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आठ आने के स्नेह से शुरू हुयी यह मित्र-यात्रा ताजिन्दगी चली। जब देश की तमाम पत्रिकाओं ने परसाईजी के सरकार विरोधी तीखे तेवरों के चलते उनके लेख छापना बंद कर दिया था तब परसाई की कलम को पूरी आजादी दिये कोई बैठा था तो वह था मायाराम सुरजन ’देशबंधु’। इसमें परसाई को छूट थी कि वह महात्मा गांधी से लेकर मायाराम सुरजन तक, सब पर जैसा प्रहार करना चाहें करें।
परसाईजी और मायाराम सुरजनजी के मित्रता संबंधों की एक बानगी उनके आपस में लिखे इस खुले पत्र-व्यवहार से मिलती है।
मायाराम सुरजन द्वारा यह लेख परसाईजी के 1981 में प्रकाशित हरिशंकर परसाई के व्यक्तित्व और कृतित्व पर केन्द्रित पुस्तक आंखन देखी में संकलित है।
काम-काज का यह लेन-देन इकतरफ़ा नहीं है। 1962 में जब मैं ’नई दुनिया’ जबलपुर (अब नवीन दुनिया) से अलग हुआ तो यह निर्णय परसाई का ही था कि मुझे जबलपुर नहीं छोड़ना चाहिये। यह भी लगभग उनका ही फ़ैसला था कि जबलपुर से ही एक दैनिक शुरू किया जाये। अखबार शुरू करने का इरादा तो ठीक है। इसके लिये पूंजी का क्या इंतजाम होगा। सो एक ’पब्लिक लिमिटेड कम्पनी’ बना डाली गयी। गोकि उसमें हजार दो हजार देने वाले चार-छ: लोग भी शामिल हुये लेकिन सौ-सौ रुपये देने वालों की संख्या सैकड़ों में है। रूपराम पान वाले और लोकमन पटेल होटल वाले जैसे अनेक सदस्य परसाई की ही देन हैं।
1949-50 में जब मैं ’दैनिक नवभारत’ के जबलपुर संस्करण के प्रकाशन के सिलसिले में जबलपुर आया तब परसाई को अपने समय के सुयश प्राप्त साप्ताहिक ’प्रहरी’ के माध्यम से पढ़ता-सुनता रहा था। मैं नहीं कह सकता कि उन्होंने लिखना कब शुरू किया,लेकिन मेरा ख्याल है कि ’प्रहरी’ में प्रकशित उनकी रचनायें प्रारंभिक ही रही होंगी। उन दिनों जबलपुर के अधिकांश चोटी के राजनीतिज्ञ साहित्य में भी बराबरी का दखल रखते थे। चाहे स्व. सेठ गोविन्द दास हों या पं द्वारिकाप्रसाद मिश्र, स्व. चौहान दम्पत्ति (श्रीमती सुभद्रा कुमारी चौहान और श्री लक्ष्मणसिंह चौहान) हों या स्व. श्री भवानी प्रसाद तिवारी, राजनीति के साथ साहित्यकारों की श्रेणी में अपना विषिष्ट स्थान बना चुके थे। या यों कहना अधिक ठीक होगा कि वे साहित्यकार होने के साथ ही साथ राजनीति में पूरे दमखम से थे। साहित्य और राजनीति का यह संगम स्वाधीनता संग्राम काल में जितना महाकोशल और विशेषकर जबलपुर में मुखर था , उतना उत्तरप्रदेश के अतिरिक्त देखने में कम ही आया है। शायद व्यक्तिगत तौर पर ऐसे उदाहरण बहुत होंगे किन्तु एक पूरा समाज ही साहित्य और राजनीति में एकरंग हो गया हो, यह विषेषता कम स्थानों पर ही देखी जा सकती थी। आयु के हिसाब से स्व.पं. भवानीप्रसाद तिवारी साहित्य और राजनीति दोनों में ही तरुणों का नेतृत्व करते थे। स्वाभाविक है कि उनके पास तरुण रचनाकारों का जमघट लगा रहता था। ’प्रहरी’ उन दिनों अपनी प्रतिष्ठा के शिखर पर था। इसलिये परसाई भी ’प्रहरी’ समाज के एक मुखर अंग के रूप में उभरे। अपनी विशिष्ट चुटीली शैली के कारण परसाई को अपेक्षित सफ़लता मिलना उनका स्वाभाविक हक है।
इन तीस वर्षों में परसाई और मैं इतने निकट आ गये हैं कि कभी यह सोचने की जरूरत नहीं पड़ी कि हम पहली बार कब और कहां मिले। लेकिन जब स्मृति की परतें कुरेदता हूं तो ख्याल यह आता है कि हम लोगों की पहली मुलाकात स्व. पं. भवानीप्रसाद जी तिवारी के यहां ही हुई थी। वे उन दिनों माडेल हाई स्कूल जबलपुर के शिक्षक थे। शासकीय सेवा में रहते हुये भी उनके पैने व्यंग्य किसी को बख्सते नहीं थे। और 1952 में बालिग मतधिकार के बाद मध्यप्रदेश में जो शासन आया , उसे परसाईजी के व्यंग्य शायद सहन नहीं हुये। एक तो वैसे ही ’प्रहरी’ विरोधी दल का पक्षधर और दूसरे शासन या अधिकारियों पर ऐसी सीधी चोट कि जाहिर तौर पर कोई कार्रवाई मुमकिन न हो। नतीजा साफ़ था लि ऐसे कुटिल व्यक्ति का स्थानान्तरण कर दिया जाये। सो (शायद हरदा) हो गया। मैं उन दिनों तक उनके निकट नहीं आया था। और आ भी गया होता तो उनका ट्रांसफ़र रद्द कराना सम्भव नहीं था क्योंकि वह बहुत ऊंचे स्थान से तय हुआ था। तब तक परसाई कुछ और साहित्यिक पत्रिकाओं में छपना शुरु हो गये थे। अत: उन्होंने सरकारी नौकरी से त्यागपत्र देना ही उचित समझा।
