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मिल्खा सिंह, रिक्शा चालक और दृष्टिहीन अध्यापिका
By फ़ुरसतिया on May 14, 2009
इलाहाबाद पहुंचते-पहुंचते
साढ़े ग्यारह बज गये थे। इसी समय विज्ञान परिषद में कविताजी का व्याख्यान
शुरू होने वाला था। सोचा सीधे वहीं चला जाये। व्याख्यान भी सुन लेंगे ,मिल
भी लेंगे।
स्टेशन से बाहर निकलकर सोचा कि रिक्शे से चला जाये क्योंकि सीधे कोई जनता सवारी जाती नहीं। आटो वाला बोला सत्तर रुपये। हम सोचे कि युनिवर्सिटी जाने के भी सत्तर रुपये लुटाना तो पाप है। इसके बाद तय किया कि रिक्शे से चला जाये। वहां कई रिक्शे खड़े थे। कुछ ज्ञान जी के रिक्शे भी थे। उनमें से सोचा इसी से चला जाये लेकिन उनमें से कोई जाने को तैयार ही नहीं था। दोपहर होने की वजह से कुछ आराम मुद्रा में थे और कुछ उधर नहीं जाते वाले सैद्धान्तिक नकार मुद्रा में। हमारी माइक्रो फ़ाइनेंसिंग वाले रिक्शों पर बैठने की तमन्ना उस समय तो पूरी न हुई।
इसी बीच एक टेम्पो वाला सवारी बुला रहा था कचहरी की। हम उसमें ही लद लिये। वह तुरन्त चल भी पड़ा। रास्ते में जब विज्ञान परिषद जाने के बारे में पूछा तो उसने पूरे पैसे लेकर सिविल लाइन्स के पास ही उतार दिया और कहा यहां से आराम से सवारी मिल जायेगी। हम भी अच्छी सवारी की तरह बिना हुज्जत किये उतर लिये। फ़िर तलाशे कुछ देर कि कोई माइक्रो फ़ाइनेंसिग वाला रिक्शा मिले लेकिन मिल के न दिया।
आखिर में एक बुजुर्गवार रिक्शेवाले मिले और हम विज्ञान परिषद की तरफ़ गम्यमान हुये।
रिक्शा चालक बुजुर्ग होने के बावजूद रिक्शा हमारा सरपट चला जा रहा था। बिना दायें-बायें ,आगे-पीछे देखे सरपट चलते रिक्शेवाले बुजुर्ग हमें हमारी मंजिल तक पहुंचा देना चाहते थे। चौराहे पर तो एक कार के आगे ठेल दिया रिक्शा कि पहिले हम जायेंगे। कार वाले ने भी इंतजार किया। पहिले हम निकले तब उसको मौका मिला। हमें उधरिच लगा कि यह बहस बेमानी है कि देश युवाओं से भरा पड़ा है इसलिये इसे हांकने के लिये युवा ही चाहिये। बुजुर्गियत को इस झांसे में आकर नकारना नादानी है।
रिक्शेवाले बुजुर्ग जिस तरह आगे-पीछे देखे बिना रिक्शा भगाये चले जा रहे थे उससे मुझे लगा कि शायद वे मिल्खा सिंह के समकालीन रहे हों। मिल्खासिंह रोम ओलम्पिक में अपने लक्ष्य पर पहुंचने के पहले काफ़ी आगे थे लेकिन लक्ष्य के पास पहुंचकर मुड़कर पीछे वाले को देखने के चक्कर में पिछड़ गये थे। उसी घटना से बुजुर्गवार ने सबक लिया होगा और सरपट भागे चलते-जाने को अपना जीवन लक्ष्य बना लिया होगा।
आगे जो हुआ वह और भी झन्नाटेदार था। रूल्स आफ द रोड के अनुसार हम बायीं तरफ़ चले जा रहे थे। अचानक बुजुर्गवार को लगा होगा कि वे गलत मुड़ गये। यह एहसास होते ही उन्होंने भड़ से रिक्शा बिना आगे-पीछे, दायें-बायें देखे उल्टी तरह मोड दिया। हमें जिंदगी में पहली बार यू-टर्न का साक्षात अनुभव हुआ। अब यह अलग बात कि इस अनुभव ने हमारी वह चीज बंधा दी जिसे हिंदी में लोग घिग्घी कहते हैं। हुआ यह कि जैसे ही रिक्शा मुड़ा वैसे ही सामने से तेज गति से आती हुयी कार दिखी। रिक्शे के अचानक मुड़ जाने से कार वाले सज्जन ने पूरी ताकत से ब्रेक लगाकर कार-रिक्शे की संभावित ऐतिहासिक भिडंत रोकी। सच में हम बल-बाल बचे। हमने रिक्शे वाले से कहा- इत्ती जल्दी भी नहीं है कि निपट ही जायें। आराम से देखदाख के चलो भाई।
