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क्या देह ही है सब कुछ?
By फ़ुरसतिया on August 26, 2009
वे हिन्दी ब्लागिंग के शुरुआती दिन थे। साथी ब्लागरों को लिखने के लिये उकसाने के लिये देबाशीष ने अनुगूंज का विचार सामने रखा। इसमें एक दिये विषय पर लोगों को लिखना था। लिखने के बाद अक्षरग्राम पर लेखों की समीक्षा होती। पहली अनुगूंज का विषय था- क्या देह ही है सब कुछ? 25 अक्टूबर को इसकी घोषणा हुई! देबाशीष के न्योते पर नीरव ने इसका आयोजन किया- इस शेर के साथ:
समीक्षा में मेरा शुरू में मेरा लेख छूट जाने पर हमने मौज ली तो जीतेन्द्र ने लिखा:
हमने टिपियाते हुये लिखा:
ये हमारा ब्लागिंग का दूसरा महीना था। हमारी पोस्टें शुरुआतै से जीतेन्द्र के सर के ऊपर से निकल जाती थी (शुरू से ही अदब से सर झुका के पढ़ते थे बेचारे। शुरुआती नोक-झोंक को दुबारा पढ़ना मजेदार अनुभव है।
इस विषय पर देबू के लेख से ही मुझे यह पता चला कि आदमी-औरत के बीच हुकअप संबंध भी कोई संबंध होते हैं। हुकअप संबंध मतलब रात गयी बात गयी वाले जिस्मानी रिश्ते।
पुराना लेख हमने विन्डो 98 में छहरी की सहायता से टाइप किया था। उन दिनों हम पूर्णविराम नहीं लगाते थे और ड़ में नीचे बिन्दी लगाना नहीं जानते थे। बिन्दी बगल में लगाकर
ङ लिखते थे।
मेरा मानना है कि ब्लागजगत मे सबसे बेहतरीन लेख अगर संकलित करने हों तो उनमें से काफ़ी लेख अनुगूंज में मिलेंगे। इसी बहाने आपको फ़िर से पढ़ा रहे हैं अपना अनुगूंज का पहला लेख- क्या देह ही है सब कुछ?
मुझे लगा कि कमी देह में नहीं, देह-दर्शन की तरकीब तरीके में है। और बेहतर तरीका अपनाता तो शायद जवाब पूरा हां में मिलता-हां,देह ही सब कुछ है।
जैसा कि बताया गया कि युवावर्ग में बढते शारीरिक आकर्षण और सेक्स के सहारे चुनाव जीतने के प्रयासों से आजिज आकर विषय रखा गया। तो भाई इसमें अनहोनी क्या है? युवाओं में शारीरिक आकर्षण तो स्वाभाविक पृवत्ति है। सेक्स का सहारा लेकर चुनाव जीतने का तरीका नौसिखिया अमेरिका हमें क्या सिखायेगा?
जो वहां आज हो रहा है वह हम युगों-युगों से करते आये है। मेनकाओं अप्सराओं की पूरी ब्रिगेड इसी काम में तैनात रहती थी। जहां इन्द्र का सिंहासन हिला नहीं ,दौड़ पड़ती अप्सरायें काबू पाने के लिये खतरे पर। राजाओं,गृहस्थों की कौन कहे बड़े-बड़े ऋषि-मुनियों के लंगोट ढीले करते रही हैं ये सुन्दरियां। इनके सामने ये अमेरिकी क्या ठहरेंगे जिनका लंगोट से “हाऊ डु यू डू तक“नहीं हुआ।
असम के तमाम आतंकवादी जिनका पुलिस की गोलियां कुछ नहीं बिगाड़ पायी वो नजरों के तीर से घायल होकर आजीवान कारावास(कुछ दिन जेल,बाकी दिन गृहस्थी) की सजा भुगतने को स्वेच्छा से समर्पणकर चुके हैं।
देह प्रदर्शन की बढती पृवत्ति का कारण वैज्ञानिक है। दुनिया में तमाम कारणों से गर्मी (ग्लोबल वार्मिंग)बढ रही है। गर्मी बढेगी तो कपड़े उतरेंगे ही। कहां तक झेलेंगे गर्मी?यह प्रदूषण तो बढना ही है। जब शरीर के तत्वों(क्षिति,जल,पावक ,गगन,समीरा)में प्रदूषण बढ रहा है तो शरीर बिना प्रदूषित हुये कैसे रह सकता है?