लगभग उन्हीं दिनों ’प्रहरी’ का प्रकाशन स्थगित हो गया। मेरा ख्याल है कि ’प्रहरी’ में प्रकाशन से परसाई को कोई आर्थिक लाभ नहीं होता था। तब उनका नाम भी इतना बड़ा नहीं था । देश के कुछ साहित्यिक पत्रों जिनमें ’कल्पना’ भी शामिल है, उनकी रचनायें जरूर प्रकाशित होतीं थीं। लेकिन जीवन यापन के लिये काफ़ी नहीं था। संयोग कुछ ऐसा कि परसाई का अपना परिवार तो बड़ा नहीं था लेकिन जिम्मेदारियां बहुत थीं। उस पर वे एक विधवा बहिन और उसके 3-4 छोटे बच्चों को अपने साथ रहने के लिये ले आये।
किसी अल्पसिद्धि प्राप्त लेखक को प्रकाशक मिलते ही कहां हैं, वही स्थिति परसाई की हुई। एक तो तब उन्होंने बहुत अधिक कुछ लिखा भी नहीं था। जो लिखा भी था उसमें छोटी रचनायें कम और छोटे-छोटे व्यंग्य अधिक थे। अत: उन्होंने अपनी रचनायें खुद प्रकाशित करने का निश्चय किया। ’हंसते हैं रोते हैं’ उनकी पहली प्रकाशित पुस्तक है। परसाई उसे स्वयं बेचते थे। कीमत डेढ़ रुपया। मित्र समुदाय भी सहायक हुआ। ’हंसते हैं रोते हैं’ की रचनायें छोटी-छोटी ही हैं पर व्यंग्य बहुत पैने हैं। यो तो बहुत लेखकों ने अपनी कृतियां प्रकाशित की हैं, पर इस प्रकाशन की बात ही कुछ अलग थी। यह एक बेरोजगार युवक साहित्यकार के अपने पैरों खड़ा होने का प्रयत्न था।
अपनी कृति को बेचने में यदि झिझक पैदा हो जाती तो शायद परसाई वह न होते जो आज हैं। मुझे याद आता है कि उन्होंने एक पुस्तक बीच बाजार मुझे थमा दी। मैंने सोचा , एक सम्पादक के लिये शायद यह लेखक की भेंट होगी। किन्तु उन्होंने मुझसे पूरे पैसे वसूल लिये। दो रुपये का नोट दिया तो उसे जेब में रखते हुये पुस्तक के पहले पृष्ठ पर लिखा गया ” श्री मायाराम सुरजन को दो रुपये में सस्नेह”। जब मैंने आठ आने वापिस मांगे तो उत्तर मिला- ’क्या आठ आने का स्नेह नहीं हो गया।’ इस उत्तर के बाद हम दोनों हंस दिये। और शायद परसाई और मेरे निकट आने की घटनाओं का यह क्रम शुरू हुआ।
परसाई विचारों से मार्क्सिस्ट हैं, यह कहकर मैं कोई भूल नहीं कर रहा हूं। ऐसी विषम परिस्थियों में रहकर कोई भी सोचने-समझने वाला आदमी मार्क्सवादी हो ही जायेगा। बढ़ती हुई जिम्मेदारियां और घटते आर्थिक स्रोत। समाज की सहानुभूति से ही तो नहीं जिया जा सकता। परसाई को समाज ने मीठे कम, कड़वे ज्यादा अनुभव दिये। लेकिन जीवन की इस कड़वाहट का उन्होंने सदुपयोग किया। वे अपने निराश क्षणों में समाज की सहानुभूति बटोरने में लगने की बजाय आर्थिक प्रसंग में राजनीति और साहित्य का अध्ययन करने में जुट गये। हिन्दी में ऐसे बहुत कम रचनाकार हैं जिन्हें विश्व की राजनीति और साहित्य का इतना सधा हुआ बोध है। सामान्यत: यह माना जाता है कि हिन्दी का लेखक अपने आप में मस्त रहता है। लेकिन परसाई की दृष्टि अपने चारों ओर फ़ैले समाज में उलझी रहती है।
उनकी कोटि का कोई और लेखक जब पहिले दर्जे में यात्रा करता है तो परसाई दूसरे दर्जे में और दिन में यात्रा करना पसन्द करते हैं। ऐसी ही एक बस यात्रा से ऊबते हुए मैंने कहा कि तुम्हारे साथ सारा दिन खराब हो गया और बस के धक्के खाये सो अलग। उनका उत्तर था कि ” दिन की यात्रा में मैं समाज के ज्यादा नजदीक उसे बारीकी से देख पाता हूं। आखिर मेरी रचनाओं के प्लाट यहीं से तो मिलते हैं जब यात्रीगण अपने किसी सहयात्री से अपनी बीती बतियाते हैं, छोटा अफ़सर अपने बड़े अफ़सर की पोल खोलता है या कोई शोषित व्यक्ति अपने शोषक के चर्चे सुनाता है।” अपने प्लाट खोजने के लिये वे जबलपुर से भोपाल की यात्रा सीधी रात्रि ट्रेन से करने के बजाय दिन की पैसिंजर बस से करते हैं!
