Friday, October 11, 2024

दशहरा मेला दिन में

 सबेरे टहलने निकले। गेट के बाहर तीन गाएँ 'अनमन धरना मुद्रा' में बैठी ऊँघ सी रहीं थी। रात भर वहीं बैठी, सोयीं होंगी। गोबर के तीन-चार 'छोत' इस बात की पुष्टि कर रहे थे कि गायों का कोई अलग शौचालय नहीं होता। जहां बैठ गयीं, वहीं निपट लीं। उनको हटाने की कोशिश की। दो तो तुरंत उठकर चल दीं। तीसरी वहीं बैठी रही। उसको बगलिया के सड़क पर आ गए। गायों को डिस्टर्ब करने में ख़तरा बढ़ गया है आजकल। क्या पता कई जानवर सोचते हों -'अगले जनम मोहे गईया ही कीजो।'

सड़क पर भी जगह-जगह पड़े गोबर के ढेर पढ़े थे। गायें निपटी होंगी रात में या सुबह।
पार्क में बच्चे क्रिकेट खेल रहे थे। कुछ बच्चे भागते हुए मैदान पर विकेट लगाने के बाद टीम सेलेक्ट करते दिखे। एक सड़क पर कुत्ते भौंकते दिखे। उनकी बात समझ में नही आ रही थी। उनको भौंकते देख मुझे टीवी चैनलों की तीखी बहस याद आ गयी। कुत्तों की भाषा मुझे नहीं आती कि वे किस बात की चर्चा कर रहे थे लेकिन यह तो अनुमान लगाया जा सकता है कि वे हालिया विधानसभा चुनाव के बारे में चर्चा नही कर रहे थे। न ही ईरान-इज़रायल, रूस-यूक्रेन लड़ाई के बारे में चिंतित थे। इन इंसानी चोचलों से निर्लिप्त वे भौंकने में लगे थे। अपन रास्ता बदलकर, दूसरी सड़क से निकलकर आगे बढ़ गए।
आर्मापुर थाने के सामने सड़क पर हमको ठोकर लगी। गिरते-गिरते बचे। गिरने से बच जाने का सुकून मन में लिए-लिए पीछे मुड़कर देखा। कांकरीट की सड़क पर हो गए गड्ढे में सरिया निकली हुई थी। उसी में पैर फँसा था। गिरते-गिरते बचे। आज मेले का दिन है। सरिया कटने तक दो-चार लोग ज़रूर यहाँ लड़खड़ाएँगे। गिरेंगे।
सड़क पर मोबाइल देखते हुए चलने में ये खतरे तो होते ही हैं।
आर्मापुर बाज़ार से होते हुए रामलीला मैदान गए। पूरे मैदान में प्लास्टिक की पन्नियाँ, काग़ज़, ख़ाली पैकेट दिख रहे थे। जिन लोगों ने मेले में दुकाने लगायी हैं उनमें से कुछ लोग मैदान में दिख रहे थे। एक महिला चाय पीते हुए चाय के ग्लास से अपने गाल सेंकते हुए सामने बैठे आदमी से बतियाते हुए मेले के किस्से सुना रही थी।
रामलीला मंच के सामने एक महिला ज़मीन पर बैठी हुई इधर-उधर देख रही थी। उसके तीन छोटे-छोटे बच्चे उसके अग़ल-बग़ल सो रहे थे। मेले में खिलौने बेचने आयी थे वह। बताया -'कल बहुत कम खिलौने बिके।' रावतपुर के पास से आयी है वह सपरिवार मेले में खिलौने बेचने। छोटे खिलौने। हमारी बातचीत सुनकर उसके बदल में सोए उसके आदमी की नींद खुल गयी। रज़ाई से मुँह निकालकर उसने अपने होने की घोषणा की। हम आगे बढ़ गए।
मैदान में लगी अधिकतर दुकाने बंद थीं। एक तरफ़ रावण, कुंभकर्ण और मेघनाथ के पुतले टुकड़ों में रखे थे। उनको जोड़कर पुतले बनाए जा रहे हैं। पुतलों के हिस्से के अग़ल-बग़ल बैठे-खड़े लोग आपस में बतिया रहे थे।