यह भ्रम है कि शारीरिक आकर्षण का हमला केवल युवाओं पर होता है। राजा ययाति अपने चौथेपन में भी कामपीड़ित रहे। कामाग्नि को पूरा करने के लिये ययाति ने अपने युवा पुत्र से यौवन उधार मांगा और मन की मुराद पूरी की। हर दरोगा उधार पर मजे करता है।
केशव को शिकायत रही कि उनके समय में खिजाब का चलन नहीं था और सुंदरियां उन्हें बाबा कहती थीं:-
पिछले दिनों आस्ट्रेलियन विश्वसुन्दरी मंच पर कार्यक्रम प्रस्तुत कर रहीं थीं। बेचारी स्कर्ट अपना और सुंदरी के सौंदर्यभार को संभाल न सकी|सरक गयी| संदरी ने पहले शर्म का प्रदर्शन किया फिर समझदारी का| स्टेज से पर्दे के पीछे चली गयी| हफ्तों निम्न बातें चर्चा में रहीं:-
2.स्कर्ट भारी थी जो कि सरक गयी।
3.सुंदरी ने जो अंडरवियर पहना था वह सस्ता ,चलताऊ किस्म का था।
4.सुंदरी के शरमाने का कारण स्कर्ट का गिर जाना उतना नहीं था जितना साधारण, सस्ता अंडरवियर पहने हुये पकङे जाना था।
इस हफ्तों चली चर्चा में देह का जिक्र कहीं नहीं आया। देह ,वह भी विश्वसुंदरी की,नेपथ्य में चली गयी। चर्चित हुयी सुन्दरी की भारी स्कर्ट,साधारण अंडरवियर और उसका दिमाग।
तो इससे साबित होता है कि कुछ नही है देह सिवा माध्यम के। सामान बेचने का माध्यम। उपभोक्तावाद का हथियार। उसकी अहमियत तभी तक है जब तक वह बिक्री में सक्षम है। जहां वह चुकी -वहां फिकी।
आज ऐश्वर्या राय का जन्मदिन है। सबेरे से टीवी पर छायी हैं। दर्शकों का सारा ध्यान उसके गहनों,कपङों, मेकअप पर है। उसका नीर-क्षीर विवेचन कर रहें हैं। सम्पूर्णता में उसका सौंदर्य उपेक्षित हो गया। यह विखंडन कारी दर्शन आदमी को आइटम बना देता है।
प्रेम संबंध भी आजकल स्टेटस सिंबल हो गये हैं। जिस युवा के जितने ज्यादा प्रेमी प्रेमिका होते हैं वह उतना ही सफल स्मार्ट माना जाता है। प्रेमी प्रेमिका भी आइटम हो चुके हैं। यही उपभोक्तावाद है।
मेरी तो कामना है कि युवाओं में खूब आकर्षण बढे शरीर के प्रति। पर यह आकर्षण लुच्चई में न बदले। यह आकर्षण युवाओं में सपने देखने और उन्हें हकीकत में बदलने का जज्बा पैदा करे। साथी के प्रति आकर्षण उनमें इतनी हिम्मत पैदा कर सके कि उनके साथ जुङने ,शादी करने की बात करने पर ,स्थितियां विपरीत होने पर उनमें श्रवण कुमार की आत्मा न हावी हो जाये और दहेज के लिये वो मां-बाप के बताये खूंटे से बंधने के लिये न तैयार हो जायें।
फिलहाल तो जिस देह का हल्ला है चारो तरफ वह कुछ नहीं है सिर्फ पैकिंग है। ज्यादा जरूरी है सामान। जब पैकिंग अपने अंदर सबसे ऊपर रखे सामान (दिमाग)पर हावी होती है तो समझिये कि सामान में कुछ गड़बड़ है।
अंग-अंग चंदन वन हो गया.
बोल है कि वेद की ऋचायें
सांसों में सूरज उग आयें
आखों में ऋतुपति के छंद तैरने लगे
मन सारा नील गगन हो गया.
गंध गुंथी बाहों का घेरा
जैसे मधुमास का सवेरा
फूलों की भाषा में देह बोलने लगी
पूजा का एक जतन हो गया.
पानी पर खीचकर लकीरें
काट नहीं सकते जंजीरें
आसपास अजनबी अधेरों के डेरे हैं
अग्निबिंदु और सघन हो गया.
एक नाम अधरों पर आया,
अंग-अंग चंदन वन हो गया.
—कन्हैयालाल नंदन
प्यार का पहला खत लिखने में वक्त तो लगता है,लोगों ने लेख लिखे उनकी समीक्षा हुई! हमने भी लिखा लेकिन उसकी समीक्षा छूट गयी थी शुरू में! फ़िर अलग से पंकज नरूला उर्फ़ मिर्ची सेठ ने इसके बारे में लिखा फुरसतिया जी की देह!
नये परिंदों को उड़ने में वक्त तो लगता है।
समीक्षा में मेरा शुरू में मेरा लेख छूट जाने पर हमने मौज ली तो जीतेन्द्र ने लिखा:
अब गुस्सा थूक भी दो यार… गलतिया इन्सानो से ही होती है.वैसे भी यह पहला आयोजन था… बात बनते बनते बनती है. और अनूप भाई, इतनी कठिन हिन्दी लिखते हो कि कभी कभी ऊपर से निकल जाती है, कम से कम,साथ मे, शब्दों के अर्थ ही लिख दिया करो, बहुत मगजमारी करनी पड़ती है. अब बन्धुवर मेरे से नाराज ना हो जाना.
हमने टिपियाते हुये लिखा:
बंधुवर बुरा मानने, गुस्सा करने की आदत हम बहुत पहले छोङ चुके हैं. ले – देकर एक आदत बचा पाये हैं ,मौज लेने की ,सो भी तुम(देबू / जीतू)छुङाना चाहते हो. आप लोगों की इस दादागीरी से कोई बचाने वाला कोई नहीं क्या यहां चौपाल में ?