परसाई की राजनीतिक विचारधारा के सिलसिले में स्व. गजानन माधव मुक्तिबोध और श्री महेन्द्र बाजपेयी का प्रसंग आना बहुत जरूरी है। श्री महेन्द्र बाजपेयी भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के कर्मठ कार्यकर्ता तो रहे ही हैं, अनेक नवयुवकों को वामपंथी विचारधारा में दीक्षित करने का भी उन्हें श्रेय है। मजदूरों को संगठित करते हुये भी वे ’इंटेलुक्चुअल’ क्लास के लोगों से मिलते-जुलते रहे हैं। जबलपुर में ऐसे अनेक पढ़े-लिखे व्यक्ति हैं जो महेन्द्र बाजपेयी के अनवरत प्रयासों के कारण जाने-अनजाने वामपंथी हो गये हैं, भले ही उन्होंने किसी राजनीतिक पार्टी की सदस्यता न ली हो। सरकारी नौकरी छोड़ देने के बाद परसाई के पास काफ़ी समय था, और महेन्द्र बाजपेयी ने उन्हें मार्क्सवादी साहित्य पढ़ने में लगा दिया। निश्चय ही उनकी मार्क्सवादी विचारधारा के पीछे महेन्द्र बाजपेयी की छाप है।
मुक्तिबोध से परसाई प्रारम्भ से ही प्रभावित रहे। जहां तम मुझे स्मरण है , मुक्तिबोध से उनका परिचय नागपुर में हुआ। फ़िर मुक्तिबोध चाहे नागपुर में रहे हों या राजनादगांव में, परसाई का सम्पर्क निरन्तर बना रहा और वे एक-दूसरे की शंकाओं का निराकरण करते रहे। यह प्रक्रिया निजी पत्रों के माध्यम से या ’वसुधा’ के कालमों में चलती रही। यद्यपि परसाई पर मुक्तिबोध का प्रभाव स्पष्ट है फ़िर भी यह कहने में मुझे कोई संकोच नहीं कि मुक्तिबोध भी परसाई से उतने ही प्रभावित रहे। यदि मैं यह कहूं कि मुक्तिबोध को अपनी कोठरी से बाहर निकालने में परसाई का अदृश्य हाथ था , तो जरा भी अतिशयोक्ति नहीं होगी। मुक्तिबोध संकोची स्वभाव के व्यक्ति थे। वर्षों से लिखी जा रही उनकी पाण्डुलिपियां इकट्ठी होती जा रहीं थीं। परसाई ने ही उनके क्रमबद्ध प्रकाशन की व्यवस्था की। मुक्तिबोध और परसाई का साथ मुक्तिबोध के असामयिक निधन से ही छूटा। उनकी बीमारी में राजनादगांव से लेकर भोपाल और दिल्ली तक की व्यवस्था में परसाई कहीं न कहीं प्रयासरत थे। तत्कालीन मुख्यमंत्री पं. द्वारिकाप्रसाद मिश्र या प्रधानमंत्री स्व. लालबहादुर शास्त्री तक उनकी बीमारी का हाल पहुंचाने और इलाज का इंतजाम तो परसाई और उनके मित्रों के माध्यम से हुआ ही लेकिन उनकी बीमारी में लगभग पूरे ही समय परसाई मुक्तिबोध के पास रहे। इन दिनों के वैचारिक आदान-प्रदान ने एक-दूसरे की विचारधारा को और पक्का किया। बीमारी के दौरान भी बहस का यह क्रम घंटो अबाध चलता रहता था।
मायाराम सुरजन
आंखन देखी
< हरिशंकर परसाई :व्यक्तित्व और कृतित्व)
से साभार
……शेष अगली किस्त में
संबंधित कड़ियां:
प्रश्न: पति के हजार अवगुण पत्नी समेट लेती है लेकिन पत्नी का एक भी अवगुण पति बर्दाश्त नहीं कर पाता ऐसा क्यों?
उत्तर: आपको अभी और अनुभव करना चाहिये। मैंने ऐसे कई पति देखे हैं जो पत्नियों के बहुत अवगुण सहते हैं। पत्नी से पिटते तक हैं पर परिवार नहीं तोड़ते। मैंने ऐसे पति देखे हैं जो पत्नी के प्रेमी को अपने घर ले जाते हैं, उसे खिलाते-पिलाते हैं। ये पति पौरुष में कम नहीं होते। वे चाहते हैं, पत्नी अपने प्रेमी को मेरे साथ स्नेहपूर्वक बैठकर खाते-पीते देखकर प्रसन्न हो। इससे परिवार में प्रसन्नता रहे। मनुष्य स्वभाव और भावना बहुत जतिल है। कर्कशा पत्नियों को पति निभा लेते हैं।
पर आपका यह मत सही है कि पति अपने को श्रेष्ठ मानकर, पत्नी का पालक मानकर, उसे सेविका समझकर उसके अवगुण कम बर्दाश्त करता है। इस मामले में स्त्री बहुत सहनशील होती है।
प्रश्न: मेरी महबूबा हमेशा चांद-सितारे तोड़कर ला देने की बात कहती है।
उत्तर: आपकी महबूबा बहुत बेवकूफ़ है। और आप उससे ज्यादा बेवकूफ़ हैं जो ऐसी बेवकूफ़ से मुहब्बत करते हैं। मुझे चांद-सितारे ला दो- यह जब महबूबा कहती है तो उसका मतलन आसमान के चांद सितारों से नहीं होता। उसका मतलब होता है मेरी ख्वाहिश पूरी कर दो। कुछ साड़ी-वाड़ी, टाप्स, पर्स वगैरह चाहती होगी वह। तो ला दीजिये।
प्रश्न: एक मां आठ बच्चों का पालन पूरे त्याग एवं तपस्या के साथ कर सकती है। किन्तु वे आठ बच्चे बड़े होकर अपनी एक मां का पालन नहीं कर सकते क्यों?
उत्तर: ऐसे कितने बच्चे देखे हैं जो बड़े होकर मां का पालन नहीं करते? यह आम बात नहीं है। आम बेटे मां का पालन करते हैं। कई हजार में एक बेटा ऐसा होता होगा, जो मां का पालन न करता हो। इसका कारण है -स्वार्थ और बहू का ओछा स्वार्थी स्वभाव।
प्रश्न: प्रेमिका की शादी जब अपने किसी अभिन्न दोस्त से हो जाये तब क्या करना चाहिये?
उत्तर: यह तो सौभाग्य की बात है कि प्रेमिका की शादी अपने घनिष्ठ मित्र से हो जाय। इससे मित्रता और पक्की होनी चाहिये।
प्रश्न: अगर बात आंखों ही आंखों तक रहे तो उसे आगे किस तरह बढ़ाना चाहिये?
उत्तर: अगर आपको इतना ही नहीं आता तो आंखे मिलाने की झंझट में क्यों पड़े! बात आंखों ही आंखों में नहीं रहती। रास्ता आगे अपने आप सूझ जाता है।
प्रश्न: महिलायें चप्पल घसीटकर क्यों चलती हैं?
