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भैया मत न भये दस-बीस
By फ़ुरसतिया on May 1, 2009
कल चुनाव का तीसरा दौर पूरा हो लिया। दो तिहाई से अधिक सीटों पर चुनाव
हो गये। भीषण गर्मी और उदासीनता के चलते मतदाता गुम्म-सुम्म बने रहे। कल
कानपुर में केवल 39 फ़ीसदी मतदान हुआ। तमाम लोगों के वोट देने के आवाहन के
बावजूद। जनप्रतिनिधि अपने-अपने इलाके से वोटर निकाल कर पोलिंग बूथ तक लाने
के लिये जद्दोजहद करते रहे लेकिन चुनाव आयोग की बंदिशों के चलते अब घर-घर
से वोटर उठाकर बूथ तक लाने का चलन नहीं दिखा।
इस दौरान टेलीविजन पर जनप्रतिनिधियों के भाषण भी सुनने को मिले। एक-दूसरे पर तीखे हमले करते दिखे लोग। कोई किसी की छाती पर रोलर चलवा रहा था , कोई किसी के हाथ कटवा रहा था, कोई किसी की छाती को सुलभ शौचालय सा बनाये दे रहा था। लोग अपने-आप को भारत मां सच्चा लाल होने का एफ़िडेविट (शपथ पत्र ) दे रहे थे। लोग अपनी तारीफ़ में आत्मनिर्भर दिख रहे थे।
लोग कहते हैं कि पहले लोग भाषणों में मुद्दे पर बात करते थे अब व्यक्तिगत हमले करना एकमात्र मुद्दा हो गया है। मुद्दे निराकार होते हैं, दिखते नहीं। समझने-समझाने में बहुत भेजा फ़्राई होता है। मुद्दे की बात निर्गुण ब्रह्म की तरह अबूझ होती है। व्यक्तिगत हमले सगुण ब्रह्म की तरह फ़ट से समझ में आ जाते हैं। तो क्या यह माना जा सकता है कि इस बार के चुनाव निर्गुण विधारधारा से सगुणविचारधारा की तरफ़ उन्मुख हुये।
भाषणों में लोगों ने अभद्रता के नये आयाम छुये। सबसे कम अभद्र भाषण उन लोगों ने दिये जिनकी हिन्दी कमजोर थी।
कहा जाता है कि किसी लकीर से बड़ी लकीर बनाने के दो तरीके हैं। नकारात्मक तरीका यह है कि दूसरे की लकीर को मिटाकर छोटा कर दो। जबकि सकारात्मक तरीके में दूसरी लकीर से बड़ी लकीर खींचनी होती है। जनप्रतिनिधियों ने हमेशा की तरह इस बार भी सकारात्मक तरीका अपनाया। जैसे ही किसी दल पर कोई आरोप लगा कि आपके दल ने ये गलती की इसका क्या जबाब है? उस दल के प्रवक्ता ने अपनी दल की गलती को बगल में दबाते हुये दूसरे दल की दस गलतियां झट से सामने पेश कर दीं कि इनके क्या जबाब हैं। अपनी एक गलती के जबाब में अगले की दस गलती पेश कर दीं। अगले से बड़ी लकीर खैंच दी।
दूसरे के द्वारा की हुई गलतियां कितना सुकून देती हैं उस समय जब आपकी गलतियों की बात चल रही होती है।
ऐसे में मुझे हमारे एक अधिकारी की कही बात याद आती है- नो एमाउंट आफ़ काउन्टर कम्प्लेन इस रिप्लाई टू अ कम्प्लेन।
आरोप का जबाब प्रत्यारोप नहीं होता। लेकिन चुनाव के दौरान भाषणों में हमने यही देखा कि अपनी एक गलती को लोग दूसरों की पचीस गलतियों को ढकते पाये गये। हीरे के चोर अपनी सफ़ाई में दूसरे के द्वारी की गयी खीरे की चोरी का उदाहरण पेश कर रहे थे।
चुनाव में इत्ते तो प्रधानमंत्री खड़े थे कि गिनने में नहीं आ रहे थे। सांसद कम संभावित प्रधानमंत्री ज्यादा दिख रहे थे। शिवकुमार मिसिरजी के रतिराम तो इसीलिये चुनाव नहीं लड़े कि उनको डर लग रहा था कि कहीं उनको कोई पकड़कर प्रधानमंत्री न बना दे। अगर कहीं ऐसा हो गया तो उनकी दुकान का क्या होगा?
