Thursday, October 03, 2024

लखनऊ पुस्तक मेले में 'साँपों की सभा'



कल लखनऊ जाना हुआ। पुस्तक मेले में। Anoop Mani Tripathi की किताब का विमोचन था। किताब राजकमल प्रकाशन से आयी है। 'साँपों की सभा' नाम है किताब का। चौथी किताब है उनकी। इसके पहले की तीन किताबें हैं:
1. शो रूम में जननायक
2. अस मानुष की जात
3. नया राजा नए किस्से
अनूप मणि की पहली किताब 'शो रूम में जननायक' वीनस केशरी ने अपने 'अंजुमन प्रकाशन' से छापी थी -अंजुमन नवलेखन पुरस्कार -2016 से पुरस्कृत कृति के रूप में। तबसे अनूप मणि की किताब पर कुछ लिखने का वादा अभी तक पूरा नहीं हुआ। अब तो अनूप मणि ने तक़ादा भी बंद कर दिया है यह कहते -'हमें मालूम है आप लिखेंगे नही।'
बहरहाल इस चौथी किताब के विमोचन का समय पाँच बजे था। हम पाँच बजने में पाँच मिनट पहले पहुँच गए। तब तक लेखक महोदय का कोई अता-पता नही था। अलबत्ता लेखक मंच पर कोई दूसरा कार्यक्रम चल रहा था। वहाँ भी बिजली चली जाने के कारण कुछ देर को कार्यक्रम 'थम' गया। लाइट आने पर फिर चालू हुआ।
फ़ोन करने पर पता चला कि लेखक महोदय जाम में फँसे हुए थे। थोड़ी देर में पधारे पुस्तक मेले में।
तय समय पर लेखक मंच पर पहुँचने पर पता चला कि उसी समय कोई और कार्यक्रम है वहाँ। थोड़ी देर मामला उसी एक ही बर्थ पर दो यात्रियों के दावे की तरह चलता रहा। लेकिन अंतत: लेखक मंच दूसरे कार्यक्रम के लिए तय हुआ। 'साँपों की सभा' पर बात घंटे भर के लिए मुल्तवी हो गयी।
इस बचे हुए समय का उपयोग वहाँ किताबों की दुकाने देखने में किया गया। पहले ही तमाम अनपढ़ी किताबों की याद करते हुए शुरुआत कोई नयी किताब न ख़रीदने के इरादे से हयी लेकिन राजकमल प्रकाशन के स्टाल पर याद आया कि दिल्ली पुस्तक मेले में Vineet Kumar की मीडिया का लोकतंत्र नही मिली थी। उसको ख़रीदने का विचार किया। मिल गयी तो याद आया ज्ञान चतुर्वेदी जी का नया उपन्यास 'एक तानाशाह की प्रेम कथा' भी ख़रीदना बाक़ी है। पिछले दिनों इस किताब की Yashwant Kothari जी की लिखी समीक्षा पढ़कर इसे फ़ौरन मंगाने की बात सोची थी। इसी तरह एक-एक कर किताबें जुड़तीं गयीं। लौटते समय ये किताबें साथ में थीं:
1. सांपों की सभा -अनूप मणि त्रिपाठी
2. मीडिया का लोकतंत्र- विनीत कुमार
3. विमर्श और व्यक्तित्व- Virendra Yadav
4. बोलना ही है -Ravish Kumar
5. धारा के विपरीत- गोविंद मिश्र
6. एक यहूदी लड़की की तलाश- पैट्रिक मोदियानो
7. सलवटें- प्रियंवद
8. छूटी सिगरेट भी कमबख़्त
इनमें वीरेंद्र जी की किताब का विमोचन कुछ दिन पहले ही हुआ था। उनकी वहाँ उपस्थिति का फ़ायदा उठाकर उनके आटोग्राफ भी ले लिए किताब में। प्रियंवद जी की किताब सलवटें उनके कथेतर गद्य का संकलन है। इसका आर्डर आनलाइन दिया थे लेकिन आर्डर कैंसल हो गया था। शायद किताब रही न हो उनके पास। रवीश कुमार की किताब कई बार ख़रीदते-ख़रीदते रह गयी। कल ले ही ली।