उत्तर: मैंने तो महिलाओं को चप्पल घसीटकर चलते नहीं देखा। आपने देखा होगा। आप स्त्री के मुख-मण्डल का सौन्दर्य छोड़कर उसकी चप्पलें क्यों देखते हैं?
प्रश्न: स्त्री हमेशा पुरुष को शक की निगाहों से देखती है, किन्तु पुरुष शक करने से वंचित क्यों रह जाता है?
उत्तर: शक स्त्री-पुरुष दोनों करते हैं। पुरुष स्त्री पर ज्यादा शक करता है क्योंकि उसमें एकाधिकार की भावना होती है। स्त्री पुरुष पर शक अपनी सुरक्षा के लिये करती है।
प्रश्न: जिद्दी व्यक्ति का कोई इलाज……?
उत्तर: जिद्दी व्यक्ति में अक्सर विटामिन बी की कमी होती है। इसी कमी से वह जिद्दी हो जाता है। मोहम्मद अली जिन्ना के शरीर में भी विटामिन बी की कमी थी, इसी कारण पाकिस्तान बनवाने की जिद पर वे अड़ गये थे। पर उनके मरने के बाद यह तथ्य उनके डाक्टर ने बताया। अगर पहले मालूम हो जाता तो महात्मा गांधी किसी तरह जिन्ना को विटामिन बी खिलवा देते या इन्जेक्शन लगवा देते। लार्ड माउन्टबेटन भी जिन्ना को बार बार विटामिन बी दिला पाते। शायद जिन्ना पाकिस्तान की जिद छोड़ देते।
प्रश्न: आपके ऊटपटांग के उत्तरों से हम बोर हो गये हैं। हमें क्या करना चाहिये?
उत्तर: मेरी हालत भी आपकी तरह ही खराब है। मैं भी ऊटपटांग सवालों का जबाब देते-देते बोर हो गया हूं। अभी तक का सबसे ऊटपटांग सवाल आपने ही किया है। आप इस कालम को मत पढ़ा कीजिये। आप तो बच गये। पर मैं नहीं बच सकता। ऊटपटांग सवाल पूछे ही जायेंगे और जबाब देना मेरी मजबूरी है।
हरिशंकर परसाई
परसाई रचनावली भाग 6 से आभार
परसाई- विषवमन धर्मी रचनाकार (भाग 1)
By फ़ुरसतिया on August 23, 2009
हरिशंकर परसाई
परसाई जी के चुटीले और बेधक व्यंग्य लेखन के पीछे क्या कारण थे और एक
हाई स्कूल का मास्टर किस तरह देश का प्रख्यात व्यंग्य लेखक बना यह जानने
के लिये परसाईजी पर उनके समकालीन साथियों के संस्मरण बहुत अच्छा जरिया हैं।
हिन्दी दैनिक देशबन्धु के प्रकाशक मायाराम सुरजन भी उनके ऐसे ही समकालीन
थे। मायाराम सुरजन और परसाई जी का करीब चालीस साल का साथ रहा। अपनी पहली
किताब, जिसकी कीमत ड़ेढ़ रुपये थी, परसाई जी ने मायाराम सुरजन को दो रुपये
में टिका दी। अठन्नी वापस मांगने पर परसाईजी ने जबाब दिया था- क्या आठ आने का स्नेह नहीं हो गया!आठ आने के स्नेह से शुरू हुयी यह मित्र-यात्रा ताजिन्दगी चली। जब देश की तमाम पत्रिकाओं ने परसाईजी के सरकार विरोधी तीखे तेवरों के चलते उनके लेख छापना बंद कर दिया था तब परसाई की कलम को पूरी आजादी दिये कोई बैठा था तो वह था मायाराम सुरजन ’देशबंधु’। इसमें परसाई को छूट थी कि वह महात्मा गांधी से लेकर मायाराम सुरजन तक, सब पर जैसा प्रहार करना चाहें करें।
परसाईजी और मायाराम सुरजनजी के मित्रता संबंधों की एक बानगी उनके आपस में लिखे इस खुले पत्र-व्यवहार से मिलती है।
मायाराम सुरजन द्वारा यह लेख परसाईजी के 1981 में प्रकाशित हरिशंकर परसाई के व्यक्तित्व और कृतित्व पर केन्द्रित पुस्तक आंखन देखी में संकलित है।
विषवमन धर्मी रचनाकार
हरिशंकर परसाई से पहला परिचय हुए लगभग तीस साल हो गये। इतने वर्षों के मित्रता-प्रसंग को सिलसिलेवार लिख पाना यों ही कठिन काम है। तिस पर वह परसाई जैसे व्यक्ति के बारे में जिसकी अपनी निजी जिन्दगी केवल दूसरों की समस्याओं की कहानी हो, अपनी कहने को कुछ नहीं। शायद इस लेख में मुझसे यह अपेक्षा भी नही की जा कि मैं उनके साहित्यिक व्यक्तित्व के बारे में कुछ कहूं। और सच तो यह है कि इस सम्बन्ध में मुझसे अधिकारी वय्क्ति बहुत हैं। मेरी अपनी कठिनाई यह है कि जिस आदमी से कभी उसके सुख-दुख की चर्चा ही न हुई हो उसके निजी जीवन के बारे में क्या लिखूं! जब कभी कोई बात होती भी है तो यही कि अमुक मित्र के यहां मदद करना है या कि अमुक सेमिनार हाथ में लिया है इसे पूरा करना है।काम-काज का यह लेन-देन इकतरफ़ा नहीं है। 1962 में जब मैं ’नई दुनिया’ जबलपुर (अब नवीन दुनिया) से अलग हुआ तो यह निर्णय परसाई का ही था कि मुझे जबलपुर नहीं छोड़ना चाहिये। यह भी लगभग उनका ही फ़ैसला था कि जबलपुर से ही एक दैनिक शुरू किया जाये। अखबार शुरू करने का इरादा तो ठीक है। इसके लिये पूंजी का क्या इंतजाम होगा। सो एक ’पब्लिक लिमिटेड कम्पनी’ बना डाली गयी। गोकि उसमें हजार दो हजार देने वाले चार-छ: लोग भी शामिल हुये लेकिन सौ-सौ रुपये देने वालों की संख्या सैकड़ों में है। रूपराम पान वाले और लोकमन पटेल होटल वाले जैसे अनेक सदस्य परसाई की ही देन हैं।