ये हमारा ब्लागिंग का दूसरा महीना था। हमारी पोस्टें शुरुआतै से जीतेन्द्र के सर के ऊपर से निकल जाती थी (शुरू से ही अदब से सर झुका के पढ़ते थे बेचारे। शुरुआती नोक-झोंक को दुबारा पढ़ना मजेदार अनुभव है।
इस विषय पर देबू के लेख से ही मुझे यह पता चला कि आदमी-औरत के बीच हुकअप संबंध भी कोई संबंध होते हैं। हुकअप संबंध मतलब रात गयी बात गयी वाले जिस्मानी रिश्ते।
ब्लागजगत मे सबसे बेहतरीन लेख अगर संकलित करने हों तो उनमें से काफ़ी लेख अनुगूंज में मिलेंगे
अपने लेख में मैंने एक आस्ट्रेलियन सुन्दरी का जिक्र किया था। जीतेन्द्र ने उस समय आग्रह किया था-तनिक आस्ट्रेलियन सुन्दरी के स्कर्ट प्रकरण पर पूरा प्रकाश डाला जाये! उस समय तो विवरण नहीं मिला लेकिन आज उस घटना की फोटो का लिंक खास तौर से जीतेन्द्र के लिये दे रहे हैं (बाकी लोग देखें तो भी कोई हर्जा नहीं)। पुराना लेख हमने विन्डो 98 में छहरी की सहायता से टाइप किया था। उन दिनों हम पूर्णविराम नहीं लगाते थे और ड़ में नीचे बिन्दी लगाना नहीं जानते थे। बिन्दी बगल में लगाकर
ङ लिखते थे।
मेरा मानना है कि ब्लागजगत मे सबसे बेहतरीन लेख अगर संकलित करने हों तो उनमें से काफ़ी लेख अनुगूंज में मिलेंगे। इसी बहाने आपको फ़िर से पढ़ा रहे हैं अपना अनुगूंज का पहला लेख- क्या देह ही है सब कुछ?
क्या देह ही है सब कुछ?
क्या देह ही है सब कुछ? इस सवाल का जवाब पाने के लिये मैं कई बार अपनी देह को घूर निहार चुका हूं-दर्पण में। बेदर्दी आईना हर बार बोला निष्ठुरता से-नहीं,कुछ नहीं है(तुम्हारी)देहें। मुझे लगा शायद यह दर्पण पसीजेगा नहीं। मुझे याद आयावासिफ मियां का शेर:साफ आईनों में चेहरे भी नजर आते हैं साफ,तो साहब,हम आईना-बदल किये। अधेड़ गृहस्थ आईने की शरण ली। यह कुछ दयावान था। पसीज गया। बोला-सब कुछ तो नहीं पर बहुत कुछ है देह।
धुंधला चेहरा हो तो धुंधला आईना भी चाहिये.
मुझे लगा कि कमी देह में नहीं, देह-दर्शन की तरकीब तरीके में है। और बेहतर तरीका अपनाता तो शायद जवाब पूरा हां में मिलता-हां,देह ही सब कुछ है।
दुनिया
में पांच अरब देहें विचरती हैं। नखशिख-आवृता से लेकर दिगंबरा तक। मजबूरन
नंगी देह से लेकर शौकिया नंगई तक पसरा है देह का साम्राज्य।
दुनिया में पांच अरब देहें विचरती हैं। नखशिख-आवृता से लेकर दिगंबरा तक।
मजबूरन नंगी देह से लेकर शौकिया नंगई तक पसरा है देह का साम्राज्य। इन दो
पाटों के बीच ब्रिटेनिका(5०:5०)बिस्कुट की तरह बिचरती हैं-मध्यमार्गी देह।
यथास्थिति बनाये रखने में अक्षम होने पर ये मध्यमार्गियां शौकिया या मजबूरन
नंगई की तरफ अग्रसर होती हैं। भी-कभी भावुकता का दौरा पङने पर पूंछती हैं-क्या देह ही सब कुछ है!जैसा कि बताया गया कि युवावर्ग में बढते शारीरिक आकर्षण और सेक्स के सहारे चुनाव जीतने के प्रयासों से आजिज आकर विषय रखा गया। तो भाई इसमें अनहोनी क्या है? युवाओं में शारीरिक आकर्षण तो स्वाभाविक पृवत्ति है। सेक्स का सहारा लेकर चुनाव जीतने का तरीका नौसिखिया अमेरिका हमें क्या सिखायेगा?
जो वहां आज हो रहा है वह हम युगों-युगों से करते आये है। मेनकाओं अप्सराओं की पूरी ब्रिगेड इसी काम में तैनात रहती थी। जहां इन्द्र का सिंहासन हिला नहीं ,दौड़ पड़ती अप्सरायें काबू पाने के लिये खतरे पर। राजाओं,गृहस्थों की कौन कहे बड़े-बड़े ऋषि-मुनियों के लंगोट ढीले करते रही हैं ये सुन्दरियां। इनके सामने ये अमेरिकी क्या ठहरेंगे जिनका लंगोट से “हाऊ डु यू डू तक“नहीं हुआ।
राजाओं,गृहस्थों की कौन कहे बड़े-बड़े ऋषि-मुनियों के लंगोट ढीले करते रही
हैं ये सुन्दरियां। इनके सामने ये अमेरिकी क्या ठहरेंगे जिनका लंगोट से “हाऊ डु यू डू तक“नहीं हुआ।
सत्ता नियंत्रण का यह अहिंसक तरीका अगर दरोगा जी आतंकवादियों पर अपनाते तो सारे आतंकवादी अमेरिका में बेरोजगारी भत्ते की लाइन में लगे होते और समय पाने पर ब्लागिंग करते।असम के तमाम आतंकवादी जिनका पुलिस की गोलियां कुछ नहीं बिगाड़ पायी वो नजरों के तीर से घायल होकर आजीवान कारावास(कुछ दिन जेल,बाकी दिन गृहस्थी) की सजा भुगतने को स्वेच्छा से समर्पणकर चुके हैं।
देह प्रदर्शन की बढती पृवत्ति का कारण वैज्ञानिक है। दुनिया में तमाम कारणों से गर्मी (ग्लोबल वार्मिंग)बढ रही है। गर्मी बढेगी तो कपड़े उतरेंगे ही। कहां तक झेलेंगे गर्मी?यह प्रदूषण तो बढना ही है। जब शरीर के तत्वों(क्षिति,जल,पावक ,गगन,समीरा)में प्रदूषण बढ रहा है तो शरीर बिना प्रदूषित हुये कैसे रह सकता है?
