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किसी बहुत ऊंची पहाड़ी से कोई सोता फ़ूटे
By फ़ुरसतिया on May 2, 2009
कल के लेख में हमने लिखा था-भाषणों में लोगों ने अभद्रता के नये आयाम छुये। सबसे कम अभद्र भाषण उन लोगों ने दिये जिनकी हिन्दी कमजोर थी।
इस पर शिवकुमार मिश्र का सवाल था- इतने साल हो गए जनार्दन द्विवेदी जी को, हिंदी पढाते, अभी भी हिंदी कमजोरे है?
अब हमें पता नहीं है कि जनार्दन द्विवेदी जी कौन जिला के हैं लेकिन सालों हिंदी पढ़ाने से हिंदी मजबूतै हो जायेगी ऐसा कौनौ सिद्धांत नहीं है जी।
रही बात अभद्र भाषण देने न देने की तो अगर आप मानते हैं कि जनार्दन द्विवेदी जी ने हिंदी के विद्वान होने के बावजूद अभद्र भाषण दिया तो हमारी बात की पुष्टि हो गयी। और अगर आप यह कहना चाहते हैं कि जनार्दन द्विवेदीजी की हिन्दी कमजोर है इसके बावजूद वे अभद्र भाषण दे लिये तो इससे भी हमारी बात की पुष्टि ही होती है बस आपको जरा सा यह करना है कि जनार्दन द्विवेदी जी के उदाहरण को अपवाद के खाते में डालना होगा। जहां आपने यह किया नहीं कि आप एक्सेप्शन प्रूव्स द रूल की पूंछ पकड़कर नियम-वैतरणी पार गये।
चुनाव की बात दीगर लेकिन यह सच है कि लोगों का गुस्सा बढ़ता जा रहा है। हमने देखा कि इस चक्कर में लोग आत्म-धिक्कार का भी सहारा लेने में परहेज नहीं करते। अपने आसपस ही मैं देखता हूं कि लोग-बाग दिन पर दिन चिड़चिड़े, आत्मलीन और उदासीन, उदास से दिखते हैं। लोगों को लगता है कि उनके संस्थान उनकी प्रतिभा के अनुरूप उनको सुविधायें नहीं दे रहे। पांच-पांच, छह-छह साल के अनुभव पाये लोग उदासी की गोद में जा बैठते हैं।
वरिष्ठ लोगों के प्रति सहज सम्मान लोगों के मन में कम होता जा रहा है। तमाम वरिष्ठ लोग भी इस दुख में दुबले होते रहते हैं कि जो सुविधायें उनको बहुत दिन बाद आकर मिलीं वे उनके जूनियरों को बड़े कम समय में मिल गयीं। मनुष्य बड़ी खोजी प्रवृत्ति का होता है- दुखी रहने का बहाना तलाश ही लेता है।
दो-तीन दिन पहले मैं ऐसे ही सोच रहा था कि बहुत दिनों से कोई सुखी व्यक्ति नहीं दिखा। सुखी का मतलब खाया,पिया अघाया नहीं बल्कि ऐसा व्यक्ति जिसके साथ बोल-बतियाकर यह लगे कि जिन्दगी में कुछ लोग ऐसे भी हैं जो तमाम परेशानियों के बावजूद मस्त टाइप हैं। बाद में यह लगा कि शायद हमारी ही मन:स्थिति ऐसी होगी तभी हमें कोई मस्त नहीं दिखा होगा। मैं अपने ही अंगूठा सिद्धान्त (Thumb Rule) को बिसरा गया- जो जैसा होता है वैसा ही दूसरों के बारे में सोचता है।
वैसे कल ही अपने एक मित्र पाठक जी से बातचीत हुई फ़ोन पर बहुत दिन दिनों बाद। खुदा का शुक्र है कि हमारे पप्पूजी पचीस साल बाद भी खुल के और खिल के हंसते हैं। कभी उनके हंसने पर हमने तुकबंदी टाइप की थी जिसे लोगों ने कविता बताया था। उनकी हंसी के बारे में उस समय के चलन वाली बातें लिखीं थीं-
किसी बहुत ऊंची पहाड़ी से कोई सोता फ़ूटे
पसर जाये जंगल के सीने पर
झरना सा बनकर।
पाठकजी से दिल्ली की गर्मी के बारे में पूछा तो बोले- दिल्ली में जित्ती गर्मा है उससे ज्यादा का हल्ला लोग मचाते हैं, गर्मी फ़ैलाते हैं। हमे तो केन नदी के किनारे वाले बांदा के हैं जहां ४९-५० डिग्री तो अक्सर रहता है।
खुशवंत सिंह जी ने पिछले दिनों अपने कालम में कुछ चार महिलाओं का जिक्र करते हुये एक लेख लिखा था। उमा भारतीजी भी उनमें से एक थीं। आज खुशवंत सिंह जी ने लिखा:
वामन हुये विराट चलो वंदना करें,
जर्रे हैं शैलराट चलो वंदना करें।
माली को वायरल,कलियों को जीर्णज्वर,
कागज के फूल वृंतों पर बैठें हैं सज-संवर,
आंधी मलयसमीर का ओढ़े हुये खिताब,
निर्द्वन्द व्यवस्था ने अपहृत किये गुलाब,
निरुपाय हुये आज अपने ही उपवन में ,
कांटे हुये एलाट चलो वंदना करें।
था प्रश्न हर ज्वलंत किंतु टालते रहे,
उफ!धार में होने का भरम पालते रहे,
पतवार,पाल,नाव सभी अस्त-व्यस्त हैं,
इस भांति सिंधु थाहने का पथ प्रशस्त है,
उपलब्धियों के वर्ष,दिवस जोड़ते रहे,
देखा तो नहीं धार चलो वंदना करें।
वामन हुये विराट चलो वंदना करें,
जर्रे हैं शैलराट चलो वंदना करें।
-अजय गुप्त,शाहजहांपुर।
इस पर शिवकुमार मिश्र का सवाल था- इतने साल हो गए जनार्दन द्विवेदी जी को, हिंदी पढाते, अभी भी हिंदी कमजोरे है?