1949-50 में जब मैं ’दैनिक नवभारत’ के जबलपुर संस्करण के प्रकाशन के सिलसिले में जबलपुर आया तब परसाई को अपने समय के सुयश प्राप्त साप्ताहिक ’प्रहरी’ के माध्यम से पढ़ता-सुनता रहा था। मैं नहीं कह सकता कि उन्होंने लिखना कब शुरू किया,लेकिन मेरा ख्याल है कि ’प्रहरी’ में प्रकशित उनकी रचनायें प्रारंभिक ही रही होंगी। उन दिनों जबलपुर के अधिकांश चोटी के राजनीतिज्ञ साहित्य में भी बराबरी का दखल रखते थे। चाहे स्व. सेठ गोविन्द दास हों या पं द्वारिकाप्रसाद मिश्र, स्व. चौहान दम्पत्ति (श्रीमती सुभद्रा कुमारी चौहान और श्री लक्ष्मणसिंह चौहान) हों या स्व. श्री भवानी प्रसाद तिवारी, राजनीति के साथ साहित्यकारों की श्रेणी में अपना विषिष्ट स्थान बना चुके थे। या यों कहना अधिक ठीक होगा कि वे साहित्यकार होने के साथ ही साथ राजनीति में पूरे दमखम से थे। साहित्य और राजनीति का यह संगम स्वाधीनता संग्राम काल में जितना महाकोशल और विशेषकर जबलपुर में मुखर था , उतना उत्तरप्रदेश के अतिरिक्त देखने में कम ही आया है। शायद व्यक्तिगत तौर पर ऐसे उदाहरण बहुत होंगे किन्तु एक पूरा समाज ही साहित्य और राजनीति में एकरंग हो गया हो, यह विषेषता कम स्थानों पर ही देखी जा सकती थी। आयु के हिसाब से स्व.पं. भवानीप्रसाद तिवारी साहित्य और राजनीति दोनों में ही तरुणों का नेतृत्व करते थे। स्वाभाविक है कि उनके पास तरुण रचनाकारों का जमघट लगा रहता था। ’प्रहरी’ उन दिनों अपनी प्रतिष्ठा के शिखर पर था। इसलिये परसाई भी ’प्रहरी’ समाज के एक मुखर अंग के रूप में उभरे। अपनी विशिष्ट चुटीली शैली के कारण परसाई को अपेक्षित सफ़लता मिलना उनका स्वाभाविक हक है।
इन तीस वर्षों में परसाई और मैं इतने निकट आ गये हैं कि कभी यह सोचने की जरूरत नहीं पड़ी कि हम पहली बार कब और कहां मिले। लेकिन जब स्मृति की परतें कुरेदता हूं तो ख्याल यह आता है कि हम लोगों की पहली मुलाकात स्व. पं. भवानीप्रसाद जी तिवारी के यहां ही हुई थी। वे उन दिनों माडेल हाई स्कूल जबलपुर के शिक्षक थे। शासकीय सेवा में रहते हुये भी उनके पैने व्यंग्य किसी को बख्सते नहीं थे। और 1952 में बालिग मतधिकार के बाद मध्यप्रदेश में जो शासन आया , उसे परसाईजी के व्यंग्य शायद सहन नहीं हुये। एक तो वैसे ही ’प्रहरी’ विरोधी दल का पक्षधर और दूसरे शासन या अधिकारियों पर ऐसी सीधी चोट कि जाहिर तौर पर कोई कार्रवाई मुमकिन न हो। नतीजा साफ़ था लि ऐसे कुटिल व्यक्ति का स्थानान्तरण कर दिया जाये। सो (शायद हरदा) हो गया। मैं उन दिनों तक उनके निकट नहीं आया था। और आ भी गया होता तो उनका ट्रांसफ़र रद्द कराना सम्भव नहीं था क्योंकि वह बहुत ऊंचे स्थान से तय हुआ था। तब तक परसाई कुछ और साहित्यिक पत्रिकाओं में छपना शुरु हो गये थे। अत: उन्होंने सरकारी नौकरी से त्यागपत्र देना ही उचित समझा।
लगभग उन्हीं दिनों ’प्रहरी’ का प्रकाशन स्थगित हो गया। मेरा ख्याल है कि ’प्रहरी’ में प्रकाशन से परसाई को कोई आर्थिक लाभ नहीं होता था। तब उनका नाम भी इतना बड़ा नहीं था । देश के कुछ साहित्यिक पत्रों जिनमें ’कल्पना’ भी शामिल है, उनकी रचनायें जरूर प्रकाशित होतीं थीं। लेकिन जीवन यापन के लिये काफ़ी नहीं था। संयोग कुछ ऐसा कि परसाई का अपना परिवार तो बड़ा नहीं था लेकिन जिम्मेदारियां बहुत थीं। उस पर वे एक विधवा बहिन और उसके 3-4 छोटे बच्चों को अपने साथ रहने के लिये ले आये।
किसी अल्पसिद्धि प्राप्त लेखक को प्रकाशक मिलते ही कहां हैं, वही स्थिति परसाई की हुई। एक तो तब उन्होंने बहुत अधिक कुछ लिखा भी नहीं था। जो लिखा भी था उसमें छोटी रचनायें कम और छोटे-छोटे व्यंग्य अधिक थे। अत: उन्होंने अपनी रचनायें खुद प्रकाशित करने का निश्चय किया। ’हंसते हैं रोते हैं’ उनकी पहली प्रकाशित पुस्तक है। परसाई उसे स्वयं बेचते थे। कीमत डेढ़ रुपया। मित्र समुदाय भी सहायक हुआ। ’हंसते हैं रोते हैं’ की रचनायें छोटी-छोटी ही हैं पर व्यंग्य बहुत पैने हैं। यो तो बहुत लेखकों ने अपनी कृतियां प्रकाशित की हैं, पर इस प्रकाशन की बात ही कुछ अलग थी। यह एक बेरोजगार युवक साहित्यकार के अपने पैरों खड़ा होने का प्रयत्न था।
