सुबह
की शुरुआत चाय से होती है। अगर टहलने नहीं जाते तो उठने के पहले बोल देते
हैं लाने के लिए।। उठकर जब तक मुंह धोते हैं तब तक चाय आ जाती है।
चाय की शुरुआत जब हुई तब हम कानपुर के गांधीनगर वाले कमरे में रहते थे। सबेरे अंगीठी जलती। अम्मा चाय बनाती। सबको देती।
जाड़े के दिनों की याद है। पत्थर के कोयले की अंगीठी के पास अंगीठी तापते हुए चाय पीते। अम्मा कुछ दिन तक चाय में नमक डालकर पीती रहीं। फिर छोड़ दिया।
अम्मा चाय शुरू से स्टील के ग्लास में पीतीं थीं। कांच के ग्लास या कप में चाय कभी नहीं पी। पानी भी स्टील के ग्लास में ही पीती थीं। हम उनसे मजे लेते थे-'तुम बहुत चालाक हो अम्मा! स्टील के गिलास में इस लिए चाय पीती हो ताकि कोई देख न ले और तुम भर कर पियो।'
चाय जब अंगीठी में बनती थी तब तो दिन में सिर्फ दो ही बार मिलती। जाड़े में जबतक अम्मा पूजा करतीं तब तक पहले कच्चे कोयले को और फिर पत्थर के कोयले को दफ़्ती से धौक के सुलगा देते। फिर चाय बनती। अंगीठी में चाय बनती थी इसलिए दिन में सिर्फ दो बार ही हो पता।
फिर इंजीनियरिंग कालेज गए। वहां 30 पैसे की चाय मिलती। धड़ल्ले से पीते रहते। कुछ नहीं समझ आता तो चल देते चाय की दूकान पर। घण्टों बरबाद होते। आबाद होते।
घर में गैस आने के बाद दिन में कई बार चाय बनती। सुबह इस समय तक 2 से 3 चाय हो ही जाती। कभी दोपहर तक आधा दर्जन चाय हो जाती। कभी-कभी डांट भी पड़ती। बस, अब चाय नहीं। अम्मा थीं तो देखतीं कि बहुत मन है बच्चे का तो अपने खुद के 'अब चाय नहीं मिलेगी' के फरमान को धता बताते हुए धीरे-धीरे चलते हुए चुप्पे से मेज पर चाय धर देतीं। कहतीं- 'चुपचाप पी लो। अब इसके बाद नाम न ले देना चाय का।'
हमारे साथ के तमाम लोग लेमन टी, ब्लैक टी या और तमाम तरह की टी पीते हैं। लेकिन हम दूध की चाय के अलावा और कोई चाय पसन्द नहीं कर पाते।' ब्लैक टी' को हम SAG टी मतलब सीनियर एडमिस्ट्रेटिव ग्रेड टी कहते हैं जो कि लोग ऊँचे ओहदे पर पहुंचकर पीने लगते हैं। हमें SAG हुए 3 साल हुए लेकिन चाय के मामले में हम 'एक चाय व्रता' हैं। दूध,चीनी और पत्ती वाली चाय के अलावा और किसी को पसन्द नहीं कर पाते।
हम चाय ज्यादा पीने के लिए बदनाम हैं। दिन में कई बार पीते हैं। मुझे लगता है कि शायद ऐसा है नहीं। कई बार चाय आती है। थर्मस में रखी रह जाती है।दफ्तर में भी ऐसा होता है। चाय तो मुझे लगता है कि सिर्फ एक आदत है। कुछ और नहीँ तो चाय सही। हमारे बॉस तो कई बार घण्टी बजाते है और जब तक अर्दली आता है तब तक भूल जाते हैं कि किसलिए बुलाया। याद आ गया तो ठीक। नहीं याद आया तो बोल देते हैं- चाय ले आओ। गेट सम कॉफी।
हमारी अर्दली भी दिन में दो तीन बार खासकर लंच के समय यह शाम को जाते समय पूछ लेती है- साहब चाय बना दें। हम दफ्तर में नहीं होते तो जाते समय चाय बनाकर प्लेट से ढंककर रख जाता है दूसरा अर्दली। भले ही ठण्डी होने के चलते हम उसको न पी पाएं।
