Monday, August 17, 2015

देश का सबसे बड़ा सामाजिक घोटाला

कल ट्रेन दो घण्टा से भी ऊपर आई। हमारा डब्बा प्लेटफार्म से करीब 20 मीटर नीचे आता है। गिट्टियों पर चलते हुए पैर फिसलता है तो गाना याद आ जाता है- 'आज रपट जाएँ तो हमें न बचइयो' हम फिर खुद को हड़काते हैं कि ट्रेन में बैठने तक जूते ही पहनने चाहिए। चप्पल आरामदायक भले लगें लेकिन खतरनाक हैं।

गिट्टियों के ऊपर खम्भे के पास खड़े होकर ट्रेन का इंतजार करते रहे। समय बीत गया तो नेट देखे। गाड़ी डेढ़ घण्टा पीछे खड़ी थी। हमारे साथ के लोग प्लेटफार्म की तरफ लौट गए। हम वहीं पटरी के किनारे पड़े एक सीमेंट स्लीपर पर पसर के बैठ गए। बगल में बैठे लोगों की लंतरानी सुनते रहे।

रेल लेट होती रही। रात अपनी 'गुडमार्निंग' कहते हुए आई और पसर गई। कई मालगाड़ियां खरामा-खरामा बगल से गुजर गयीं। दो मीटर की दूरी पर बैठे यही सोचते रहे कि जो लोग इनके नीचे जानबूझकर आ जाते हैं उनको कित्ती जोर की चोट लगती होगी।

चारो तरफ अँधेरा पसर गया। पटरी के किनारे बैठे हम सोचते रहे कि कोई सांप अगर आ गया और हमको दिखा नहीं तो का होगा। काट-कूट लिया तो बहुत हड़काये जाएंगे कि क्या जरूरत थी जब पटरी किनारे बैठने की जब पता था कि ट्रेन लेट है।

खुद भले अँधेरे की गोदी में बैठे थे पर नेट की लुकाछिपी के बीच दोस्तों से भी जुड़े रहे जहां पूरी रौशनी थे। पोस्ट्स देखते रहे।


ट्रेन आई तो लपके। टीटी दरवज्जे पर ही खड़ा था स्वागत के लिए। पूछिस- 5 नम्बर बर्थ। ए के शुक्ला।मन किया 'या' बोल दें। फिर ध्यान आया कि कोई चैटिंग थोड़ी कर रहे जहां लोग भाव मारने के लिए 'फोटो' को 'पिक' और 'हाँ' की जगह 'यप्प'/'या' बोलते हैं। हमने फिर उसको 'हां' बोला और बैठ गए बर्थ पर। बर्थ में चार्जर प्वाइंट लगा था और ठीक भी था यह देखकर हमारी बांछे वो शरीर में जहां कहीँ भी हों खिल गयीं।

बैठते ही घर से लाया खाना खाया। बचे हुए छोले हाथ से उँगलियाँ चाटते हुए खाये। सुबह देखा तो चम्मच भी मिली झोले में। लगा कि चीजें हमारे पास होती हैं लेकिन हम सोचते हैं वो होंगी नहीं और अपना काम निकाल लेते हैं। वे चीजें विरहणी नायिका सी अपने उपयोग का अंतहीन इंतजार करती रहती हैं।

सुबह आँख खुली तो गाड़ी कटनी स्टेशन पर रुकी। एकदम सामने चाय वाला था। लेकिन हमारे कने फुटकर पैसे न थे। पांच सौ का नोट। चाय वाले ने साफ मना कर दिया कि एक चाय के लिए वो पांच सौ वाले गांधी जी को फुटकर में नहीं बदलेगा।

ऊपर की बर्थ से नीचे आया बच्चा इन्जिनियरिग करके हांडा टू व्हीलर में काम करता है। 2010 में कोटा से इंजिनयरिंग किया। चार साल बाद कम्पनी बदल करके इस कम्पनी में आया। कुँवारा है। सगाई हो चुकी है।
हमने पूछा कि शादी खुद की मर्जी से कर रहे या घर वालों की मर्जी से। बोला-घर वालों की मर्जी से। हमने पूछा-कोई प्रेम सम्बन्ध भी रहा क्या? बोला-हां। दो साल रहा। हमने पूछा-उससे शादी क्यों नहीं की? बोला-दोनों के घर वाले नहीं माने। हमने कहा-बड़े बुजदिल हो यार। प्रेम किया और शादी नहीं कर पाये। फिर पूछा-किसने मना किया? तुमने या लड़की ने। बोला- दोनों ने। जब दोनों के ही घर वाले नहीं माने तो दोनों ने तय किया कि घर वालों की मर्जी के खिलाफ शादी नहीं करेंगे।

लड़के से मैंने कहा- सही में प्रेम था। और सही में शादी करना चाहते थे तो घरवालों की मर्जी के खिलाफ करनी थी शादी यार। क्या खाली टाइमपास प्रेम था। बोला-मैं छह महीने अड़ा रहा। पर फिर पापा डिप्रेशन में चले गए। फिर हमने तय किया नहीं करेंगे शादी। लड़की की शादी हो भी गयी।

शादी किसी का व्यक्तिगत निर्णय है। कोई प्रेम करे वह शादी करना भी चाहे यह जरूरी नहीं। लेकिन करना चाहे पर कर न पाये सिर्फ इसलिए कि घर वाले नहीं मान रहे । यह अच्छी बात नहीं। जात-पांत और हैसियत के चलते प्रेम सम्बंधों का परिवार वेदी पर कुर्बान हो जाना अपने देश का सबसे बड़ा सामाजिक घोटाला है। यह घोटाला सदियों से हो रहा है पर कोई इसके खिलाफ आवाज नहीं उठाता क्योंकि इसमें सब मिले हुए हैं।
गाड़ी जबलपुर पहुंच गई। इसलिए फ़िलहाल इतना ही। आपका दिन शुभ हो।

No comments:

Post a Comment