कुछ दिन पहले एक लम्बी पोस्ट लिखी थी। एक बातचीत का विवरण देते हुए रपट लिखी थी ।
पोस्ट में मेहनत से फ़ोटो लगाए थे। उनके कैप्शन थे। वीडियो थे। लिखने में क़रीब चार- पाँच घंटे लगे थे। फ़ोटो लगाने, कैप्शन लिखने में भी आधा घंटा क़रीब लगा। संबंधित लोगों को टैग करने में भी समय लगा।
फ़ेसबुक ने पोस्ट कुछ देर बाद हटा दी। यह कहते हुए कि पोस्ट फ़ेसबुक की कम्यूनिटी भावना के विपरीत है।
हमने कुछ मित्रों से कारण पूछा। पोस्ट पढ़ चुकी Bhavna ने सुझाया कि पोस्ट में उपयोग किए शब्द 'प्रगतिशील' से फ़ेसबुक का हाज़मा ख़राब हुआ लगता है। 'प्रगति' और 'शील' को अलग-अलग करके देखिए। हमने किया। सब जगह 'प्रगति' शब्द को 'शील' शब्द से अलग कर दिया। दोनों के बीच गैप दे दिया। क़रीब 18 जगह 'प्रगति' और 'शील' में सम्बंध विच्छेद करना पड़ा।
इसके बाद पोस्ट प्रकाशित की तो फ़ेसबुक ने कोई एतराज नही किया। पोस्ट प्रकाशित हो गयी।
शायद सोशल मीडिया में 'प्रगति' बिना ' शील' से अलगाव के सम्भव नहीं।
यह नमूना है फ़ेसबुक के पोस्ट प्रकाशन पर नियंत्रण करने का। और भी पोस्ट्स इसी तरह से नियंत्रित की जाती होंगी। जिनकी पोस्ट नियमित हटाई जाती होंगी उनकी काट भी वे उसी तरह खोजते होंगे।
इसी सिलसिले में याद आया कि रवींद्र कालिया जी के उपन्यास 'खुद सही सलामत है' में एक महिला पात्र मल्लाही गालियाँ देती है। अपने पात्र से सीधे-सीधे गालियाँ दिलाने में कालिया जी का परहेज़ रहा होगा या नया प्रयोग पर उस पात्र का चित्रण करते हुए कालिया जी ने उसकी गालियों में अक्षरों का क्रम उलट दिया है।
'प्रगति' और 'शील' से शुरू हुई बात 'मल्लाही गालियों' तक पहुँच गयी। फ़ेसबुक जो कराए।
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