हमारे दफ्तर (खुद और मीटिंग का मिलाकर) और कमरे की चाय का कुल खर्च 1000 -1200 होता है। इसमें मीटिंग्स और दूसरों के दफ्तर में पी गयी चाय का खर्च नहीं शामिल। हम कई मजदूरों से बात करते हैं।कइयों की महीने की आमदनी 4/5 हजार है। जितनी आमदनी में कोई अपना परिवार चलाता है उसका एक चौथाई हम सिर्फ इसलिए खर्च देते हैं क्योंकि और कुछ समझ नहीं आता करने को।
खैर खर्च की तो कोई सीमा नहीं।खर्च करने को तो कोई छत पर हेलिपैड बनवाता है, कोई लाख रूपये के पेन से लिखता है, कोई लाखों का सूट पहनता है। हम तो सिर्फ 1000 रूपये खर्चते हैं।
अब आप कहेंगे कि यह तो ऐसे ही हुआ जैसे कोई अरबों-खरबों के घोटाले की दुहाई देते हुए अपने लाख दो लाख के घपले जायज बताये। संसद ठप्प होने को गरियाता हुआ खुद का काम बन्द रखे यह कहते हुए-महाजनो एन गत: स: पन्था।
लोग कहते हैं चाय से एसिडिटी होती है। लेकिन हमें नहीं हुई अब तक। चाय के पहले हमेशा पानी पीते हैं। चाय हमेशा ठण्डी करके पीते हैं। कोल्ड ड्रिंक गर्म करके। लेकिन चाय अगर ठण्डी मिली तो कहते हैं गर्म करके लाओ। चाय को ठंडा करना हमारा काम है। हम।करेंगे।कोई और क्यों करे इसको ?
चाय सम्वाद का माध्यम भी है। किसी से बात करनी है तो बैठाकर चाय मंगा लेते हैं। आजकल चाय की दूकान पर भी बात इसी बहाने होती है लोगों से। खड़े हुए और चुस्की लेते हुए बतियाने लगे। उमाकांत मालवीय जी की कविता है न:
जो लोग स्वास्थ्य कारणों से चाय छोड़ते हैं उनका तो फिर भी ठीक। लेकिन जो चाय को खराब मानकर पीते ही नहीं उनके चेहरे पर 'हम चाय पीते ही नहीं' कहते हुए वही तेज और आत्मविश्वास दीखता है जो बकौल वैद्य जी ब्रह्मचर्य की रक्षा करने पर दीखता होगा।
हम भी कहां-कहां टहला दिए आपको चाय के बहाने सुबह-सुबह। आज इतवार है। कइयों की छुट्टी होगी। मजे करिये। हमारी तो फैक्ट्री खुली है। रक्षाबन्धन की छुट्टी के बदले आज ओवर टाइम। हम ओवर टाइम वाले तो नहीं लेकिन दूकान खुली है तो जाना तो होता है न। चलते हैं दफ्तर।
देखिये आपको हम बहाने से बता भी दिए कि सरकारी लोग भले ही कितना बदनाम हों लेकिन कुछ लोग हैं जो इतवार को भी दफ्तर जाते हैं।
फिलहाल तो आप मजे कीजिये। मस्त रहिये।हम चलते हैं दफ्तर।
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https://www.facebook.com/anup.shukla.14/posts/10206279774286726:0
चाय की शुरुआत जब हुई तब हम कानपुर के गांधीनगर वाले कमरे में रहते थे। सबेरे अंगीठी जलती। अम्मा चाय बनाती। सबको देती।
जाड़े के दिनों की याद है। पत्थर के कोयले की अंगीठी के पास अंगीठी तापते हुए चाय पीते। अम्मा कुछ दिन तक चाय में नमक डालकर पीती रहीं। फिर छोड़ दिया।
