1. चारों ओर सामाजिक दुर्गुणों की कीचड़ के बीच भारतीय न्याय बरसों से कमाल जैसा एकाकी जीवन जी रहा है।
2. जजों का बुढ़ापा अपराधियों के बुढ़ापे-सा सुखद तो होता नही,यह उतना सुरक्षित भी नही जितना किसी व्यस्त और सफल वकील का। कई रिटायर्ड जज इस आशा से सरकार का मुँह जोहते रहते हैं कि उन्हें किसी जाँच-कमीशन का काम बुढ़ापे में मिल जायगा। स्थिति दयनीय हो जाती है। बुढ़ापे में न्यायाधीशों को दाल-चावल कोई सस्ते में तो बेचता नहीं।
3.यह देश हर मामले में आत्मनिर्भर व्यवस्थाओं के बारे में सोचता है, पर न्याय का पूरा ढाँचा अपने आप में सक्षम और अपनी व्यवस्था खुद सम्भाले,अपनी समस्या से खुद निपटे,यह हम कभी नही सोचते। सच यह है कि अपराधी हो, पुलिस हो, निरपराधी हो, सरकार हो, सब इस उम्मीद में रहते हैं कि न्याय का पलड़ा उनकी तरफ़ और सिर्फ़ उनकी तरफ़ झुके। खींचतान जारी रहती है। न्याय ठिठका रहता है। बयान जारी रहता है। मुक़दमा नही निपटता।
4. झोपड़ियों को लेकर धीरे-धीरे एक राष्ट्रीय दृष्टिकोण पनप रहा है। धीरे-धीरे सब इस बात पर सहमत होने लगे हैं कि इस देश में झोपड़ियाँ नही होनी चाहिए। यदि हैं तो उन्हें जल्दी टूटना है। यदि तोड़ी नही जा रहीं तो यह लापरवाही है, कायरता है, सरकार का दब्बूपन है कि झोपड़ियों के सामने झुक रही है। वीरता से काम लो, बुलडोज़र से काम लो और झोपड़ी तोड़ो।
5. प्रजातंत्र के विकास में झोपड़ी का सुनिश्चित संबंध वर्षों से यह रहा है कि चुनाव के दो वर्ष पूर्व जब वोटों का मूल्य नेता पहचानने लगते हैं, वे झोपड़ियाँ बनी रहने देते हैं और चुनाव के एक वर्ष बाद जब सत्ता अपनी पकड़ कुर्सी पर मज़बूत करने लगती है,झोपड़ियाँ एकाएक अवैध,ग़ैरज़रूरी और नगर के सौंदर्य पर कोढ़ लगने लगती हैं। दो वर्ष तोड़-फोड़ में बीतते हैं। यहाँ के उजड़े वहाँ और वहाँ के उजड़े यहाँ बसने लगते हैं। फिर धीरे-धीरे नेताओं और अधिकारियों की सौंदर्य-दृष्टि में अंतर आता है। वोटर लिस्ट बन चुकी होती है और झोपड़ियाँ उन्हें फिर सुंदर लगने लगती हैं।
6. राष्ट्रीय दृष्टि स्पष्ट होती जा रही है कि आदमी कहीं रहे,मगर झोपड़ी में न रहे। झोपड़ी से हमारे देश की नाक कटती है। बिल्डर जो सीमेंट का संसार विकसित कर रहे हैं, वही देश है। उसमें रहना ही नागरिकता है। झोपड़ी में रहना अराजकता है, चोरी, बदमाशी है, एक कलंक जो समाप्त होना चाहिए।
7. आदिवासी वहीं है जहां वह पहले था। हर भाषण में उसका ज़िक्र किया गया, हर आयोग ने उस पर सोचा, हर घोषणा-पत्र में उसकी दशा पर चिंता की गई, हर योजना और हर बजट में उसके लिए प्रावधान रखा गया था,पर आज इतने साल बाद जब भारत का प्रधानमंत्री उसके दरवाज़े पर पहुँचता है, वह उसी तरह रोता-बिसूरता मिलता है जैसे वह बरसों पहले मिला था, जब भारत का पहला प्रधानमंत्री उससे मिलने पहली बार उसके ज़िले में गया था।
8. शहर पेड़ चीरता जंगलों में घुस रहा है,पर आदिवासी उतना ही आदिवासी है जितना वह आदिम अवस्था में था। आज भी वह कैमरे से फ़ोटो खींचने काबिल चीज़ है।
9.बड़ी विचित्र, अनूठी -सी चीज़ होता है इंस्पेक्टर। सब कुछ चलता रहता है,वह इंसपेक्ट करता रहता है। थानों में क्या कुछ नही होता,पुलिस वाले क्या कुछ नही करते, मगर जिसे कहते हैं पुलिस इंस्पेक्टर,वह बराबर हर जगह इंस्पेक्शन करता मिलेगा।
10. इस देश का हर हिस्सा इंसपेक्ट होता रहा है और देश की हालत आप देख ही रहे हैं। मगर आपके देखने से कुछ नही होता। देखेगा तो इंस्पेक्टर देखेगा। सरकार उसके देखे से देखेगी। वह सरकार की बड़ी-बड़ी आँखे हैं। वह सत्ता का कमल-नयन है।
11. वर्ष दो भागों में बंटता है इस देश में। एक समय जब इंस्पेक्टर साहब आने वाले होते हैं। एक वह जब वे इंस्पेक्शन कर जा चुके होते हैं। इस देश में आशावाद इन्हीं दो हिस्सों में विभाजित है। रहा है बरसों से। यह विभाजन प्रेम की तरह है। जब वे देख रहे होते हैं। जब वे नही देख रहे होते हैं। दोनों अवस्था में सजने-सँवरने और बिगड़ने में एक सार्थकता है। वे देखेंगे, वे कुछ काम करेंगे। हम उनके द्वारा इंसपेक्टित होंगे।
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