यह भ्रम है कि शारीरिक आकर्षण का हमला केवल युवाओं पर होता है। राजा ययाति अपने चौथेपन में भी कामपीड़ित रहे। कामाग्नि को पूरा करने के लिये ययाति ने अपने युवा पुत्र से यौवन उधार मांगा और मन की मुराद पूरी की। हर दरोगा उधार पर मजे करता है।
केशव को शिकायत रही कि उनके समय में खिजाब का चलन नहीं था और सुंदरियां उन्हें बाबा कहती थीं:-
केशव केसन अस करी जस अरिहूं न कराहिं,इससे पता चलता है मन ज्यादा बदमाश है देह के मुकाबले। पर इन कहानियों से शायद लगे कि इसमें सुन्दरी का कोई पक्ष नहीं रखा गया। तो इस विसंगति को दूर करने के लिये एकदम आधुनिक उदाहरण पेश है:-
चंद्रवदन मृगलोचनी बाबा कहि-कहि जांहि।
पिछले दिनों आस्ट्रेलियन विश्वसुन्दरी मंच पर कार्यक्रम प्रस्तुत कर रहीं थीं। बेचारी स्कर्ट अपना और सुंदरी के सौंदर्यभार को संभाल न सकी|सरक गयी| संदरी ने पहले शर्म का प्रदर्शन किया फिर समझदारी का| स्टेज से पर्दे के पीछे चली गयी| हफ्तों निम्न बातें चर्चा में रहीं:-
सुंदरी के शरमाने का कारण स्कर्ट का गिर जाना उतना नहीं था जितना साधारण, सस्ता अंडरवियर पहने हुये पकङे जाना था।
1.संदरी ने बुद्धिमानी से बिना परेशान हुये स्थिति का सामना किया|2.स्कर्ट भारी थी जो कि सरक गयी।
3.सुंदरी ने जो अंडरवियर पहना था वह सस्ता ,चलताऊ किस्म का था।
4.सुंदरी के शरमाने का कारण स्कर्ट का गिर जाना उतना नहीं था जितना साधारण, सस्ता अंडरवियर पहने हुये पकङे जाना था।
इस हफ्तों चली चर्चा में देह का जिक्र कहीं नहीं आया। देह ,वह भी विश्वसुंदरी की,नेपथ्य में चली गयी। चर्चित हुयी सुन्दरी की भारी स्कर्ट,साधारण अंडरवियर और उसका दिमाग।
तो इससे साबित होता है कि कुछ नही है देह सिवा माध्यम के। सामान बेचने का माध्यम। उपभोक्तावाद का हथियार। उसकी अहमियत तभी तक है जब तक वह बिक्री में सक्षम है। जहां वह चुकी -वहां फिकी।
आज ऐश्वर्या राय का जन्मदिन है। सबेरे से टीवी पर छायी हैं। दर्शकों का सारा ध्यान उसके गहनों,कपङों, मेकअप पर है। उसका नीर-क्षीर विवेचन कर रहें हैं। सम्पूर्णता में उसका सौंदर्य उपेक्षित हो गया। यह विखंडन कारी दर्शन आदमी को आइटम बना देता है।
मेरी तो कामना है कि युवाओं में खूब आकर्षण बढे शरीर के प्रति। पर यह
आकर्षण लुच्चई में न बदले। यह आकर्षण युवाओं में सपने देखने और उन्हें
हकीकत में बदलने का जज्बा पैदा करे।
युवा का देह के प्रति आर्कषण कतई बुरा नहीं है। बुरा है उसका
मजनूपना,लुच्चई। कमजोर होना। देखा गया है कि साथ जीने मरने वाले कई मजनू
(बाप और पैसे का )दबाव पङने पर राखी बंधवा लेते हैं।प्रेम संबंध भी आजकल स्टेटस सिंबल हो गये हैं। जिस युवा के जितने ज्यादा प्रेमी प्रेमिका होते हैं वह उतना ही सफल स्मार्ट माना जाता है। प्रेमी प्रेमिका भी आइटम हो चुके हैं। यही उपभोक्तावाद है।
मेरी तो कामना है कि युवाओं में खूब आकर्षण बढे शरीर के प्रति। पर यह आकर्षण लुच्चई में न बदले। यह आकर्षण युवाओं में सपने देखने और उन्हें हकीकत में बदलने का जज्बा पैदा करे। साथी के प्रति आकर्षण उनमें इतनी हिम्मत पैदा कर सके कि उनके साथ जुङने ,शादी करने की बात करने पर ,स्थितियां विपरीत होने पर उनमें श्रवण कुमार की आत्मा न हावी हो जाये और दहेज के लिये वो मां-बाप के बताये खूंटे से बंधने के लिये न तैयार हो जायें।
फिलहाल तो जिस देह का हल्ला है चारो तरफ वह कुछ नहीं है सिर्फ पैकिंग है। ज्यादा जरूरी है सामान। जब पैकिंग अपने अंदर सबसे ऊपर रखे सामान (दिमाग)पर हावी होती है तो समझिये कि सामान में कुछ गड़बड़ है।
मेरी पसंद
एक नाम अधरों पर आया,अंग-अंग चंदन वन हो गया.