अम्मा चाय शुरू से स्टील के ग्लास में पीतीं थीं। कांच के ग्लास या कप में चाय कभी नहीं पी। पानी भी स्टील के ग्लास में ही पीती थीं। हम उनसे मजे लेते थे-'तुम बहुत चालाक हो अम्मा! स्टील के गिलास में इस लिए चाय पीती हो ताकि कोई देख न ले और तुम भर कर पियो।'
चाय जब अंगीठी में बनती थी तब तो दिन में सिर्फ दो ही बार मिलती। जाड़े में जबतक अम्मा पूजा करतीं तब तक पहले कच्चे कोयले को और फिर पत्थर के कोयले को दफ़्ती से धौक के सुलगा देते। फिर चाय बनती। अंगीठी में चाय बनती थी इसलिए दिन में सिर्फ दो बार ही हो पता।
फिर इंजीनियरिंग कालेज गए। वहां 30 पैसे की चाय मिलती। धड़ल्ले से पीते रहते। कुछ नहीं समझ आता तो चल देते चाय की दूकान पर। घण्टों बरबाद होते। आबाद होते।
घर में गैस आने के बाद दिन में कई बार चाय बनती। सुबह इस समय तक 2 से 3 चाय हो ही जाती। कभी दोपहर तक आधा दर्जन चाय हो जाती। कभी-कभी डांट भी पड़ती। बस, अब चाय नहीं। अम्मा थीं तो देखतीं कि बहुत मन है बच्चे का तो अपने खुद के 'अब चाय नहीं मिलेगी' के फरमान को धता बताते हुए धीरे-धीरे चलते हुए चुप्पे से मेज पर चाय धर देतीं। कहतीं- 'चुपचाप पी लो। अब इसके बाद नाम न ले देना चाय का।'
हमारे साथ के तमाम लोग लेमन टी, ब्लैक टी या और तमाम तरह की टी पीते हैं। लेकिन हम दूध की चाय के अलावा और कोई चाय पसन्द नहीं कर पाते।' ब्लैक टी' को हम SAG टी मतलब सीनियर एडमिस्ट्रेटिव ग्रेड टी कहते हैं जो कि लोग ऊँचे ओहदे पर पहुंचकर पीने लगते हैं। हमें SAG हुए 3 साल हुए लेकिन चाय के मामले में हम 'एक चाय व्रता' हैं। दूध,चीनी और पत्ती वाली चाय के अलावा और किसी को पसन्द नहीं कर पाते।
हम चाय ज्यादा पीने के लिए बदनाम हैं। दिन में कई बार पीते हैं। मुझे लगता है कि शायद ऐसा है नहीं। कई बार चाय आती है। थर्मस में रखी रह जाती है।दफ्तर में भी ऐसा होता है। चाय तो मुझे लगता है कि सिर्फ एक आदत है। कुछ और नहीँ तो चाय सही। हमारे बॉस तो कई बार घण्टी बजाते है और जब तक अर्दली आता है तब तक भूल जाते हैं कि किसलिए बुलाया। याद आ गया तो ठीक। नहीं याद आया तो बोल देते हैं- चाय ले आओ। गेट सम कॉफी।
हमारी अर्दली भी दिन में दो तीन बार खासकर लंच के समय यह शाम को जाते समय पूछ लेती है- साहब चाय बना दें। हम दफ्तर में नहीं होते तो जाते समय चाय बनाकर प्लेट से ढंककर रख जाता है दूसरा अर्दली। भले ही ठण्डी होने के चलते हम उसको न पी पाएं।
हमारे दफ्तर (खुद और मीटिंग का मिलाकर) और कमरे की चाय का कुल खर्च 1000 -1200 होता है। इसमें मीटिंग्स और दूसरों के दफ्तर में पी गयी चाय का खर्च नहीं शामिल। हम कई मजदूरों से बात करते हैं।कइयों की महीने की आमदनी 4/5 हजार है। जितनी आमदनी में कोई अपना परिवार चलाता है उसका एक चौथाई हम सिर्फ इसलिए खर्च देते हैं क्योंकि और कुछ समझ नहीं आता करने को।