भाषणबाजी अब बड़ी नीरस टाइप की हो गयी है। कोई तत्व की बात नहीं। न कोई हास्यबोध न कोई मौज-मजे की बात। बस अगले को गिराओ हमे उठाओ टाइप भाषण बाजी।
कुछ दिन पहले रजत शर्मा ने हिन्दी दैनिक हिन्दुस्तान में अटल बिहारी बाजपेयी जी के बारे में लिखते हुये उनकी भाषण कला का जिक्र किया था। उनके जैसे वक्ता दुर्लभ हैं। रजत शर्मा ने बताया कि अटलजी ने अपने विरोधियों पर हमले किये लेकिन उनको व्यक्तिगत कभी नहीं बनाया। इमरजेंसी के बाद हुई एक सभा में अटलजी ने अपने भाषण में कहा- इमरजेन्सी के बाद अगर हमारी सरकार बनी तो हम वायदा करते हैं जिनकी नौकरियां चली गयीं हैं उनको नौकरियां वापस मिल जायेंगी , जिन पर झूठे मुकदमें लगे वे मुकदमें वापस हो जायेंगे लेकिन जिनकी नसबंदी हो गयी है उनकी नस जुड़वाने की हम कोई गारंटी नहीं दे सकते। इस तरह के हास्यबोध के साथ अपनी बात कहने वाले अब दिखते नहीं। अब तो सीधे रोलर चल रहे हैं, हाथ काटे जा रहे हैं और न जाने क्या-क्या हो रहा है। देशभक्त जनप्रतिनिधि दूसरों को आतंकित कर देने की हद तक घृणा का
प्रचार करते हुये भाषण देते दिखे।
जागरूक लोग हमेशा देर से जगते हैं देर से जगाते हैं। दो तिहाई सीटों की वोटिंग हो जाने के बाद कल डा.अनुराग आर्य का एस.एम.एस. आया जो उन्होंने किसी और से पाकर फ़ार्वर्ड किया होगा। संदेश है- 10 आतंकवादी नाव (BOAT) से आये । 539 आतंकवादी वोट (VOTE) से आने वाले हैं। इसलिये ध्यान से वोट डालें।
चुनाव के दौरान जनप्रतिनिधि हरेक से अपने दल को वोट देने की अपील करते पाये जाते हैं। कल हमें लगा उनसे कहा जा सकता है-
न हाथ में लगाम होगी न रकाब में पांव
खेल नहीं है उस पर गद्दी गांठना
दुलत्ती झाड़ेगी और जमीन पर पटक देगी
बिगाड़ कर रख देगी सारा चेहरा मोहरा
बगल में खड़ी होकर
जमीन पर अपने खुर बजायेगी
धूल के बगूले बनायेगी
जैसे कहती हो
दम है तो दुबारा गद्दी गांठों मुझ पर
भागना चाहोगे तो भागने नहीं देगी
घसीटते हुये ले जायेगी
और न जाने किन जंगलों में छोड़ आयेगी।
राजेश जोशी
(समकालीन सृजन के अंक कविता इस समय से साभार)
इस दौरान टेलीविजन पर जनप्रतिनिधियों के भाषण भी सुनने को मिले। एक-दूसरे पर तीखे हमले करते दिखे लोग। कोई किसी की छाती पर रोलर चलवा रहा था , कोई किसी के हाथ कटवा रहा था, कोई किसी की छाती को सुलभ शौचालय सा बनाये दे रहा था। लोग अपने-आप को भारत मां सच्चा लाल होने का एफ़िडेविट (शपथ पत्र ) दे रहे थे। लोग अपनी तारीफ़ में आत्मनिर्भर दिख रहे थे।
लोग कहते हैं कि पहले लोग भाषणों में मुद्दे पर बात करते थे अब व्यक्तिगत हमले करना एकमात्र मुद्दा हो गया है। मुद्दे निराकार होते हैं, दिखते नहीं। समझने-समझाने में बहुत भेजा फ़्राई होता है। मुद्दे की बात निर्गुण ब्रह्म की तरह अबूझ होती है। व्यक्तिगत हमले सगुण ब्रह्म की तरह फ़ट से समझ में आ जाते हैं। तो क्या यह माना जा सकता है कि इस बार के चुनाव निर्गुण विधारधारा से सगुणविचारधारा की तरफ़ उन्मुख हुये।
भाषणों में लोगों ने अभद्रता के नये आयाम छुये। सबसे कम अभद्र भाषण उन लोगों ने दिये जिनकी हिन्दी कमजोर थी।