अपनी कृति को बेचने में यदि झिझक पैदा हो जाती तो शायद परसाई वह न होते जो आज हैं। मुझे याद आता है कि उन्होंने एक पुस्तक बीच बाजार मुझे थमा दी। मैंने सोचा , एक सम्पादक के लिये शायद यह लेखक की भेंट होगी। किन्तु उन्होंने मुझसे पूरे पैसे वसूल लिये। दो रुपये का नोट दिया तो उसे जेब में रखते हुये पुस्तक के पहले पृष्ठ पर लिखा गया ” श्री मायाराम सुरजन को दो रुपये में सस्नेह”। जब मैंने आठ आने वापिस मांगे तो उत्तर मिला- ’क्या आठ आने का स्नेह नहीं हो गया।’ इस उत्तर के बाद हम दोनों हंस दिये। और शायद परसाई और मेरे निकट आने की घटनाओं का यह क्रम शुरू हुआ।
परसाई विचारों से मार्क्सिस्ट हैं, यह कहकर मैं कोई भूल नहीं कर रहा हूं। ऐसी विषम परिस्थियों में रहकर कोई भी सोचने-समझने वाला आदमी मार्क्सवादी हो ही जायेगा। बढ़ती हुई जिम्मेदारियां और घटते आर्थिक स्रोत। समाज की सहानुभूति से ही तो नहीं जिया जा सकता। परसाई को समाज ने मीठे कम, कड़वे ज्यादा अनुभव दिये। लेकिन जीवन की इस कड़वाहट का उन्होंने सदुपयोग किया। वे अपने निराश क्षणों में समाज की सहानुभूति बटोरने में लगने की बजाय आर्थिक प्रसंग में राजनीति और साहित्य का अध्ययन करने में जुट गये। हिन्दी में ऐसे बहुत कम रचनाकार हैं जिन्हें विश्व की राजनीति और साहित्य का इतना सधा हुआ बोध है। सामान्यत: यह माना जाता है कि हिन्दी का लेखक अपने आप में मस्त रहता है। लेकिन परसाई की दृष्टि अपने चारों ओर फ़ैले समाज में उलझी रहती है।
उनकी कोटि का कोई और लेखक जब पहिले दर्जे में यात्रा करता है तो परसाई दूसरे दर्जे में और दिन में यात्रा करना पसन्द करते हैं। ऐसी ही एक बस यात्रा से ऊबते हुए मैंने कहा कि तुम्हारे साथ सारा दिन खराब हो गया और बस के धक्के खाये सो अलग। उनका उत्तर था कि ” दिन की यात्रा में मैं समाज के ज्यादा नजदीक उसे बारीकी से देख पाता हूं। आखिर मेरी रचनाओं के प्लाट यहीं से तो मिलते हैं जब यात्रीगण अपने किसी सहयात्री से अपनी बीती बतियाते हैं, छोटा अफ़सर अपने बड़े अफ़सर की पोल खोलता है या कोई शोषित व्यक्ति अपने शोषक के चर्चे सुनाता है।” अपने प्लाट खोजने के लिये वे जबलपुर से भोपाल की यात्रा सीधी रात्रि ट्रेन से करने के बजाय दिन की पैसिंजर बस से करते हैं!
परसाई की राजनीतिक विचारधारा के सिलसिले में स्व. गजानन माधव मुक्तिबोध और श्री महेन्द्र बाजपेयी का प्रसंग आना बहुत जरूरी है। श्री महेन्द्र बाजपेयी भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के कर्मठ कार्यकर्ता तो रहे ही हैं, अनेक नवयुवकों को वामपंथी विचारधारा में दीक्षित करने का भी उन्हें श्रेय है। मजदूरों को संगठित करते हुये भी वे ’इंटेलुक्चुअल’ क्लास के लोगों से मिलते-जुलते रहे हैं। जबलपुर में ऐसे अनेक पढ़े-लिखे व्यक्ति हैं जो महेन्द्र बाजपेयी के अनवरत प्रयासों के कारण जाने-अनजाने वामपंथी हो गये हैं, भले ही उन्होंने किसी राजनीतिक पार्टी की सदस्यता न ली हो। सरकारी नौकरी छोड़ देने के बाद परसाई के पास काफ़ी समय था, और महेन्द्र बाजपेयी ने उन्हें मार्क्सवादी साहित्य पढ़ने में लगा दिया। निश्चय ही उनकी मार्क्सवादी विचारधारा के पीछे महेन्द्र बाजपेयी की छाप है।
मुक्तिबोध से परसाई प्रारम्भ से ही प्रभावित रहे। जहां तम मुझे स्मरण है , मुक्तिबोध से उनका परिचय नागपुर में हुआ। फ़िर मुक्तिबोध चाहे नागपुर में रहे हों या राजनादगांव में, परसाई का सम्पर्क निरन्तर बना रहा और वे एक-दूसरे की शंकाओं का निराकरण करते रहे। यह प्रक्रिया निजी पत्रों के माध्यम से या ’वसुधा’ के कालमों में चलती रही। यद्यपि परसाई पर मुक्तिबोध का प्रभाव स्पष्ट है फ़िर भी यह कहने में मुझे कोई संकोच नहीं कि मुक्तिबोध भी परसाई से उतने ही प्रभावित रहे। यदि मैं यह कहूं कि मुक्तिबोध को अपनी कोठरी से बाहर निकालने में परसाई का अदृश्य हाथ था , तो जरा भी अतिशयोक्ति नहीं होगी। मुक्तिबोध संकोची स्वभाव के व्यक्ति थे। वर्षों से लिखी जा रही उनकी पाण्डुलिपियां इकट्ठी होती जा रहीं थीं। परसाई ने ही उनके