लेकिन उनके लिये यह शायद रोजमर्रा का अंदाज हो सो वे सहजता से बोले -रास्ता दिमाग से उतर गया था।
आगे भूतपूर्व अल्फ़्रेड पार्क और वर्तमान शहीद चंद्रशेखर आजाद उद्यान के सामने से होते हुये गुजरे। एक स्कूल छूट रहा था। तमाम लड़के-लड़कियां स्कूटी-स्कूटर-मोटरसाइकिल पर घर वापस हो रहे थे। लगभग सब बिना हेलमेट के थे। कुछ लड़कियां आइसक्रीम चूसती हुयी आपस में बतिया/मुस्करा रहीं थी।
विज्ञान परिषद पहुंचकर हम सीधे व्याख्यान कक्ष में पहुंचे। कविताजी का व्याख्यान जारी था। वे श्रोता समुदाय को हिंदी में कम्प्यूटिंग की सुविधाओं के बारे में जानकारी दे रहीं थी। उन्होंने बताया कि हिंदी में बहुत सारा काम बड़ी-बड़ी संस्थाओं ने नहीं उत्साही, जुनूनी हिन्दी प्रेमियों ने किया है। अन्य लोगों के अलावा उन्होंने अनुनाद सिंह जी के हिंदी में किये गये काम का उल्लेख किया।
अनुनादजी की जब भी बात चलती है , मुझे उनके ब्लाग पर पढ़ा यह श्लोक (जो कि अब शायद नीचे से हट गया है) अनायास याद आता है:
कविताजी जो बता रहीं थीं उसको प्रत्यक्ष दिखाने/समझाने के लिये वहां इंटरनेट की व्यवस्था भी की गयी थी। लेकिन कविताजी के व्याख्यान और नेट की स्पीड में कछुये और खरगोश का अंतर था। वे गूगल की ट्रांसलिट्रेशन की सुविधा दिखाना चाह रहीं थीं कि Sita लिखने से वहां अपने आप सीता हो जाता और विकल्प आ जाते हैं। लेकिन Sita जो था वह सीता होकर ही नहीं दे रहा था। लोग समझ रहें होंगे कि ये तो ऐसे ही कह रहीं हैं। कविताजी को थोड़ा असहज जरूर लग रहा था लेकिन वे जारीं रहीं।
मजे की बात कि वहां इंटरनेट की व्यवस्था कम्प्य़ूटर सोसाइटी द्वारा की गयी थी जिससे जुड़े लोग जरूर इन बातों को समझते होंगे। लेकिन वहां जो नेट उपलब्ध था वह डायल अप पर चल रहा था। वह भी रिलाएन्स का। करेला वो भी नीम चढ़ा। हम लोगों के ब्लाग भी चींटी की गति से खुल रहे थे।
व्याख्यान के अंत में सवाल-जबाब हुये। लोगों ने कविता जी के व्याख्यान की बहुत तारीफ़ की। वे खुश हुईं।
जिस हाल में कविताजी व्याख्यान दे रहीं थीं उसमें उन महान लोगों के चित्र भी लगे थे जिनके नाम हम सुनते आये थे अभी तक। सर गंगानाथ झा, हीरालाल खन्ना और न भी तमाम लोग। दीवारों पर टंगी तस्वीरों पर लगे जालों के बावजूद लग रहा था कि इन महान लोगों के साथ जो रहे उनके मन में कैसी स्मृतियां होंगी इनकी प्रति।
सवाल-जबाब के बाद एक दृष्टिहीन महिला से बात हुयी। वे स्थानीय कालेज में इतिहास की व्याख्याता हैं। पढ़ाई-लिखाई और शायद नौकरी लगने के बाद उनकी आंखों की रोशनी चली गयी। अपने पिताजी के साथ आईं थीं। वे इंटरनेट पर ऐसे सफ़्टवेयर की खोज में थीं जिससे जो वे बोलें उसे हिंदी में टाइप किया जा सके और नेट पर उपलब्ध इतिहास से संबंधित सामग्री वे आडियो फ़ाइल में बदल सुनकर अपना ज्ञानार्जन कर सकें ताकि बच्चों को और बेहतर पढ़ा सकें।
कविता जी ने उनको वाचान्तर साफ़्टवेयर के बारे में बताया। शायद इससे उनकी बोलकर सुनने की जरूरत पूरी हो जाये लेकिन ऐसा साफ़्टवेयर क्या कोई है जो कि हिंदी में टाइप की हुई सामग्री को सुन सकने लायक आडियो फ़ाइल में बदल सके।
