कई दिन बाद आज साईकिल सैर को निकले। जगे तो पहले तो लगा बरसात हो रही
है। थोड़ी देर अलसाये लेते रहे। अलसैट से उबरे तो उठे। देखा बाहर मौसम
खुशनुमा सा था। आशिकाना च। फिर क्या निकल लिए साइकिल स्टार्ट करके।
सड़क पर लोग टहलने निकल लिए थे। एक हाथ में छाता थामे दूसरे को डुलाते हुए लोग सुबह की सैर कर रहे थे। जुवा पीढ़ी होती तो छाते की जगह शायद मोबाइल थमा होता।
दो बच्चे स्कूटी पर स्कूल ड्रेस में जा रहे थे। पीछे बैठा बच्चा एक साइकिल को हैंडल से थामे था। शायद पंचर हुई हो साइकिल। साइकिल स्कूटर के साथ चलने हांफ रही थी फिर भी संगत दिए भाग रही थी। हमारा समझाने का मन हुआ की ऐसे में धीरे-धीरे जाओ। कहीँ स्कूटी को ब्रेक लगाना पड़ा तो मुश्किल होगी। हमें अपने साईकिल यात्रा के दिन याद आये जब हम ट्रकों के पीछे डाले की जंजीर पकड़कर बिना पैडल मारे चलते थे और क्लीनर हमको डांटकर जंजीर छोड़ने को कहता था।लेकिन हमारा मन जब तक जबान को कहे तब तक वो आवाज की पहुंच से बाहर हो गए थे। हमरे वसीम बरेलवी का यह शेर याद करके मामला खत्म किया:
आगे बैरियर बन्द था। हमने चाय की दूकान पर चाय पीते हुए ट्रेन के गुजरने का इन्तजार किया। ट्रेन हल्ला मचाते हुई गुजरी। उसको लगा हम कहीं दूर होंगे इसलिए जोर से बोल रही थी। लेकिन हम तो वहीं थे।
बैरियर पार करके ओवरब्रिज के नीचे दो लोग चूल्हा सुलगाये भात पकाते दिखे। ढिंढ़ोरी के पास के एक गांव से मजूरी करने आये हैं। बारिश में काम नहीं मिलता तो घर जाने की सोच रहे हैं। पैसा हो जाए तो निकल जाएंगे। यहां तो पानी में दोनों तरफ से बौछार में 'कुत्तन की नाईं' सिकुड़ के परे रहत हैं।
हमने पूछा कित्ता किराया तो बोले 100 रुपया है। हमने कहा कि हम फिर आएंगे और तब तक किराया न जुटा तो दे देंगे। चले जाना घर। वो बोले- भैया तुम भले आदमी हो। ठहर के पूछ लिए हाल चाल। नई त आज के समय कौन पूछत काऊ के हाल।
अपने लिए भले आदमी सुनकर अच्छा और अटपटा दोनों एक साथ लगा। अटपटा इसलिए कि प्रकृति की सर्वोत्तम कही जाने वाली कृति इंसान के हाल इतने बेहाल कि कोई उसके हाल सुन ले इतने में ही वह निहाल हो जाए।
हम आगे चले दीपा से मिलने। पता चला कि वह मन्दिर गयी है समय पूछने। लौटी तो हमने पूछा कि तुम तो समय खुद जान जाती हो। फिर मन्दिर क्यों गयी समय पूछने। बोली-मन्दिर पूजा करने और मन्नत मागने गए थे। क्या मांगा? बोली-हमको पढ़ाई लिखाई सिखा दें। हमने कहा-सीख जाओगी। मेहनत करो।
साथ में टॉफ़ी ले गए थे आज। लेकर थैंक्यू बोला दीपा ने। बोली अपनी सहेली मुस्कान को भी खिलाएंगे। कहने पर एक अधूरी कविता भी सुनाई ।हमने पूछा -हमारे साथ चलोगी? बोली- अभी तो स्कूल जा रहे। हमने पूछा-इतवार को चलोगी? बोली-इतवार को तो हम नानी के यहां जाते हैं।