अब हमें पता नहीं है कि जनार्दन द्विवेदी जी कौन जिला के हैं लेकिन सालों हिंदी पढ़ाने से हिंदी मजबूतै हो जायेगी ऐसा कौनौ सिद्धांत नहीं है जी।
रही बात अभद्र भाषण देने न देने की तो अगर आप मानते हैं कि जनार्दन द्विवेदी जी ने हिंदी के विद्वान होने के बावजूद अभद्र भाषण दिया तो हमारी बात की पुष्टि हो गयी। और अगर आप यह कहना चाहते हैं कि जनार्दन द्विवेदीजी की हिन्दी कमजोर है इसके बावजूद वे अभद्र भाषण दे लिये तो इससे भी हमारी बात की पुष्टि ही होती है बस आपको जरा सा यह करना है कि जनार्दन द्विवेदी जी के उदाहरण को अपवाद के खाते में डालना होगा। जहां आपने यह किया नहीं कि आप एक्सेप्शन प्रूव्स द रूल की पूंछ पकड़कर नियम-वैतरणी पार गये।
चुनाव की बात दीगर लेकिन यह सच है कि लोगों का गुस्सा बढ़ता जा रहा है। हमने देखा कि इस चक्कर में लोग आत्म-धिक्कार का भी सहारा लेने में परहेज नहीं करते। अपने आसपस ही मैं देखता हूं कि लोग-बाग दिन पर दिन चिड़चिड़े, आत्मलीन और उदासीन, उदास से दिखते हैं। लोगों को लगता है कि उनके संस्थान उनकी प्रतिभा के अनुरूप उनको सुविधायें नहीं दे रहे। पांच-पांच, छह-छह साल के अनुभव पाये लोग उदासी की गोद में जा बैठते हैं।
वरिष्ठ लोगों के प्रति सहज सम्मान लोगों के मन में कम होता जा रहा है। तमाम वरिष्ठ लोग भी इस दुख में दुबले होते रहते हैं कि जो सुविधायें उनको बहुत दिन बाद आकर मिलीं वे उनके जूनियरों को बड़े कम समय में मिल गयीं। मनुष्य बड़ी खोजी प्रवृत्ति का होता है- दुखी रहने का बहाना तलाश ही लेता है।
दो-तीन दिन पहले मैं ऐसे ही सोच रहा था कि बहुत दिनों से कोई सुखी व्यक्ति नहीं दिखा। सुखी का मतलब खाया,पिया अघाया नहीं बल्कि ऐसा व्यक्ति जिसके साथ बोल-बतियाकर यह लगे कि जिन्दगी में कुछ लोग ऐसे भी हैं जो तमाम परेशानियों के बावजूद मस्त टाइप हैं। बाद में यह लगा कि शायद हमारी ही मन:स्थिति ऐसी होगी तभी हमें कोई मस्त नहीं दिखा होगा। मैं अपने ही अंगूठा सिद्धान्त (Thumb Rule) को बिसरा गया- जो जैसा होता है वैसा ही दूसरों के बारे में सोचता है।
वैसे कल ही अपने एक मित्र पाठक जी से बातचीत हुई फ़ोन पर बहुत दिन दिनों बाद। खुदा का शुक्र है कि हमारे पप्पूजी पचीस साल बाद भी खुल के और खिल के हंसते हैं। कभी उनके हंसने पर हमने तुकबंदी टाइप की थी जिसे लोगों ने कविता बताया था। उनकी हंसी के बारे में उस समय के चलन वाली बातें लिखीं थीं-
किसी बहुत ऊंची पहाड़ी से कोई सोता फ़ूटे
पसर जाये जंगल के सीने पर
झरना सा बनकर।
पाठकजी से दिल्ली की गर्मी के बारे में पूछा तो बोले- दिल्ली में जित्ती गर्मा है उससे ज्यादा का हल्ला लोग मचाते हैं, गर्मी फ़ैलाते हैं। हमे तो केन नदी के किनारे वाले बांदा के हैं जहां ४९-५० डिग्री तो अक्सर रहता है।
खुशवंत सिंह जी ने पिछले दिनों अपने कालम में कुछ चार महिलाओं का जिक्र करते हुये एक लेख लिखा था। उमा भारतीजी भी उनमें से एक थीं। आज खुशवंत सिंह जी ने लिखा:
मैंने अपने कालम में चार औरतों के बारे में लिखा था। मुसलमानों से उनकी नफ़रत को मैंने उनकी जिंदगी में सेक्स से जोड़ा था। उनमें उमा भी थीं।
उमा ने हिंदी में चिट्ठी लिखी है। मुझे औरतों के खिलाफ़ साबित कर दिया। काश! यह सच होता। मैं तो औरतों के चाहने के चक्कर में बदनाम हूं। मुझे भरोसा है कि अगर मैं उनके आस-पास होता तो , तो उन्होंने मुझे थप्पड़ रसीद कर दिया होता। जैसा उन्हॊंने अपने एक समर्थक के साथ किया था। बाद में गुस्सा उतरने पर मुझे उसी समर्थक की तरह ’किस’ भी किया होता। अपनी चिट्ठी के साथ उन्होंने मुझे पीने के लिये गोमूत्र भेजा है। मैं मूत्र थेरेपी को नहीं मानता। उसे पीने की बात से मुझे उल्टी होने लगती है। चाहे वह मोरारजी का या मेरा ही गोमूत्र क्यों न हो। जाहिर है मैंने उसे टायलेट में बहा दिया। प्रिय उमा भारती क्या आप जानती हैं कि गुस्से पर अपने पुरुखों ने क्या कहा है? उन्होंने क्रोध को पांच बड़े पापों में माना है।
मेरी पसन्द
वामन हुये विराट चलो वंदना करें,
जर्रे हैं शैलराट चलो वंदना करें।
माली को वायरल,कलियों को जीर्णज्वर,
कागज के फूल वृंतों पर बैठें हैं सज-संवर,
आंधी मलयसमीर का ओढ़े हुये खिताब,
निर्द्वन्द व्यवस्था ने अपहृत किये गुलाब,
निरुपाय हुये आज अपने ही उपवन में ,
कांटे हुये एलाट चलो वंदना करें।
था प्रश्न हर ज्वलंत किंतु टालते रहे,
उफ!धार में होने का भरम पालते रहे,
पतवार,पाल,नाव सभी अस्त-व्यस्त हैं,
इस भांति सिंधु थाहने का पथ प्रशस्त है,
उपलब्धियों के वर्ष,दिवस जोड़ते रहे,
देखा तो नहीं धार चलो वंदना करें।
वामन हुये विराट चलो वंदना करें,
जर्रे हैं शैलराट चलो वंदना करें।
-अजय गुप्त,शाहजहांपुर।
लेकिन ये ठीक हुआ. कमेन्ट के आधार पर आपने एक और धाकड़ पोस्ट लिखी.
आक खुशवंत सिंह की इच्छा हुई की काश उन पे भी कोई जूता फेंके ….जिस दिन कोई सच मच मार देगा उस दिन कोई पुराना पुरुस्कार सरकार को घोषणा करके लौट देंगे ….हम सोच रहे थे की आज लाईट हमारे यहाँ आएगी ….मैदाम जो आ रही है भासन देने….पर कल लो बात .अभी अभी लाईट गयी है ..
इन दिनों हर चीज का हल्ला मच रहा है…खाली पानी से प्यास नहीं बुझती ….तो ?ग्लूकोन डी पियो .कोम्प्लेन पीने वाले बच्चे ज्यादा तेजी से बढ़ते है……कल सुना की मल्लिका ने भी अपना मिल्क शेक लांच कर दिया है .लो जी हम भी भटक गए विषय से……विषय की छोडिये…
सारा कसूर इस वी एस एन एल का है …….एस. एम् .एस का बोझ ढो नहीं पाता .बैलगाडी की माफिक चलता है …सुबह धलेकेला था जी हमने तो…दोपहर बाद आप पे पहुंचा …..
इसलिए हम बी एस एन एल वालो को एक दिन पहले ही जन्मदिन की बधाई दे देते है जी…..
जर्रे हैं शैलराट चलो वंदना करें।
–बेहतरीन आलेख…खुशवंत सिंग का तो क्या कहा जाये.
रामराम.
ताकि आपकी लेखनी पढने से हमें न फुरसत मिले
और हर बार की तरह ’मेरी पसंद’ लाजवाब
आंधी मलयसमीर का ओढ़े हुये खिताब,
निर्द्वन्द व्यवस्था ने अपहृत किये गुलाब,”
शायद छोटे मोटे संत टाइप हैं क्या हम!
पसर जाए ब्लॉगजगत के सीने पर
झरना सा बनकर