कार्यक्रम के बाद नाश्ता-पानी करके हम लोग पास ही में स्थित हिन्दुस्तानी अकादमी गये। वहां कविताजी की किताब हमने खरीदी जिस पर कविताजी ने अपने हस्ताक्षर भी किये।
वहीं से कविताजी ने सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी को फ़ोनियाया । कुछ देर में सिद्धार्थ अपनी मोहनी मुस्कान के साथ भये प्रकट कृपाला हुये।
नहीं मील के हम पत्थर हैं
अपनी छाया के बाढे़ हम,
जैसे भी हैं हम सुंदर हैं।
हम तो एक किनारे भर हैं
सागर पास चला आता है।
हम जमीन पर ही रहते हैं
अंबर पास चला आता है।
–वीरेन्द्र आस्तिक
स्टेशन से बाहर निकलकर सोचा कि रिक्शे से चला जाये क्योंकि सीधे कोई जनता सवारी जाती नहीं। आटो वाला बोला सत्तर रुपये। हम सोचे कि युनिवर्सिटी जाने के भी सत्तर रुपये लुटाना तो पाप है। इसके बाद तय किया कि रिक्शे से चला जाये। वहां कई रिक्शे खड़े थे। कुछ ज्ञान जी के रिक्शे भी थे। उनमें से सोचा इसी से चला जाये लेकिन उनमें से कोई जाने को तैयार ही नहीं था। दोपहर होने की वजह से कुछ आराम मुद्रा में थे और कुछ उधर नहीं जाते वाले सैद्धान्तिक नकार मुद्रा में। हमारी माइक्रो फ़ाइनेंसिंग वाले रिक्शों पर बैठने की तमन्ना उस समय तो पूरी न हुई।
इसी बीच एक टेम्पो वाला सवारी बुला रहा था कचहरी की। हम उसमें ही लद लिये। वह तुरन्त चल भी पड़ा। रास्ते में जब विज्ञान परिषद जाने के बारे में पूछा तो उसने पूरे पैसे लेकर सिविल लाइन्स के पास ही उतार दिया और कहा यहां से आराम से सवारी मिल जायेगी। हम भी अच्छी सवारी की तरह बिना हुज्जत किये उतर लिये। फ़िर तलाशे कुछ देर कि कोई माइक्रो फ़ाइनेंसिग वाला रिक्शा मिले लेकिन मिल के न दिया।
आखिर में एक बुजुर्गवार रिक्शेवाले मिले और हम विज्ञान परिषद की तरफ़ गम्यमान हुये।
रिक्शा चालक बुजुर्ग होने के बावजूद रिक्शा हमारा सरपट चला जा रहा था। बिना दायें-बायें ,आगे-पीछे देखे सरपट चलते रिक्शेवाले बुजुर्ग हमें हमारी मंजिल तक पहुंचा देना चाहते थे। चौराहे पर तो एक कार के आगे ठेल दिया रिक्शा कि पहिले हम जायेंगे। कार वाले ने भी इंतजार किया। पहिले हम निकले तब उसको मौका मिला। हमें उधरिच लगा कि यह बहस बेमानी है कि देश युवाओं से भरा पड़ा है इसलिये इसे हांकने के लिये युवा ही चाहिये। बुजुर्गियत को इस झांसे में आकर नकारना नादानी है।
रिक्शेवाले बुजुर्ग जिस तरह आगे-पीछे देखे बिना रिक्शा भगाये चले जा रहे थे उससे मुझे लगा कि शायद वे मिल्खा सिंह के समकालीन रहे हों। मिल्खासिंह रोम ओलम्पिक में अपने लक्ष्य पर पहुंचने के पहले काफ़ी आगे थे लेकिन लक्ष्य के पास पहुंचकर मुड़कर पीछे वाले को देखने के चक्कर में पिछड़ गये थे। उसी घटना से बुजुर्गवार ने सबक लिया होगा और सरपट भागे चलते-जाने को अपना जीवन लक्ष्य बना लिया होगा।
आगे जो हुआ वह और भी झन्नाटेदार था। रूल्स आफ द रोड के अनुसार हम बायीं तरफ़ चले जा रहे थे। अचानक बुजुर्गवार को लगा होगा कि वे गलत मुड़ गये। यह एहसास होते ही उन्होंने भड़ से रिक्शा बिना आगे-पीछे, दायें-बायें देखे उल्टी तरह मोड दिया। हमें जिंदगी में पहली बार यू-टर्न का साक्षात अनुभव हुआ। अब यह अलग बात कि इस अनुभव ने हमारी वह चीज बंधा दी जिसे हिंदी में लोग घिग्घी कहते हैं। हुआ यह कि जैसे ही रिक्शा मुड़ा वैसे ही सामने से तेज गति से आती हुयी कार दिखी। रिक्शे के अचानक मुड़ जाने से कार वाले सज्जन ने पूरी ताकत से ब्रेक लगाकर कार-रिक्शे की संभावित ऐतिहासिक भिडंत रोकी। सच में हम बल-बाल बचे। हमने रिक्शे वाले से कहा- इत्ती जल्दी भी नहीं है कि निपट ही जायें। आराम से देखदाख के चलो भाई।