क्रमबद्ध प्रकाशन की व्यवस्था की। मुक्तिबोध और परसाई का साथ मुक्तिबोध के असामयिक निधन से ही छूटा। उनकी बीमारी में राजनादगांव से लेकर भोपाल और दिल्ली तक की व्यवस्था में परसाई कहीं न कहीं प्रयासरत थे। तत्कालीन मुख्यमंत्री पं. द्वारिकाप्रसाद मिश्र या प्रधानमंत्री स्व. लालबहादुर शास्त्री तक उनकी बीमारी का हाल पहुंचाने और इलाज का इंतजाम तो परसाई और उनके मित्रों के माध्यम से हुआ ही लेकिन उनकी बीमारी में लगभग पूरे ही समय परसाई मुक्तिबोध के पास रहे। इन दिनों के वैचारिक आदान-प्रदान ने एक-दूसरे की विचारधारा को और पक्का किया। बीमारी के दौरान भी बहस का यह क्रम घंटो अबाध चलता रहता था।
मायाराम सुरजन
आंखन देखी
< हरिशंकर परसाई :व्यक्तित्व और कृतित्व)
से साभार
……शेष अगली किस्त में
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मेरी पसंद
[परसाईजी देशबन्धु अखबार में अपने पाठकों के प्रश्नों के उत्तर देते थे। स्तम्भ का नाम था- पूछिये परसाई से।ज्यादातर प्रश्न छोटे कस्बों के लोग पूछते थे। पहले अधिकतर हल्के और इश्किया फ़िल्मी प्रश्न पूछे जाते थे। धीरे-धीरे परसाईजी ने लोगों को गम्भीर सामाजिक -राजनैतिक प्रश्नों की ओर प्रवृत्त किया। दायरा अंतर्राष्ट्रीय हो गया। उन्हीं में से कुछ हल्के-फ़ुल्के सवाल-जबाब यहां पेश हैं]प्रश्न: पति के हजार अवगुण पत्नी समेट लेती है लेकिन पत्नी का एक भी अवगुण पति बर्दाश्त नहीं कर पाता ऐसा क्यों?
उत्तर: आपको अभी और अनुभव करना चाहिये। मैंने ऐसे कई पति देखे हैं जो पत्नियों के बहुत अवगुण सहते हैं। पत्नी से पिटते तक हैं पर परिवार नहीं तोड़ते। मैंने ऐसे पति देखे हैं जो पत्नी के प्रेमी को अपने घर ले जाते हैं, उसे खिलाते-पिलाते हैं। ये पति पौरुष में कम नहीं होते। वे चाहते हैं, पत्नी अपने प्रेमी को मेरे साथ स्नेहपूर्वक बैठकर खाते-पीते देखकर प्रसन्न हो। इससे परिवार में प्रसन्नता रहे। मनुष्य स्वभाव और भावना बहुत जतिल है। कर्कशा पत्नियों को पति निभा लेते हैं।
पर आपका यह मत सही है कि पति अपने को श्रेष्ठ मानकर, पत्नी का पालक मानकर, उसे सेविका समझकर उसके अवगुण कम बर्दाश्त करता है। इस मामले में स्त्री बहुत सहनशील होती है।
प्रश्न: मेरी महबूबा हमेशा चांद-सितारे तोड़कर ला देने की बात कहती है।
उत्तर: आपकी महबूबा बहुत बेवकूफ़ है। और आप उससे ज्यादा बेवकूफ़ हैं जो ऐसी बेवकूफ़ से मुहब्बत करते हैं। मुझे चांद-सितारे ला दो- यह जब महबूबा कहती है तो उसका मतलन आसमान के चांद सितारों से नहीं होता। उसका मतलब होता है मेरी ख्वाहिश पूरी कर दो। कुछ साड़ी-वाड़ी, टाप्स, पर्स वगैरह चाहती होगी वह। तो ला दीजिये।
प्रश्न: एक मां आठ बच्चों का पालन पूरे त्याग एवं तपस्या के साथ कर सकती है। किन्तु वे आठ बच्चे बड़े होकर अपनी एक मां का पालन नहीं कर सकते क्यों?
उत्तर: ऐसे कितने बच्चे देखे हैं जो बड़े होकर मां का पालन नहीं करते? यह आम बात नहीं है। आम बेटे मां का पालन करते हैं। कई हजार में एक बेटा ऐसा होता होगा, जो मां का पालन न करता हो। इसका कारण है -स्वार्थ और बहू का ओछा स्वार्थी स्वभाव।
प्रश्न: प्रेमिका की शादी जब अपने किसी अभिन्न दोस्त से हो जाये तब क्या करना चाहिये?
उत्तर: यह तो सौभाग्य की बात है कि प्रेमिका की शादी अपने घनिष्ठ मित्र से हो जाय। इससे मित्रता और पक्की होनी चाहिये।
प्रश्न: अगर बात आंखों ही आंखों तक रहे तो उसे आगे किस तरह बढ़ाना चाहिये?
उत्तर: अगर आपको इतना ही नहीं आता तो आंखे मिलाने की झंझट में क्यों पड़े! बात आंखों ही आंखों में नहीं रहती। रास्ता आगे अपने आप सूझ जाता है।
प्रश्न: महिलायें चप्पल घसीटकर क्यों चलती हैं?
उत्तर: मैंने तो महिलाओं को चप्पल घसीटकर चलते नहीं देखा। आपने देखा होगा। आप स्त्री के मुख-मण्डल का सौन्दर्य छोड़कर उसकी चप्पलें क्यों देखते हैं?
प्रश्न: स्त्री हमेशा पुरुष को शक की निगाहों से देखती है, किन्तु पुरुष शक करने से वंचित क्यों रह जाता है?
उत्तर: शक स्त्री-पुरुष दोनों करते हैं। पुरुष स्त्री पर ज्यादा शक करता है क्योंकि उसमें एकाधिकार की भावना होती है। स्त्री पुरुष पर शक अपनी सुरक्षा के लिये करती है।
प्रश्न: जिद्दी व्यक्ति का कोई इलाज……?