बोल है कि वेद की ऋचायें
सांसों में सूरज उग आयें
आखों में ऋतुपति के छंद तैरने लगे
मन सारा नील गगन हो गया.
गंध गुंथी बाहों का घेरा
जैसे मधुमास का सवेरा
फूलों की भाषा में देह बोलने लगी
पूजा का एक जतन हो गया.
पानी पर खीचकर लकीरें
काट नहीं सकते जंजीरें
आसपास अजनबी अधेरों के डेरे हैं
अग्निबिंदु और सघन हो गया.
एक नाम अधरों पर आया,
अंग-अंग चंदन वन हो गया.
—कन्हैयालाल नंदन
Posted in अनुगूंज, इनसे मिलिये, पूछिये फ़ुरसतिया से, संस्मरण, साक्षात्कार | Tagged features | 39 Responses
निःसँदेह अनुगूँज जैसा विषय के प्रति गम्भीर और ईमानदार प्रयास दुबारा न हुआ ।
यह लेख पहले भी पढ़ा था, और जहाँ तक याद आता है इस नोंक झोंक का साक्षी भी रहा ।
तब हिन्दी ब्लागिंग से परिचय हुआ ही था । हिन्दी टूल का समुचित ज्ञान न था, सो कम्प्यूटर से चिपका इन्हीं सबको पढ़ा करता ।
पर, यह तो अमानत में ख़यानत है, गुरु । एक बार आप ठेल दिहौ, अब यह सब छोड़ो हमारे लिये । इसको उचित अवसर पर प्रस्तुत करने के लिये सँजो रखा था.. पर आप हो कि ?
कभी किसी भूली बिसरी पोस्ट का लिंक याद आ जाये तो मेल करके सुझा भी दिया करो, वेबलाग पर सहेज लेंगे । श्रेय तो देंगे ही, चाहोगे तो ताऊ से पूछ कर वही वाली फोटउआ भी साट देंगे ।
मुला मौज़िया अँदाज़ में एक ज़ुदा किसिम की दर्शन खूब छँटी भयी है, इहाँ ।
अमानत में खयानत के लिये माफ़ करें डा.साहब! इस लेख की कड़ियां इस लेख से कम महत्वपूर्ण नहीं है। इनसे यह पता चलता है कि शुरुआती प्रयास कैसे थे। शुरुआती दौर की नोकझोंक का स्वरूप कैसा था। फ़ोटुआ आप किस से भी सटाओ , हमारी फ़ोटॊ आजतक कब्भी अच्छी नहीं आयी। सब नेचुरल आयी हैं!
venus kesari
शुक्रिया हो, धन्यवाद हो!
पूरा पढ़े
फिर से अच्छे बच्चे की तरह मन लगा कर पढ़े और कमेन्ट किये रात १.३० बजे
अब सोने जाते है और उसके पहिले पढेंगे परसाई जी की पुस्तक “कहत कबीर”
शुभ रात्रि
अच्छे बच्चे वीनस, शुभ प्रभात! तीन घूंट चाय पीकर सुबह छह बजकर चालीस मिनट पर मुस्कराते हुये यह प्रतिटिप्पणी ठेल रहे हैं। मौज लेने में शायर भी कौनौ कम नहीं हैं। सब कुछ बहर में है।
वाकई समापन की दो लाईनो मे आपने फ़ुरसतिया पोस्ट का शानदार समापन किया है. हमको तो अभी बाहर जाना है सो रात दो बजे ऊठे थे. जाते जाते सोचा पोस्ट देख ले तो आपकी यह पोस्ट फ़ीड मे आई हुई है. कित्ते बजे ठेली गई?:)अभी रात्रि के २:४५ AM हो रहे हैं.
ताऊजी , आपकी यात्रा टनाटन शुभ हो। पोस्ट ठेली गयी सुबह बारह बजकर सम मिनट पर। बाहर से आकर दुबारा पढ़ियेगा फ़िर से!
अरे डा.साहब,मन तो मौजमस्ती का बादशाह है। इधर-उधर डोलता रहता है। आप हमको फ़ालॊ कर रहे हैं! हाऊ स्वीट च क्यूट! वैसे आपको सच बतायें कि शुरुआती दौर में अनुगूंज के लेख लिखने में हम बाकायदा होमवर्क करते थे। संस्कृति वाले लेख को लिखने के लिये खूब पढ़ाई भी की थी!
ससुरा, कैसन कमेडियन है, जर्रा भी झूठ नहीं कह रहा इस मामले में…
मस्त पोस्ट!!