कहा जाता है कि किसी लकीर से बड़ी लकीर बनाने के दो तरीके हैं। नकारात्मक तरीका यह है कि दूसरे की लकीर को मिटाकर छोटा कर दो। जबकि सकारात्मक तरीके में दूसरी लकीर से बड़ी लकीर खींचनी होती है। जनप्रतिनिधियों ने हमेशा की तरह इस बार भी सकारात्मक तरीका अपनाया। जैसे ही किसी दल पर कोई आरोप लगा कि आपके दल ने ये गलती की इसका क्या जबाब है? उस दल के प्रवक्ता ने अपनी दल की गलती को बगल में दबाते हुये दूसरे दल की दस गलतियां झट से सामने पेश कर दीं कि इनके क्या जबाब हैं। अपनी एक गलती के जबाब में अगले की दस गलती पेश कर दीं। अगले से बड़ी लकीर खैंच दी।
दूसरे के द्वारा की हुई गलतियां कितना सुकून देती हैं उस समय जब आपकी गलतियों की बात चल रही होती है।
ऐसे में मुझे हमारे एक अधिकारी की कही बात याद आती है- नो एमाउंट आफ़ काउन्टर कम्प्लेन इस रिप्लाई टू अ कम्प्लेन।
आरोप का जबाब प्रत्यारोप नहीं होता। लेकिन चुनाव के दौरान भाषणों में हमने यही देखा कि अपनी एक गलती को लोग दूसरों की पचीस गलतियों को ढकते पाये गये। हीरे के चोर अपनी सफ़ाई में दूसरे के द्वारी की गयी खीरे की चोरी का उदाहरण पेश कर रहे थे।
चुनाव में इत्ते तो प्रधानमंत्री खड़े थे कि गिनने में नहीं आ रहे थे। सांसद कम संभावित प्रधानमंत्री ज्यादा दिख रहे थे। शिवकुमार मिसिरजी के रतिराम तो इसीलिये चुनाव नहीं लड़े कि उनको डर लग रहा था कि कहीं उनको कोई पकड़कर प्रधानमंत्री न बना दे। अगर कहीं ऐसा हो गया तो उनकी दुकान का क्या होगा?
भाषणबाजी अब बड़ी नीरस टाइप की हो गयी है। कोई तत्व की बात नहीं। न कोई हास्यबोध न कोई मौज-मजे की बात। बस अगले को गिराओ हमे उठाओ टाइप भाषण बाजी।
कुछ दिन पहले रजत शर्मा ने हिन्दी दैनिक हिन्दुस्तान में अटल बिहारी बाजपेयी जी के बारे में लिखते हुये उनकी भाषण कला का जिक्र किया था। उनके जैसे वक्ता दुर्लभ हैं। रजत शर्मा ने बताया कि अटलजी ने अपने विरोधियों पर हमले किये लेकिन उनको व्यक्तिगत कभी नहीं बनाया। इमरजेंसी के बाद हुई एक सभा में अटलजी ने अपने भाषण में कहा- इमरजेन्सी के बाद अगर हमारी सरकार बनी तो हम वायदा करते हैं जिनकी नौकरियां चली गयीं हैं उनको नौकरियां वापस मिल जायेंगी , जिन पर झूठे मुकदमें लगे वे मुकदमें वापस हो जायेंगे लेकिन जिनकी नसबंदी हो गयी है उनकी नस जुड़वाने की हम कोई गारंटी नहीं दे सकते। इस तरह के हास्यबोध के साथ अपनी बात कहने वाले अब दिखते नहीं। अब तो सीधे रोलर चल रहे हैं, हाथ काटे जा रहे हैं और न जाने क्या-क्या हो रहा है। देशभक्त जनप्रतिनिधि दूसरों को आतंकित कर देने की हद तक घृणा का
प्रचार करते हुये भाषण देते दिखे।
जागरूक लोग हमेशा देर से जगते हैं देर से जगाते हैं। दो तिहाई सीटों की वोटिंग हो जाने के बाद कल डा.अनुराग आर्य का एस.एम.एस. आया जो उन्होंने किसी और से पाकर फ़ार्वर्ड किया होगा। संदेश है- 10 आतंकवादी नाव (BOAT) से आये । 539 आतंकवादी वोट (VOTE) से आने वाले हैं। इसलिये ध्यान से वोट डालें।