उत्तर: जिद्दी व्यक्ति में अक्सर विटामिन बी की कमी होती है। इसी कमी से वह जिद्दी हो जाता है। मोहम्मद अली जिन्ना के शरीर में भी विटामिन बी की कमी थी, इसी कारण पाकिस्तान बनवाने की जिद पर वे अड़ गये थे। पर उनके मरने के बाद यह तथ्य उनके डाक्टर ने बताया। अगर पहले मालूम हो जाता तो महात्मा गांधी किसी तरह जिन्ना को विटामिन बी खिलवा देते या इन्जेक्शन लगवा देते। लार्ड माउन्टबेटन भी जिन्ना को बार बार विटामिन बी दिला पाते। शायद जिन्ना पाकिस्तान की जिद छोड़ देते।
प्रश्न: आपके ऊटपटांग के उत्तरों से हम बोर हो गये हैं। हमें क्या करना चाहिये?
उत्तर: मेरी हालत भी आपकी तरह ही खराब है। मैं भी ऊटपटांग सवालों का जबाब देते-देते बोर हो गया हूं। अभी तक का सबसे ऊटपटांग सवाल आपने ही किया है। आप इस कालम को मत पढ़ा कीजिये। आप तो बच गये। पर मैं नहीं बच सकता। ऊटपटांग सवाल पूछे ही जायेंगे और जबाब देना मेरी मजबूरी है।
हरिशंकर परसाई
परसाई रचनावली भाग 6 से आभार
डा.अनुराग: आपके आग्रह् पर अगली पोस्ट फ़िर कल ही टाइप कर दी। यह अपने सुकून के लिये भी था कि परसाईजी के जीवन के बारे में बहुत कम लोग् जानते हैं।
गणेश उत्सव पर्व की हार्दिक शुभकामना
महेन्द्र मिश्र: शुक्रिया।
आभार आपका चेहरे पर मुस्कान लाने के लिए
वैसे देशब्न्धु अब अवसान के दौर में है। दुख होता है।
पाबला: आपकी प्रतिक्रिया देखकर दिन भर की टाइपिंग की मेहनत सार्थक हो गयी।
और भी लाईये.
आपका आभार.
समीरलाल: ले आये हैं अगली पोस्ट में। उधर देखो।
आभार सुन्दर एवम लम्ब्ब्ब्ब्ब्ब्ब्ब्ब्ब्ब्ब्ब्ब्बा पढवाने के लिऍ
गणेशचतुर्ती पर हार्दिक मगलकामनाऍ।यह पढने के लिये किल्क करे।
हिन्दी ब्लोग जगत के चहूमुखी विकास की कामना सिद्धिविनायक से
मुम्बई-टाईगर
SELECTION & COLLECTION
मुम्बई टाइगर: शुक्रिया। हम तो ऐसे ही पढ़ते हैं जी। ई जबरियन काहे पढ़वाते हो भैये!
रचनाधर्मियों की मत पूँछिये ! हाँ सही है पत्नियां कर्कशा पतियों को शायद न झेल पाए पर कर्कशा नारियों को आजीवन शांत भाव से साहित्यकारों को झेलता हुआ देखा पाया गया है ! आगे बात बहुत पर्सनल हो जायेगी !
डा.अरविन्द मिश्र: बच्चनजी की प्राथमिकतायें अलग रही होंगी। उन्होंने नौकरी पाने के लिये जतन किये। परसाईजी ने लिखने के लिये नौकरी छोड़ी। उनको अपने लिखे का मसाला फ़र्स्ट क्लास में मिलता होगा। परसाईजी को जनता के पास। बात पर्सनल हो जाने के डर से भले ही आपने अपना दर्द नहीं बताया लेकिन हम कुछ-कुछ समझ रहे हैं।
रामराम.
ताऊजी: अगली किस्त भी लगा दी है नमन करने के लिये।
शेफ़ाली जी: प्रिय लेखक को तो ध्यान से ही पढ़ना चाहिये। चश्मा लगाकर!
प्रमेन्द्र: किताब तो अब तुम्ही छपवाओ हमारी। सब लेख वहां हैं ही नेट पर।
प्रश्न: जिद्दी व्यक्ति का कोई इलाज……?
उत्तर: जिद्दी व्यक्ति में अक्सर विटामिन बी की कमी होती है। इसी कमी से वह जिद्दी हो जाता है। मोहम्मद अली जिन्ना के शरीर में भी विटामिन बी की कमी थी, इसी कारण पाकिस्तान बनवाने की जिद पर वे अड़ गये थे। पर उनके मरने के बाद यह तथ्य उनके डाक्टर ने बताया। अगर पहले मालूम हो जाता तो महात्मा गांधी किसी तरह जिन्ना को विटामिन बी खिलवा देते या इन्जेक्शन लगवा देते। लार्ड माउन्टबेटन भी जिन्ना को बार बार विटामिन बी दिला पाते। शायद जिन्ना पाकिस्तान की जिद छोड़ देते।
जसवंत सिंह जी ने यह पढ़ा होता तो आज इस तरह के हालात नहीं होते. वे अपने शरीर में विटामिन-बी की कमी करवाकर जिद्दी हो लेते और पार्टी से नहीं निकलते.
शिवजी: प्रस्तुति के लिये धन्यवाद का हकदार वो भाई है जिसने परसाईजी से यह सवाल पूछा था और परसाईजी हैं। वैसे विटामिन बी की खपत तो ब्लाग जगत में भी बहुत हो जायेगी।
धन्यवाद अनूप जी इस श्रृंखला के लिए
चंदन कुमार मिश्र की हालिया प्रविष्टी..एक बार फ़िर आ जाओ (गाँधी जी पर एक गीत)
चलो चलेगा बहुत उम्दा , छा गये महाराज
गिरीश बिल्लोरे की हालिया प्रविष्टी..तुम परसाई जी के शहर से हो..?