चलते हुए दीपा की फोटो खींची। उसको दिखाई।खुश हुई। बोली-आपने जो उस दिन फोटो खींची थी वह हमको एक अंकल ने दिखाई थी। कह रहे थे वो आपके दोस्त हैं। फोटो देखते हुए उसने मेरी पत्नी के साथ फोटो भी देखी। कहा-आंटी की फोटो है! बहुत अच्छी है। कहते हुए वह स्कूल चली गई।
लौटते हुए फिर वो ढिंढ़ोरी वाले भाई जी मिले।अब तक उनकी पत्नी सामने के हैण्डपम्प से नहाकर लौट आई थीं। साथी पास की दुकान से ग्लास में चाय ले आया। भाई जी ने अपनी पत्नी को बताया -'जे चाय के पैसे भैया जी ने दिए हते।' उनकी पत्नी ने अपनी चाय का ग्लास हमको देना चाहा। हल्की जिद भी की।हमने मना किया यह कहते हुए कि हमने अभी पी है।
उस आदमी की फोटो खींचने के बाद देखा तो उसका जूता पूरा खुला था। मुक्त अर्थव्यवस्था की तरह। हर तरह की हवा आने की खुली छूट।
लौटकर कमरे पर आये। पोस्ट लिखी और अब दफ्तर जा रहे हैं। चलते-चलते यह याद आया कि जब
तीसरे पैरा में 'मुश्किल होगी' लिखा था न तो वो वाला गाना याद आया था:
खैर यह तो बहस का विषय है। अभी तो दफ्तर बुला रहा है। जल्दी आओ, फाइलें इंतजार में हैं। सो अब चले। आप अच्छे से रहना। खुश । मुस्कराते हुए। बिंदास। जो होगा देखा जायेगा।
सड़क पर लोग टहलने निकल लिए थे। एक हाथ में छाता थामे दूसरे को डुलाते हुए लोग सुबह की सैर कर रहे थे। जुवा पीढ़ी होती तो छाते की जगह शायद मोबाइल थमा होता।
दो बच्चे स्कूटी पर स्कूल ड्रेस में जा रहे थे। पीछे बैठा बच्चा एक साइकिल को हैंडल से थामे था। शायद पंचर हुई हो साइकिल। साइकिल स्कूटर के साथ चलने हांफ रही थी फिर भी संगत दिए भाग रही थी। हमारा समझाने का मन हुआ की ऐसे में धीरे-धीरे जाओ। कहीँ स्कूटी को ब्रेक लगाना पड़ा तो मुश्किल होगी। हमें अपने साईकिल यात्रा के दिन याद आये जब हम ट्रकों के पीछे डाले की जंजीर पकड़कर बिना पैडल मारे चलते थे और क्लीनर हमको डांटकर जंजीर छोड़ने को कहता था।लेकिन हमारा मन जब तक जबान को कहे तब तक वो आवाज की पहुंच से बाहर हो गए थे। हमरे वसीम बरेलवी का यह शेर याद करके मामला खत्म किया:
आगे एक आदमी टी शर्ट पहने तेजी से टहल रहा था। टी शर्ट के पीछे बनती लहरियादार सिकुड़न का पैटर्न हर कदम के साथ बदल रहा था। दांया पैर आगे होने पर सिकुड़न का पैटर्न एक तरफ तो बायां पैर आगे होने पर दूसरी तरफ। लोकतंत्र में सरकारों के बदलने पर जैसे संस्थाओं के चरित्र बदलते हैं कुछ उसी तरह टहलते हुए आदमी की टी शर्ट का पैटर्न बदल रहा था।
कहां से बच निकलना है, कहां जाना जरूरी है।
नए जमाने की खुदमुख्तारियों को कौन समझाये
आगे बैरियर बन्द था। हमने चाय की दूकान पर चाय पीते हुए ट्रेन के गुजरने का इन्तजार किया। ट्रेन हल्ला मचाते हुई गुजरी। उसको लगा हम कहीं दूर होंगे इसलिए जोर से बोल रही थी। लेकिन हम तो वहीं थे।
बैरियर पार करके ओवरब्रिज के नीचे दो लोग चूल्हा सुलगाये भात पकाते दिखे। ढिंढ़ोरी के पास के एक गांव से मजूरी करने आये हैं। बारिश में काम नहीं मिलता तो घर जाने की सोच रहे हैं। पैसा हो जाए तो निकल जाएंगे। यहां तो पानी में दोनों तरफ से बौछार में 'कुत्तन की नाईं' सिकुड़ के परे रहत हैं।