खैर खर्च की तो कोई सीमा नहीं।खर्च करने को तो कोई छत पर हेलिपैड बनवाता है, कोई लाख रूपये के पेन से लिखता है, कोई लाखों का सूट पहनता है। हम तो सिर्फ 1000 रूपये खर्चते हैं।
अब आप कहेंगे कि यह तो ऐसे ही हुआ जैसे कोई अरबों-खरबों के घोटाले की दुहाई देते हुए अपने लाख दो लाख के घपले जायज बताये। संसद ठप्प होने को गरियाता हुआ खुद का काम बन्द रखे यह कहते हुए-महाजनो एन गत: स: पन्था।
लोग कहते हैं चाय से एसिडिटी होती है। लेकिन हमें नहीं हुई अब तक। चाय के पहले हमेशा पानी पीते हैं। चाय हमेशा ठण्डी करके पीते हैं। कोल्ड ड्रिंक गर्म करके। लेकिन चाय अगर ठण्डी मिली तो कहते हैं गर्म करके लाओ। चाय को ठंडा करना हमारा काम है। हम।करेंगे।कोई और क्यों करे इसको ?
चाय सम्वाद का माध्यम भी है। किसी से बात करनी है तो बैठाकर चाय मंगा लेते हैं। आजकल चाय की दूकान पर भी बात इसी बहाने होती है लोगों से। खड़े हुए और चुस्की लेते हुए बतियाने लगे। उमाकांत मालवीय जी की कविता है न:
एक चाय की चुस्कीकभी-कभी सोचते हैं कि चाय छोड़ दें। लेकिन फिर लगता है कि चाय छोड़ देंगे तो उन लोगों को कितनी परेशानी होगी जिनके यहां हम जाते हैं तो वो हमको चाय पिलाते हैं। चाय एक सस्ता सहज आथित्य पेय है। हम किसी दूसरे को क्यों परेशान करें। लेकिन सोचते हैं कम।कर दें? कितनी कम करें ? बोलो दोस्तों -10 ? 8? 5? या और ज्यादा। बताओ देखते हैं फिर।
एक कहकहा
अपना तो बस सामान यह रहा।
जो लोग स्वास्थ्य कारणों से चाय छोड़ते हैं उनका तो फिर भी ठीक। लेकिन जो चाय को खराब मानकर पीते ही नहीं उनके चेहरे पर 'हम चाय पीते ही नहीं' कहते हुए वही तेज और आत्मविश्वास दीखता है जो बकौल वैद्य जी ब्रह्मचर्य की रक्षा करने पर दीखता होगा।
हम भी कहां-कहां टहला दिए आपको चाय के बहाने सुबह-सुबह। आज इतवार है। कइयों की छुट्टी होगी। मजे करिये। हमारी तो फैक्ट्री खुली है। रक्षाबन्धन की छुट्टी के बदले आज ओवर टाइम। हम ओवर टाइम वाले तो नहीं लेकिन दूकान खुली है तो जाना तो होता है न। चलते हैं दफ्तर।
देखिये आपको हम बहाने से बता भी दिए कि सरकारी लोग भले ही कितना बदनाम हों लेकिन कुछ लोग हैं जो इतवार को भी दफ्तर जाते हैं।
फिलहाल तो आप मजे कीजिये। मस्त रहिये।हम चलते हैं दफ्तर।
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आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन ब्लॉग बुलेटिन - ऋषिकेश मुखर्जी और मुकेश में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।
ReplyDeleteएक चाय की चुस्की
ReplyDeleteएक कहकहा
अपना तो बस सामान यह रहा।
..बहुत खूब!
...चाय की प्याली में बहुत से यादें डूब-उतर गयी
बेहतरीन , बहुत खूब , बधाई अच्छी रचना के लिए
ReplyDeleteकभी इधर भी पधारें