चुनाव के दौरान जनप्रतिनिधि हरेक से अपने दल को वोट देने की अपील करते पाये जाते हैं। कल हमें लगा उनसे कहा जा सकता है-
भैया मत न भये दस-बीस,लेकिन हम उनसे कुछ कह नहीं पाये। डर लग रहा था कि आचार संहिता लगी होने की बावजूद वे जनप्रतिनिधियोचित आचार-व्यवहार न कर बैठें।
एक हुतौ सो डारि आये हैं, अब मती निपोरो खींस,
इंद्री शिथिल भई बिजली बिनु, ज्यों नेता बिनु घूस,
आशा लागि रही तन स्वासा,बेटवा की नहीं बढ़ेगी फ़ीस,
तुम तौ चमचा हौ नेताजी के,नित पावत हौ बक्सीश,
भैया हमरे ब्लाग लिखे बिनु,अब और नहीं जगदीश॥
मेरी पसन्द
निराशा एक बेलगाम घोड़ी हैन हाथ में लगाम होगी न रकाब में पांव
खेल नहीं है उस पर गद्दी गांठना
दुलत्ती झाड़ेगी और जमीन पर पटक देगी
बिगाड़ कर रख देगी सारा चेहरा मोहरा
बगल में खड़ी होकर
जमीन पर अपने खुर बजायेगी
धूल के बगूले बनायेगी
जैसे कहती हो
दम है तो दुबारा गद्दी गांठों मुझ पर
भागना चाहोगे तो भागने नहीं देगी
घसीटते हुये ले जायेगी
और न जाने किन जंगलों में छोड़ आयेगी।
राजेश जोशी
(समकालीन सृजन के अंक कविता इस समय से साभार)
जनप्रतिनिधियोचित आचार-व्यवहार के क्या कहने…!
नेताजी खींसे निपोरते होंगे।
इतने साल हो गए जनार्दन द्विवेदी जी को, हिंदी पढाते, अभी भी हिंदी कमजोरे है?
बहुत सामयिक पोस्ट लिखी आपने. अब ये हास्यबोध राजनिति मे किस्से कहानियों तक ही सीमित रह गया है.
रामराम
———-
सावधान हो जाइये
कार्ल फ्रेडरिक गॉस
मुम्बई टाईगर
हे प्रभु तेरापथ
इस चुनाव से कुछ नहीं बदलना
बदलेंगे कुछ चेहरे, बस!
फिर वही सब कुछ होगा
जो होता आया है
अभी खेंचते हैं सब
एक दूसरे की चड्डियाँ
अच्छा है हो जाएं सब
पूरे के पूरे नंगे
कौन है सब से कम नंगा
प्रतियोगिता का अंत हो
हो जाने दो चुनाव
शोले बरसाते मौसम में
सोचो, बचने का उपाय
मत दो आमंत्रण लू को लगने का
चुनाव बाद आएंगे
सब के सब नंगे
सोचो! कैसे बचानी है
अपनी अपनी चड्डियाँ?
एक हुतौ सो डारि आये हैं, अब मती निपोरो खींस,
भाई वाह! पूरा पद ही बड़ा ज़ोरदार है.
तबइ हम कहते हैं कि जूतमपैजारीयता धाकड़ हिन्दी वाले ही करते हैं। सारे गली मुहल्लों में उनका ही डंका है!
सरकार और नेताओं को सबसे अधिक रोने वाले लोग वही होते हैं जो वोट नहीं डालने जाते, जैसे वोट न डाल कुछ उखाड़ लेंगे या कोई किला फतह कर लेंगे! इनमें अधिकतर पढ़े लिखे गंवार (गंवार इसलिए कि ये सोचते हैं कि वोट न डाल फन्ने खां हो लेंगे जबकि भुगतना बाद में इनको भी पड़ता है) होते हैं जिनसे अपेक्षा की जाती है कि ये कुछ समझ रखते होंगे। अब जिनसे समझ की अपेक्षा की जाती है वे ही वोट नहीं डालेंगे तो सरकार ना समझ लोगों के वोट से बन जाएगी न, तो थकी हुई सरकार के लिए अंत पंत दोषी कौन?!
इस देश का वाकई कुछ नहीं हो सकता, सब राम भरोसे चल रहा है!!
देखेँ क्या होता है अब आगे ..
पढे लिखों को यही कहा जा सकता है कि If you don’t vote, don’t whine!! शायद अंग्रेजी में कहने पर जल्दी समझ आ जाये।
न हाथ में लगाम होगी न रकाब में पांव
खेल नहीं है उस पर गद्दी गांठना
दुलत्ती झाड़ेगी और जमीन पर पटक देगी
बिगाड़ कर रख देगी सारा चेहरा मोहरा
बहुत खूब