हमने पूछा कित्ता किराया तो बोले 100 रुपया है। हमने कहा कि हम फिर आएंगे और तब तक किराया न जुटा तो दे देंगे। चले जाना घर। वो बोले- भैया तुम भले आदमी हो। ठहर के पूछ लिए हाल चाल। नई त आज के समय कौन पूछत काऊ के हाल।
अपने लिए भले आदमी सुनकर अच्छा और अटपटा दोनों एक साथ लगा। अटपटा इसलिए कि प्रकृति की सर्वोत्तम कही जाने वाली कृति इंसान के हाल इतने बेहाल कि कोई उसके हाल सुन ले इतने में ही वह निहाल हो जाए।
हम आगे चले दीपा से मिलने। पता चला कि वह मन्दिर गयी है समय पूछने। लौटी तो हमने पूछा कि तुम तो समय खुद जान जाती हो। फिर मन्दिर क्यों गयी समय पूछने। बोली-मन्दिर पूजा करने और मन्नत मागने गए थे। क्या मांगा? बोली-हमको पढ़ाई लिखाई सिखा दें। हमने कहा-सीख जाओगी। मेहनत करो।
साथ में टॉफ़ी ले गए थे आज। लेकर थैंक्यू बोला दीपा ने। बोली अपनी सहेली मुस्कान को भी खिलाएंगे। कहने पर एक अधूरी कविता भी सुनाई ।हमने पूछा -हमारे साथ चलोगी? बोली- अभी तो स्कूल जा रहे। हमने पूछा-इतवार को चलोगी? बोली-इतवार को तो हम नानी के यहां जाते हैं।
चलते हुए दीपा की फोटो खींची। उसको दिखाई।खुश हुई। बोली-आपने जो उस दिन फोटो खींची थी वह हमको एक अंकल ने दिखाई थी। कह रहे थे वो आपके दोस्त हैं। फोटो देखते हुए उसने मेरी पत्नी के साथ फोटो भी देखी। कहा-आंटी की फोटो है! बहुत अच्छी है। कहते हुए वह स्कूल चली गई।
लौटते हुए फिर वो ढिंढ़ोरी वाले भाई जी मिले।अब तक उनकी पत्नी सामने के हैण्डपम्प से नहाकर लौट आई थीं। साथी पास की दुकान से ग्लास में चाय ले आया। भाई जी ने अपनी पत्नी को बताया -'जे चाय के पैसे भैया जी ने दिए हते।' उनकी पत्नी ने अपनी चाय का ग्लास हमको देना चाहा। हल्की जिद भी की।हमने मना किया यह कहते हुए कि हमने अभी पी है।
उस आदमी की फोटो खींचने के बाद देखा तो उसका जूता पूरा खुला था। मुक्त अर्थव्यवस्था की तरह। हर तरह की हवा आने की खुली छूट।
लौटकर कमरे पर आये। पोस्ट लिखी और अब दफ्तर जा रहे हैं। चलते-चलते यह याद आया कि जब
तीसरे पैरा में 'मुश्किल होगी' लिखा था न तो वो वाला गाना याद आया था:
तुम मुझको न चाहो तो कोई बात नहींलेकिन हमने इस गाने को डांट के भगा दिया। इसकी जगह रमानाथ अवस्थी की गीत पंक्ति फिट की:
तुम किसी और को चाहो तो 'मुश्किल होगी'।
तुम मेरे होकर कहीं रहोलिखने को तो लिख दिया लेकिन फिर आवाज उठ रही है कि भाई कोई जबरदस्ती है किसी का होकर रहना।
मैं बहुत बहुत खुश तनिक तनिक नाराज।
खैर यह तो बहस का विषय है। अभी तो दफ्तर बुला रहा है। जल्दी आओ, फाइलें इंतजार में हैं। सो अब चले। आप अच्छे से रहना। खुश । मुस्कराते हुए। बिंदास। जो होगा देखा जायेगा।
No comments:
Post a Comment