भैये, आपके यहां आइने कुछ ज्यादा ही गड़बड़ दीखते हैं। ससुरे आपके जैसी क्यूट-दर्शना देह को बोलते हैं कुछ नहीं है देह! हाऊ बैड रादर हाऊ सैड! देखो कहीं बहर में तो नहीं देख रहा आईना आपकी देह को। देखो वर्ना उन सहेलियों के दिल पर क्या बीतेगी जो डा.अरविन्द मिश्र से आपकी क्यूटनेस की कसमें खाते पकड़ी गयीं थी। मामले को गम्भीरता से लीजिये भाई!
आपके इस प्रश्न से उन गानों की वाट लग जाएगी जो देह पर रचित हैं –
I wan to show my body…..हल्ला रे हल्ला रे…..हल्ला…..Omm…..I wan to show my body……
सतीशजी, ऐसे गानों की कभी वाट नहीं लगती। और क्या फ़ायदा वाट लगाने स। मेगावाट तो हमारा मन है।
अनुगूंज जैसे प्रयोग अब क्यों नहीं हो रहे?? किस चीज़ की कमी है??
कुश: अनुगूंज जैसे आयोजन बस इसीलिये नहीं होते कि सबकी अपनी प्राथमिकतायें हैं। लेकिन हो सकते हैं फ़िर से। होंगे भी।
वैसे हमें पता है! फ़ोटॊ और लेख की अनुरूपता की बात कहकर बहाने से मौज ले रहे हो। इतने अनजान हम भी नहीं हैं।
उन्मुक्तजी: इस मसले पर कई बार विचार हुआ। अभी फ़िर करते हैं। देबाशीष से और लोगों से चर्चा करके। पहले यह अक्षरग्राम पर होता था। वह अभी बन्द है। उसका हिसाब-किताब तय हो जाये तब फ़िर शुरू किया जाये इसे दोबारा। आपको भी शामिल करते हैं इसमें।
आप जनमै से मौज ले रहे लगते हैं। शुरुआत में भी गजब धारदार लिखते थे। वाह! क्या कहने…!
अरे आफ़िस में बैठके आराम से टिपियाइये न! मना तो नहीं है न! वैसे आप जीतेन्द्र के लिये बताई लिंक ही सबसे पहिले काहे देखे? वर्जित आइटम देखने में ज्यादा मौज आता है। श्रीमतीजी पकड़ लीं इसके बाद क्या हुआ ई कौन बतायेगा।
फोटो भी सही ढूंढ कर लाए हो, बुढापे मे बस यही सब करना बाकी था (मेरा नही, तुम्हरे बुढापे की बात कर रहा हूँ, अभी तो हम माशा-अल्लाह जवान है।)
मेरे विचार से अनुगूँज का आयोजन फिर से किया जाना चाहिए, चलो फिर से शुरु किया जाए, इसी बहाने कुछ लिखना पढना हो जाया करेगा। फिर जब तगादा करने वाला फुरसतिया हो तो कौन ना लिखबे?
सही है भैये! सब याद आ गया हौले-हौले। वैसे तुम अपने जवान होने की बात क्यों करने लगे? ई सब तो बुजुर्ग लोगों का चोचला है। वही कहते हैं- अभी तो मैं जवान हूं!
अनुगूंज फ़िर से शुरू करना अच्छा विचार है। देखो! कब, कहां शुरू हो पाता है।
क्या बात कही है सच्ची! मज़ा आ गया पूरा आलेख पढ के.जाते-जाते तो कमाल ही कर दिया. काश युवा-वर्ग इस समझाइश पर अमल कर सकता! कुछ करते भी होंगे, लेकिन केवल वही जो देह से इतर सोचते हैं. बधाई और धन्यवाद दोनों ही.
वन्दनाजी: शुक्रिया! आपकी प्रतिक्रिया पढ़कर बहुत अच्छा लगा। सच्ची-मुच्ची।
विवेक: अब इत्ते भी अनजान नहीं हम कि आपको यह बता दें कि कितने अनजान हैं हम! हम सब बूझते हैं कि आप बीड़ी ब्रेक के बाद मौज लेने के मूड में आ गये हैं!
सागर भाई आपकी बात का पक्का यकीं है मुझको! अभी ये लाइने पढ़ीं आपकी तो लगा कि आप सच ही कह रहे है
जिस्म गोया एक खूंटा है
और मैं,
इससे बंधा गाय
धुंधला चेहरा हो तो धुंधला आईना भी चाहिये.
बहुत खूब शेर कहा है!
———————-
‘बोल है कि वेद की ऋचायें
सांसों में सूरज उग आयें
आखों में ऋतुपति के छंद तैरने लगे
मन सारा नील गगन हो गया.’
-अद्भुत !!!
———————-
-पहले सार्थक बहस हुआ करती थीं जानकार अच्छा लगा…मगर तब से अब के सफर में-ऐसा क्या हुआ Ki blogging mein निरर्थक बहसें..विवाद से ऊपर कुछ दिखता नहीं?
अल्पनाजी, ये वाला शेर हमारे एक स्टाफ़ थे शाहजहांपुर में वासिफ़ मियां उन्होंने लिखा था और हमारे कहने पर अक्सर सुनाते भी थे!