मेले में लगी एक चाट के दुकान में बारे में बताते हुए एक ने कहा -'वह अपनी दुकान हटा रहा है। बता रहा था कि दस हज़ार का सामान लाया था। एक हज़ार की बिक्री नहीं हुई दो दिन में। इससे ज़्यादा तो अपनी चाट की ठेलिया में कमा लेता है।'
हमने कहा -'आज शायद मेले में भीड़ बढ़ेगी। लोग आएँगे। आज छुट्टी है दशहरे की। बिक्री बढ़ेगी। '
'अरे उसने दुकान समेट ली अपनी। जा रहा है लेकर अपना टीम-टामड़ा।' -दुकान की तरफ़ देखते हुए एक आदमी बोला।
अधबने पुतलों के टुकड़े इधर-उधर पड़े हुए थे। दो सिर अग़ल-बग़ल रखे थे। पुतलों के शरीर के बाक़ी हिस्से , हाथ-पैर इधर-उधर रखे थे।
वहाँ मौजूद लोग पुतला बनाने वालों की चर्चा कर रहे थे। बताया -' जहूर बनाते थे यहाँ के पुतले। सालों तक वही बनाते रहे। इसके बाद उनके लड़के ने बनाए।'
इस बार पुतले बनाने का काम मुस्तकीम को मिला है। पचास साल से बना रहे हैं दशहरा में दहन के लिए पुतले। पुतले बनाने का काम अपने गुरु बाबू खां आतिशबाज से सीखा। पहले वे केवल पुतलों की टाँगे बनाते थे। गुरु जी के न रहने पर पुतला बनाने लगे। सचेंडी में रहते हैं। वहाँ चप्पल-जूते की दुकान है। साल भर दुकान चलाते हैं। दशहरा में पुतला बनाते हैं।
मुस्तकीम ने बताया -' बीस जगह पुतले बनाने का काम मिला है शहर में। आज शाम तक दस -बारह बन जाएँगे। बाक़ी कल तक सब खड़े हो जाएँगे।'
पुतलों के ढाँचे बांस की खपच्चियों के बने हैं। ढाँचे के ऊपर धोती का कपड़ा (पतला मारकीन का कपड़ा) चढ़ाते हैं। उसके ऊपर सफ़ेद काग़ज़ फिर रंगीन पुतले वाला काग़ज़। बारिश के पानी की बूँदों के चलते पुतले मटमैले हो गए हैं। उनको पेट्रोल से पोंछ कर चमका दिया जाएगा।
पुतले के धड़ में बांस की खपच्ची बाहर तक निकली है। निकली हुई खपच्ची के सहारे उसको लुढ़काकर इधर-उधर किया जा रहा है।
इस बीच चाय आ गयी। काम स्थगित करके वे पन्नी में लाई हुई चाय को छोटे-छोटे कप में डालकर वहीं बैठकर पीने लगे। उन लोगों ने हमको भी चाय पीने का निमंत्रण दिया लेकिन हमने मना कर दिया। वे चाय पीते हुए अलग -अलग जगह के पुतलों की चर्चा करने लगे । ककवन , सचेंडी, आज़मगढ़, शाहजहाँपुर। एक ने कहा -'आज़मगढ़ का पुतला सबसे बड़ा बनता है।' दूसरे ने कहा -'शाहजहाँपुर का पुतला सबसे बड़ा बनता है- हमने दस साल बनाया है।'
हमने भी शाहजहाँपुर के पुतले के पक्ष में वोट दे दिया और वहाँ का पुतला सबसे बड़ा हो गया। शाहजहाँपुर में 1992 से 2001 तक रहने के दौरान वहाँ की रामलीला की अनगिनत यादें हैं। बाद में 2019 से 2022 तक वहाँ रहे ज़रूर लेकिन कोरोना के चलते मेला नही लग पाया।
