दो दिन पहले शहर में कहीं जाना था। शाम का समय। एक मांगलिक कार्यक्रम में। पहले सोचा अपनी गाड़ी से जाएँ। लेकिन फिर शहर में गाड़ी खड़ी करने की समस्या और दीगर बातें सोचकर तय किया कि ओला से चले जाएँ।
गाड़ी बुक की। तीन बार। तीनों बार ड्राइवर बोला -'आपकी लोकेशन से दूर हैं। कुछ पैसे राइड के अलावा दें तो आएँ।' हमने राइड कैंसल कर दी।
ये ओला/उबर/रैपिडो वाली गाड़ियाँ बुक होती हैं तो गाड़ी वालों को पैसा वहीं से मिलता जहां से सवारी उठाते हैं। सवारी तक पहुँचने की दूरी उनको अपने खर्चे पर तय करनी होती है। कई बार ऐसा भी होता है कि पाँच किलोमीटर की दूरी के लिए पाँच से ज़्यादा किलोमीटर तय करना होता है। ड्राइवर मना कर देता है या ज़्यादा पैसे माँगता है। कम्पनियों को इसका इलाज करना चाहिए कुछ।
बहरहाल राइड कैंसल करने के बाद तय किया अपनी गाड़ी से ही चलते हैं। निकल ही रहे थे क़ि फ़ोन आया -'कहाँ आना है? किस जगह है घर आपका?'
पता चला कि हमारे राइड कैंसल करने के बाद भी अगली गाड़ी बुक हो गयी। पता नही कैसे? जबकि हमने बुकिंग से मना किया था।
ख़ैर हम इंतज़ार कर रहे थे गाड़ी। नक़्शे पर गाड़ी आती दिखी। पास आ गयी। लेकिन कहीं कोई कार दिखी नहीं। हमने फ़ोन किया तो पास आ गए दुपहिया वाहन का ड्राइवर बोला -'आ गए। चलिए।'
हमारे लिए ताज्जुब की बात थी। अपनी समझ में हमने कार की बुकिंग की थी। वो भी करके कैंसल कर दी थी। ये दुपहिया कहाँ से बुक हो गयी?
'हो जाती है जब आप कोई भी गाड़ी का विकल्प क्लिक करते हैं।'-हेलमेट लगाते हुए दुपहिया सवार बोला।
बहरहाल हम बमुश्किल तमाम बैठे पीछे। सीट काफ़ी ऊँची लगी। पैर घुमा के बैठने में लगा कि जाँघ का जोड़ हिल गया। शायद इसीलिए महिलाएँ एक तरफ़ ही पैर करके बैठती हैं दुपहिया गाड़ियों में।
दुपहिया चालक बालक ही था। बताया कि दादानगर में एक कम्पनी काम करता है। एकाउंटेंट का। बीकाम किया है। शाम को कुछ देर गाड़ी भी चला लेता है। अक्सर दादानगर से कल्याणपुर घर जाते हुए बीच की सवारी उठा लेता है। कभी घर से भी निकल जाता है गाड़ी लेकर। महीने में पाँच-सात हज़ार कमाई हो जाती है इससे। उसको शेयर मार्केट में लगा देता है। पैसा कमाता है, पैसा बचाता है।
एक कम्पनी के शेयर के बारे में बताया। पंद्रह हज़ार में शेयर ख़रीदे थे। सत्रह हज़ार का फ़ायदा हुआ। वो फ़ायदा निकाल लिया हमने। फिर ख़रीद लिए दूसरे शेयर। अपने पैसे निकाल लिए। अब पड़े रहेंगे। कुछ न कुछ देंगे ही फ़ायदा।
हमें लगा कि शायद Vivek Rastogi की पोस्ट्स पढ़ते हुए ज्ञान लेता रहता होगा।
शादी अभी नही हुई है। कह रहा था -'अभी कुछ कमाई कर लें। फिर शादी भी हो जाएगी।'
बालक ने बताया -'काम की कमी नहीं है आज भी। लड़के करते नहीं। वो घर बैठे आराम का पैसा चाहते हैं। लगी-लगाई नौकरी चाहते हैं सब जिसमें कोई मेहनत न करनी पड़े। बस पैसा मिलता रहे, चाहे कम मिले।'
अपने भाई के बारे में भी बताया -' वो कुछ करता नहीं। बस टाईम बरबाद करता रहता है।'
ऐसे तमाम लोग मेरी जानकारी में भी हैं जो किसी बड़े काम लायक़ काबिल नहीं लगते लेकिन कोई दूसरा काम करना नहीं चाहते। हाथ में आए काम से बढ़िया काम की तलाश में निठल्ले बैठे हैं। सालों से। लेकिन सामने दिखने वाले काम को शुरू नही करते।
गंतव्य पर पहुँचने पर बिल आया 41 रुपए। सात किलोमीटर दूरी तय की थी 41 रुपए में। हमें याद आया कि कार के 150 से ऊपर दिखा रहा था। सौ रुपए बचे। नया अनुभव हुआ सो अलग।
बालक ने हमको छोड़ा उस समय रात के क़रीब साढ़े नौ बज रहे थे। उसके काम का समय सुबह ग्यारह से शाम चार बजे तक का है। मतलब लगभग दस बजे सुबह से रात दस तक काम में जुटा रहता है बालक।
आज के समय शहरों में तमाम युवा ऐसी ज़िंदगी जी रहे हैं। दिन भर काम। मैं यह सोच रहा था कि ज़िंदगी की सबसे चमकदार उमर में उनके मनोरंजन और आनंद के मौक़े एकदम सिमट गए हैं। सामाजिकता की गुंजाइश कम से कम होती जा रही है। युवाओं के ऐसी ज़िंदगी कितनी सुकूनदेह है ?
युवाओं को लेकर वाजिब चिंता है आपकी सर.
ReplyDelete