बहसें अब होती ही कहां हैं! बहसें अब भी होती हैं लेकिन लोग आमतौर पर एक के नहले पर अपना दहला मारने में ज्यादा रुचि लेते हैं। ब्लागिंग के शुरुआती दौर में ब्लागिंग को रुचिकर बनाने और लोगों की लिखने में आदत डालने के लिये तमाम काम हुये । अनुगूंज भी उनमें से एक था।
यह रि-पीट है | मतलब अभी तक आपके विचार वही हैं, जो उस समय थे |
सबसे अच्छी लाइन जो लगीं – “मेरी तो कामना है कि युवाओं में खूब आकर्षण बढे शरीर के प्रति। पर यह आकर्षण लुच्चई में न बदले। यह आकर्षण युवाओं में सपने देखने और उन्हें हकीकत में बदलने का जज्बा पैदा करे। साथी के प्रति आकर्षण उनमें इतनी हिम्मत पैदा कर सके कि उनके साथ जुङने ,शादी करने की बात करने पर ,स्थितियां विपरीत होने पर उनमें श्रवण कुमार की आत्मा न हावी हो जाये और दहेज के लिये वो मां-बाप के बताये खूंटे से बंधने के लिये न तैयार हो जायें।”
लेकिन देह को लेकर इतनी मगजमारी क्यों होती है | जो सबसे ज्यादा वास्तविक है |
रही बाजार की बात तो जिस चीज की डिमांड होगी | उसे पेश ही किया जाएगा, नए-नए रूपों में |
हमारे ऋषि-मुनियों की कल्पनाओं के आगे दुनिया पराजित है |
वजह : क्षतिपूर्ती, जो नहीं कर सके उसकी कल्पनाएँ कर लीं | मन मजा लेने के लिए |
वरना व्यावहारिक रूप से वह सब नहीं किया जा सकता |
आपकी पोस्टें टिपण्णी उकसाऊ होती हैं |
इस बार आपने अलग-अलग प्रति उत्तर भी दिया है |
सावधान टिप्पकों !
अर्कजेशजी: शुक्रिया लेकिन! सावधान विश्राम करके ब्लागर भाइयों को डरवायें नहीं। सब लोग सोचेंगे यहां संघ की शाखा खुल गयी।
शुक्रिया |
अर्कजेशजी: शुक्रिया का प्रतिशुक्रिया। वैसे अच्छी कवितायें मेरी पसंद के रूप में देने पर यह अक्सर होता है कि साथी लोग ,आपकी पसंद अच्छी है, कह कर निकल लेते हैं।
शानदार लेख .फोटो की जरूर कुश खामखाँ तारीफ़ कर रहे है…
डा.अनुराग: ब्लागिंग सिकुड़ी तो नहीं! कुछ ज्यादा फ़ैली है सो अच्छे लेख के मुकाबले कम अच्छे लेख ज्यादा दिखते हैं। काफ़ी सारे अच्छे लेख भी लिखे गये हैं! हमको एकदम अभी आपकी छह फ़ुटी रोशनी की मीनार याद आ रही है! ससुरा एक डायलाग अपने में एक मुकम्मल पोस्ट है!
देह साधन है,
देह साध्य है,
देह रम्य है,
देह भव्य है,
देह आदि है,
देह ही अंत है.
हदे-देह से बाहर क्यों निकले कोई?
एक देह से आना है,
एक देह पाना है,
एक देह बनाना है,
एक देह संग जीना है,
एक देह बिना मर जाना है.
PS: एक प्ल्ग-इन आती है Indic Ime. वैसा ही कुछ इन्स्टाल कर दें तो सुविधा होगी.
दरभंगिया: Indic Ime से देह का सब हिसाब-किताब मिल जायेगा?
लवली: शुक्रिया, धन्यवाद!
———————
क्या बतायें, जब सामान स्तर का बन तैयार होता है, तब तक पैकिंग लत्ता हो चुकी होती है!
ज्ञानजी: लगता है इससे ही कुछ तुक-फ़ुक मिलाकर कहावत बनी होगी- तन पर नहीं लत्ता, पान खायें अलबत्ता।
लीजिये, यह रहा शुद्धिकरणः
PS: एक प्ल्ग-इन आती है Indic Ime, वैसा ही कुछ इन्स्टाल कर दें तो टिप्पणीकारों को हिन्दी टंकण में सुविधा होगी.
भाई दरभंगियाजी: बड़ा इस्टाइल वाला शुद्धिकरण है। मजाक का तो ऐसा है कि आप तो शरीफ़ लगते हैं लेकिन हमारे जो साथी लोग हैं उनसे तो मजाक न करो तो बुरा मान जाते हैं। कहते हैं हमको ई मजाक पसंद नहीं! बकिया ई प्लग-इन हमारे विश्वकर्माजी ई-स्वामीजी देखेंगे।
अमिय हलाहल मद भरे श्वेत श्याम रतनार
जिअत मरत झुकि-झुकि परत जेहि चितवत एक बार
मानें या न मानें है देह ही सब कुछ….
कारण जुड़े हैं होमो सेपियन्स (आधुनिक मानव) के विकास क्रम की HUNTER-GATHERER स्टेज
से… तब स्त्रियां वरीयता देती थी सुगठित,लम्बे तगड़े,बलवान पुरुष को… साथी बनाने के लिये..