पुतले वाली जगह से आगे बढ़कर एक जगह कुछ बच्चे एक कूदने वाले झूले पर कूदते दिखे। चार-पाँच बच्चे कूदते हुए आपस में बतिया रहे थे। हमको फ़ोटो लेते देखकर मेरा मोबाइल देखने लगे। एक ने पूछा -' आइफ़ोन है चच्चा - देख लें?' हमने कहा -'देख लो।' दो-तीन बच्चों ने मेरे मोबाइल देखा।
उनको मोबाइल दिखाते हुए सबसे पहले ,बिना बताए जो विचार मेरे दिमाग़ में घुसा उसने कहा -'कहीं बच्चा मेरा मोबाइल फ़ोन लेकर भाग न जाए।' हमने अपने दिमाग़ को डपट दिया। दिमाग़ बेचारा सहम गया। बोला -'अरे हम तो बता रहे हैं, दुनिया में ऐसा होता है।' हम फिर डपट दिया दिमाग़ को -'चुप रहो । शट अप ।'
बेचारा दिमाग़ सहमकर चुप हो गया।
बच्चे ने मोबाइल देखते हुए दाम पूछा। हमने बताया -'हमको पता नहीं।हमारे बेटे ने लाकर दिया है।'
एक बच्चे ने बताया -बीस हज़ार का होगा। हमारे मोहल्ले में एक जन लाए हैं।'
बच्चे फिर उछलने में तल्लीन हो गए। वो पूरे पैसे और समय की क़ीमत वसूल कर रहे थे।
पता चला बच्चे रावतपुर से आए हैं मेला घूमने। सबने अपने-अपने नाम बताये -'आलोक, रिंकूँ , साहिल, सौरभ।' बाद में उछलते हुए बच्चों ने अपने नाम बदल दिए। कुछ देर में फिर बताया -'हमारे नाम ये नहीं , ये हैं।' हमने उनके नए नाम भी बिना याद किए स्वीकार कर लिए।
बच्चों ने बताया कि वे रावतपुर गाँव से आए हैं। 25 रुपए मिले हैं घर से मेले में घूमने के। दस रुपए झूले वाला लेगा। बाक़ी के पैसे कुछ खाया-पिया जाएगा।
बच्चों ने यह भी बताया कि वे शाम को यहाँ ग़ुब्बारे बेचने भी आते हैं। कल पचास -सौ रुपए के ग़ुब्बारे बेचे।
हम चलने लगे तो झूले पर कूदते हुए बच्चों ने पूछा -'चच्चु यहाँ पानी का नल कहाँ है ? नहाना है। गर्मी लग रही है।'
हमने नल के बारे में बता दिया और चल दिए। आगे एक चाय की दुकान वाला बता रहा था कि उसकी भी बिक्री बहुत कम हुई कल। मेले में भीड़ आयी नहीं। चाय वाले की ठेलिया पर उसकी बच्ची सोयी थी। शायद पत्नी भी। वहीं एक छोटी चप्पल पड़ी थी।बच्ची की चप्पल है। उस चप्पल की जोड़ीदार चप्पल मेले में कहीं खो गयी है। चप्पल बेकार हो गयी।
उस छुटकी चप्पल को देखकर मुझे नर्मदा बांध के निर्माण में डूब जाने वाले गाँव 'हरसूद' के लोगों के विस्थापन की याद आई। लोग जब गाँव छोड़कर जा रहे थे तो इसी तरह छूट गए सामानों की रिपोटिंग करते हुए विजय मनोहर तिवारी ने किताब लिखी थी - 'हरसूद -30 जून।' (विनय मनोहर तिवारी से हुई बातचीत का लिंक )
बिछुड़ी हुई चप्पल मेले के किसी कोने में अकेले गुमसुम अपनी जोड़ीदार चप्पल की याद में गुम होगी। क्या पता किसी को मिल ही जाए और चप्पलें भी मेले में बिछुड़े भाई-बहनों की तरह कभी मिल जाएँ।
दुकान से आगे बढ़कर मेले से निकलकर अपन घर की तरफ़ चल दिए।






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