आज दोपहर को पुलिया पर डोनट बेचते हुए राजा से मुलाकात हुए। पहली बार 2 अक्टूबर,14 को प्रवेश के हाथ से खाये थे डोनट (http://fursatiya.blogspot.in/2014/10/blog-post_20.html
)। उस दिन पूरे देश में स्वच्छता अभियान की हवा चल रही थी। हम झाड़ू-पंजा
चलाकर आये थे। दस महीने में स्वच्छता अभियान की आंधी गुजर सी गयी। अब शायद
दो अक्टूबर को फिर कुछ हल्ला हो।
राजा तीन भाई हैं। तीनों डोनट बेचते हैं। राजा आठ तक पढ़े हैं। बक्से में 200 के करीब डोनट हैं।एक 5 रूपये का। पिछले साल भी यह इतने का ही था। घर में खुद बनाते हैं।मैदा से। 200 से 250 रूपये रोज बच जाते हैं।
राजा तीन भाई हैं। तीनों डोनट बेचते हैं। राजा आठ तक पढ़े हैं। बक्से में 200 के करीब डोनट हैं।एक 5 रूपये का। पिछले साल भी यह इतने का ही था। घर में खुद बनाते हैं।मैदा से। 200 से 250 रूपये रोज बच जाते हैं।
जब तक हम राजा से बात कर रहे थे तब तक साइकिल पर अलम्युनियम के बरतन बेचने
वाले संतोष सोनकर वहां आ गए। घमापुर में रहते हैं। हफ्ते में एक दिन
वीएफजे और मढ़ई की तरफ निकलते हैं बरतन बेचने के लिए।
दस साल पुरानी साइकिल पर पीछे रखी बड़ी पतीली का दाम हमने पूछा तो बताया 1000 रुपया। ढाई किलो करीब की पतीली है। 450 रुपया किलो के हिसाब से बेचते हैं बरतन। सच तो यह है कि अगर हम पूछते नहीं तो पता भी न चलता कि क्या भाव बिकते हैं अल्युमिनियम के बर्तन।
संतोष के पिताजी भी बर्तन का ही काम करते थे। दो साल पहले नहीं रहे तो सन्तोष ने शुरू किया काम। सात भाई और एक बहन में सबसे बड़े हैं सन्तोष। दो छोटे भाई (भी फेरी लगाते हैं) और सन्तोष मिलकर घर का खर्च चलाते हैं। अक्सर लोग ख़ास धर्म के लोगों को आबादी की बढ़ोत्तरी से जोड़ते हैं। लेकिन 'पुलिया पर दुनिया' देखते हुए मैंने अनुभव किया कि ज्यादा बच्चे होने का कारण व्यक्ति के धर्म से अधिक उसके सामजिक,आर्थिक परिवेश से जुड़ा मामला है।
सन्तोष ने स्कूल का मुंह नहीं देखा। पढ़े-लिखे बिल्कुल नहीं हैं। सिर्फ पैसे की गिनती और तौल के बारे में पता है।
फोटो लेने के बाद देखा कि सूरज की रौशनी की चमक में फोटो साफ़ नहीं दिख रही। कुछ ऐसे ही जैसे बाजार की चमक और अपने जीवन की आपाधापी में हमको सन्तोष जैसे लोगों की जिंदगी के बारे कुछ अंदाज नहीं होता। फोटो तो दूसरे कोण से खींचेंगे तो अच्छी आ जायेगी लेकिन इनकी जिंदगी कैसे बेहतर होगी इसका कुछ पता नहीं।
आपको कुछ पता है?
दस साल पुरानी साइकिल पर पीछे रखी बड़ी पतीली का दाम हमने पूछा तो बताया 1000 रुपया। ढाई किलो करीब की पतीली है। 450 रुपया किलो के हिसाब से बेचते हैं बरतन। सच तो यह है कि अगर हम पूछते नहीं तो पता भी न चलता कि क्या भाव बिकते हैं अल्युमिनियम के बर्तन।
संतोष के पिताजी भी बर्तन का ही काम करते थे। दो साल पहले नहीं रहे तो सन्तोष ने शुरू किया काम। सात भाई और एक बहन में सबसे बड़े हैं सन्तोष। दो छोटे भाई (भी फेरी लगाते हैं) और सन्तोष मिलकर घर का खर्च चलाते हैं। अक्सर लोग ख़ास धर्म के लोगों को आबादी की बढ़ोत्तरी से जोड़ते हैं। लेकिन 'पुलिया पर दुनिया' देखते हुए मैंने अनुभव किया कि ज्यादा बच्चे होने का कारण व्यक्ति के धर्म से अधिक उसके सामजिक,आर्थिक परिवेश से जुड़ा मामला है।
सन्तोष ने स्कूल का मुंह नहीं देखा। पढ़े-लिखे बिल्कुल नहीं हैं। सिर्फ पैसे की गिनती और तौल के बारे में पता है।
फोटो लेने के बाद देखा कि सूरज की रौशनी की चमक में फोटो साफ़ नहीं दिख रही। कुछ ऐसे ही जैसे बाजार की चमक और अपने जीवन की आपाधापी में हमको सन्तोष जैसे लोगों की जिंदगी के बारे कुछ अंदाज नहीं होता। फोटो तो दूसरे कोण से खींचेंगे तो अच्छी आ जायेगी लेकिन इनकी जिंदगी कैसे बेहतर होगी इसका कुछ पता नहीं।
आपको कुछ पता है?
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