ताकि उसे रोज शिकार मिल सके तथा जो इकठ्ठा किया है वो सुरक्षित रहे।
इसी तरह रोज तो शिकार मिलता नहीं था… फाके होते थे कई कई दिनों तक…ऐसे में स्तन पान
करते शिशु उन्हीं माताओं के बच पाते थे जिनके शरीर में ‘फैट स्टोर’ ज्यादा होता था, यह फैट
जमा होता था जांघों, नितंबों तथा सीने पर…स्वाभाविक रूप से पुरुष ऐसी ही स्त्रियों को पसंद करते
थे।
आदिम काल की वही स्मृतियां अभी भी जगी हुई हैं हमारे दिमागों में… उन्हीं के आधार पर आज
के सुन्दरता के पैमाने बने हैं…इसी लिये देह ही है सब कुछ …न शरमाइये, न सकुचाइये और न
ज्यादा सोच विचार कीजिये… देख डालिये जो कुछ भी दिखाता है बाजार।
एक बात और जोड़ूगा कि ऐसा नहीं कि केवल पुरुष ही करते हैं देह दर्शन… सलमान हर फिल्म में
कमीज किसके लिये उतारता है ?
अपने लेख के आखिर में ”फिलहाल तो जिस देह का हल्ला है चारो तरफ वह कुछ नहीं है सिर्फ पैकिंग है। ज्यादा जरूरी है सामान। जब पैकिंग अपने अंदर सबसे ऊपर रखे सामान (दिमाग)पर हावी होती है तो समझिये कि सामान में कुछ गड़बड़ है।” कही गई ये लाइने आपने जितनी सरलता से लिखी हैं वास्तव में इसका अर्थ उतना सहज और सरल नही है ।
अनूगूंज पर फिर से बहस होनी चाहिए ।
इसे व्यंग्य आलेख कहने का तो बिलकुल ही मन नहीं कर रहा अनूप भाई…..यह तो नितांत ही गंभीर आलेख है…यथार्थ की तहें परत दर परत खोलती हुई…
इस लाजवाब लेख को हमसे बांटने के लिए आपका बहुत बहुत आभार..
लेकिन यकीनन ये आपकी लेखनी का ही चमत्कार है कि हर लिंक को खोल कर देखने और पढ़ने पे विवश हो जाता हूँ। अमूमन इतना समय दे नहीं पाता ब्लौग के लिये।
इस संपूर्ण देह-विमर्श पे किंतु राजेन्द्र यादव जी का विचार क्यों नहीं लिया गया?
“मेरी पसंद” ने फिर से अचंभित किया।
देह के ऊपर ही तो दिमाग रखा है भगवान् ने
देह ही नहीं तो क्या ……….
पहीले पाकिंग ही देखेंगे ना
तभिये तो मालवा देखेंगे भैया
मालवा कु तो कोऊ भी नाही देखन देवेगा
तो पेकइन्गे ही देखि के मालवा का अंदाजा लगावत है हम तो भैया
तू सुन्दरता कि मूरत है
किसी और को कम होगी
मुझे तेरी बहुत जरुरत है
Manish की हालिया प्रविष्टी..प्रेम : “आओ जी”
http://www.nukkadh.com/2011/09/blog-post_24.हटमल
देह खिलाती है गुल
बत्ती करती है गुल
विवेक की
मन की
जला देती है
बत्ती तन की।
देह सिर्फ देह ही होती है
होती भी है देह
और नहीं भी होती है देह।
देह धरती है दिमाग भी
देह में बसती है आग भी
देह कालियानाग भी
देह एक फुंकार भी
देह है फुफकार भी।
देह दावानल है
देह दांव है
देह छांव है
देह ठांव है
देह गांव है।
देह का दहकना
दहलाता है
देह का बहकना
बहलाता नहीं
बिखेरता है
जो सिमट पाता नहीं।
देह दरकती भी है
देह कसकती भी है
देह रपटती भी है
देह सरकती भी है
फिसलती भी है देह।
देह दया भी है
देह डाह भी है
देह राह भी है
और करती है राहें बंद
गति भी करती मंद।
टहलती देह है
टहलाती भी देह
दमकती है देह
दमकाती भी देह
सहती है देह
सहलाती भी देह।
मुस्काती है
बरसाती है मेह
वो भी है देह
लुट लुट जाती है
लूट ली जाती है
देह ही कहलाती है।
देह दंश भी है
देह अंश भी है
देह कंस भी है
देह वंश भी है
देह सब है
देह कुछ भी नहीं।
देह के द्वार
करते हैं वार
उतारती खुमार
चढ़ाती बुखार
देह से पार
देह भी नहीं
देह कुछ नहीं
नि:संदेह।
अविनाश वाचस्पति की हालिया प्रविष्टी..फिल्में हैं मारधाड़ का बाजार : बॉलीवुड सिने रिपोर्टर 10 – 16 अप्रैल 2013 अंक प्रकाशित
अविनाश वाचस्पति की हालिया प्रविष्टी..फिल्में हैं मारधाड़ का बाजार : बॉलीवुड सिने रिपोर्टर 10 – 16 अप्रैल 2013 अंक प्रकाशित
http://www.nukkadh.com/2011/09/blog-post_24.html
अविनाश वाचस्पति की हालिया प्रविष्टी..फिल्में हैं मारधाड़ का बाजार : बॉलीवुड सिने रिपोर्टर 10 – 16 अप्रैल 2013 अंक प्रकाशित