अनूप मणि ने ख़ाली समय का उपयोग अपनी किताबों पर आटोग्राफ देते हुआ किया। किताब की दुकान पर थोड़ा टेंढे खड़े होकर दस्तख़त किए किताबों पर। अन्दाज़ से लग रहा था कि अभ्यास किया है आटोग्राफ का। शायद मेले में आने में देरी का वजह भी यही रही हो। मेरी किताब पर दस्तख़त करते हुए लिखा :
"अनूप शुक्ल जी को जो एक दिलचस्प इंसान हैं। सादर -अनूप मणि त्रिपाठी।'
यहाँ 'दिलचस्प' शब्द का मतलब बहुअर्थी है। अपने हिसाब से तय किया जा सकता है।
किताबों पर आटोग्राफ का सिलसिला भी मज़ेदार है। लेखक पाठक की ख़रीदी किताब पर ' शुभकामनाओं सहित' , 'सादर' 'स्नेह/प्यार सहित' लिखकर दस्तख़त करता है उसका एक मतलब यह भी निकलता है कि लेखक अपनी तरफ़ से किताब भेंट कर रहा है। जबकि वह किताब पाठक ने ख़रीदी होती है। लेकिन जो हो इससे किताब अनूठी तो हो ही जाती है।
प्रसिद्ध व्यंग्यकार,कार्टूनिस्ट राजेंद्र धोड़पकर जी को समर्पित किताब 'साँपों की सभा ' में छोटे-बड़े कुल 42 लेख हैं। अनूप मणि की पहली किताब, 'शो रूम में जननायक ' , का कवर पेज राजेंद्र धोड़पकर जी ने बनाया था। 'सांपो की सभा' किताब का ब्लर्ब प्रख्यात कथाकार शिवमूर्ति जी ने लिखा है। लोकभारती पेपरबैक से प्रकाशित इस किताब का दाम 250 रुपए है। पुस्तक मेले में 20% छूट के साथ मिल रही है किताब।
पुस्तक मेले में अनूप मणि त्रिपाठी के कुछ बचपन के दोस्त भी थे। सब अनूप की बचपन की 'हरकतों' की याद करते हुए ताज्जुब टाइप कर रहे थे कि यह लेखक कैसे बन गया। उनको हम कैसे बताते कि यह ताज्जुब हर लेखक दूसरे लेखक के बारे में करता है। कई मर्तबा लेखक खुद अपने बारे में ऐसा सोचता है। इस सहज अचरज के लिए बचपन की दोस्ती की लंबी जान-पहचान की ज़रूरत नही होती।
समय का उपयोग करते हुए शिवमूर्ति जी से कुछ देर बातचीत की। आजकल उनका उपन्यास 'अगम बहै दरियाव' पढ़ रहे हैं। उन्होंने बताया कि यह उपन्यास उन्होंने कोरोना काल में मिले अकेलेपन में लिखा। तीन-चार साल लगे लिखने में। आजकल वे यात्रा संस्मरण लिख रहे हैं।
इसी बीच वहाँ बग़ल में ही स्टाल पर चाय भी पी गयी। दस रुपए की चाय पचीस रुपए में मिली। डेढ़ सौ गुनी महँगी। बाक़ी किसी और चीज़ के पूछे ही नहीं। वहीं एक दुकान पर हर किताब 99 रुपए की मिल रही थी। किताबें न हुई बाटा के जूते हो गए।
पहले चल रहे कार्यक्रम के ख़त्म होने के बाद 'सांपों की सभा' का विमोचन हुआ। विमोचनकर्ताओं ने किताब रखकर फ़ोटो खिंचाए। हमने माँग की कि विमोचन में अनूप मणि त्रिपाठी की जीवन संगिनी को भी शामिल किया जाए। पहले इस माँग को ख़ारिज करने का प्रयास किया गया लेकिन फिर उनको श्रोताओं के बीच से बुलाकर विमोचन में शामिल किया गया। विमोचन सम्पन्न हुआ।
