुसाफ़िर हूँ , मुसलसल सफ़र में हूँ
लेकिन पहले हिसाब तो बराबर करो
जब बराबर हो जायें तो बता देना
ज़ल्दी क्या है, अभी तो सुकून से अपनें घर में हूँ ।
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प्रवीण त्रिवेदी ╬ PRAVEEN TRIVEDI की हालिया प्रविष्टी..हम हैं तो आखिर वही सड़ी मिडिल क्लास मेंटेलिटी वाले