विमोचन के बाद अनूप मणि ने अपनी तीन रचनाओं का पाठ किया। (रचना पाठ पोस्ट में संलग्न है)
इसके बाद वरिष्ठ आलोचक वीरेंद्र यादव जी और वरिष्ठ कथाकार शिवमूर्ति जी ने अपनी बात कही। कथाकर-सम्पादक अखिलेश जी को भी आना था वक्ता के रूप में लेकिन स्वास्थ्य ख़राब होने के कारण आ नही पाए।
वीरेंद्र यादव जी ने कहा : 'आज के बदले हुए समय में अनूप मणि त्रिपाठी जिस तरह व्यंग्य के माध्यम से अपनी बात कह रहे हैं उसके लिए में उनको बधाई देता हूँ।'
वीरेंद्र जी ने आज के समय की जटिलताओं और कुटिलताओं की चर्चा करते हुए अनूप मणि त्रिपाठी के व्यंग्य लेख के सूत्र वाक्य -'हमें लोकतंत्र को लोकतांत्रिक ढंग से समाप्त करना है' पर विस्तार से चर्चा की और बताया :' आज के समय यही हो रहा है। आज सारी संस्थाएँ भी हैं, संविधान भी है, संसद भी है, न्यायपालिका भी है, मीडिया भी है, लेकिन संसद का भी स्वरूप बदला हुआ है, न्याय पालिका का स्वरूप भी बदला हुआ है और मीडिया तो बिलकुल बेपहचाना हो गया है। ऐसे बदले समय में एक व्यंग्यकार का दायित्व बड़ा होता है।
वीरेंद्र यादव जी ने अनूप मणि त्रिपाठी के व्यंग्य लेखों के शीर्षकों पर चर्चा करते हुए उनके लेखन पर अपनी राय रखी। उनकी बारीक नज़र, बेबाक़ी, प्रतिबद्धता की तारीख करते हुए उनको शुभकामनाएँ दीं। (वीरेंद्र जी का पूरा वक्तव्य पोस्ट में सुन सकते है)
शिवमूर्ति जी ने अपने सम्बोधन में अनूप मणि त्रिपाठी को बहुत बहुत बधाई देते हुए कहा -'सारी विधाओं में व्यंग्य लिखना सबसे जटिल है। आज के समय में व्यंग्य लिखना बड़ा हिम्मत का काम है। बिना 'जो भी होगा देखा जाएगा' के भाव के बिना ऐसा लेखन सम्भव नही है। ऐसे लेखन में लेखक के 'वन मैन आर्मी 'में बदल जाने का ख़तरा हमेशा रहता है। हम कामना करते हैं कि ऐसा अनूप मणि त्रिपाठी के साथ न हो। वे निरंतर लिखते रहें और लोग उनके साथ बने रहें। ( शिवमूर्ति जी का पूरा वक्तव्य पोस्ट में सुन सकते है)
इस तरह विमोचन संपन्न हुआ। लगभग आधे घंटे में। जब यह विमोचन चल रहा था तब मंच पर लोग अगले कार्यक्रम का बैनर लगा रहे थे। विमोचन के बाद वक्ता, लेखक मंच से नीचे उतर आए और फोटो सत्र शुरू हुआ। अपने-अपने हिसाब से फ़ोटो लेते हुए लोग यादें सहेजने लगे।
कार्यक्रम की समाप्ति पर Balendu Dwivedi से मुलाक़ात हुई। फ़ैज़ाबाद से अपने दफ़्तर से लौटते हुए पुस्तक मेले के कार्यक्रम में आए थे बालेंदु जी। अपने दो उपन्यास 'मदारीपुर-जंक्शन' और 'वाया फुसतगंज' के बाद आजकल एक नए उपन्यास पर काम चल रहा है उनका- आहिस्ते-आहिस्ते।
सबसे कई बार विदा लेकर कानपुर वापस चलने के लिए हमने उसी गाड़ी वाले को फ़ोन किया जो सबेरे हमको लेकर आया था। वह बीस मिनट की दूरी पर था। बीस मिनट हमने फिर किताबें देखीं। ड्राइवर के आने के बाद कानपुर के लिए चल दिए।

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