लेकिन उनके लिये यह शायद रोजमर्रा का अंदाज हो सो वे सहजता से बोले -रास्ता दिमाग से उतर गया था।
आगे भूतपूर्व अल्फ़्रेड पार्क और वर्तमान शहीद चंद्रशेखर आजाद उद्यान के सामने से होते हुये गुजरे। एक स्कूल छूट रहा था। तमाम लड़के-लड़कियां स्कूटी-स्कूटर-मोटरसाइकिल पर घर वापस हो रहे थे। लगभग सब बिना हेलमेट के थे। कुछ लड़कियां आइसक्रीम चूसती हुयी आपस में बतिया/मुस्करा रहीं थी।
विज्ञान परिषद पहुंचकर हम सीधे व्याख्यान कक्ष में पहुंचे। कविताजी का व्याख्यान जारी था। वे श्रोता समुदाय को हिंदी में कम्प्यूटिंग की सुविधाओं के बारे में जानकारी दे रहीं थी। उन्होंने बताया कि हिंदी में बहुत सारा काम बड़ी-बड़ी संस्थाओं ने नहीं उत्साही, जुनूनी हिन्दी प्रेमियों ने किया है। अन्य लोगों के अलावा उन्होंने अनुनाद सिंह जी के हिंदी में किये गये काम का उल्लेख किया।
अनुनादजी की जब भी बात चलती है , मुझे उनके ब्लाग पर पढ़ा यह श्लोक (जो कि अब शायद नीचे से हट गया है) अनायास याद आता है:
अमंत्रं अक्षरं नास्ति , नास्ति मूलं अनौषधं ।(कोई अक्षर ऐसा नही है जिससे (कोई) मन्त्र न शुरु होता हो , कोई ऐसा मूल (जड़) नही है , जिससे कोई औषधि न बनती हो और कोई भी आदमी अयोग्य नही होता , उसको काम मे लेने वाले (मैनेजर) ही दुर्लभ हैं ।)
अयोग्यः पुरुषः नास्ति, योजकः तत्र दुर्लभ: ॥
कविताजी जो बता रहीं थीं उसको प्रत्यक्ष दिखाने/समझाने के लिये वहां इंटरनेट की व्यवस्था भी की गयी थी। लेकिन कविताजी के व्याख्यान और नेट की स्पीड में कछुये और खरगोश का अंतर था। वे गूगल की ट्रांसलिट्रेशन की सुविधा दिखाना चाह रहीं थीं कि Sita लिखने से वहां अपने आप सीता हो जाता और विकल्प आ जाते हैं। लेकिन Sita जो था वह सीता होकर ही नहीं दे रहा था। लोग समझ रहें होंगे कि ये तो ऐसे ही कह रहीं हैं। कविताजी को थोड़ा असहज जरूर लग रहा था लेकिन वे जारीं रहीं।
मजे की बात कि वहां इंटरनेट की व्यवस्था कम्प्य़ूटर सोसाइटी द्वारा की गयी थी जिससे जुड़े लोग जरूर इन बातों को समझते होंगे। लेकिन वहां जो नेट उपलब्ध था वह डायल अप पर चल रहा था। वह भी रिलाएन्स का। करेला वो भी नीम चढ़ा। हम लोगों के ब्लाग भी चींटी की गति से खुल रहे थे।
व्याख्यान के अंत में सवाल-जबाब हुये। लोगों ने कविता जी के व्याख्यान की बहुत तारीफ़ की। वे खुश हुईं।
जिस हाल में कविताजी व्याख्यान दे रहीं थीं उसमें उन महान लोगों के चित्र भी लगे थे जिनके नाम हम सुनते आये थे अभी तक। सर गंगानाथ झा, हीरालाल खन्ना और न भी तमाम लोग। दीवारों पर टंगी तस्वीरों पर लगे जालों के बावजूद लग रहा था कि इन महान लोगों के साथ जो रहे उनके मन में कैसी स्मृतियां होंगी इनकी प्रति।
सवाल-जबाब के बाद एक दृष्टिहीन महिला से बात हुयी। वे स्थानीय कालेज में इतिहास की व्याख्याता हैं। पढ़ाई-लिखाई और शायद नौकरी लगने के बाद उनकी आंखों की रोशनी चली गयी। अपने पिताजी के साथ आईं थीं। वे इंटरनेट पर ऐसे सफ़्टवेयर की खोज में थीं जिससे जो वे बोलें उसे हिंदी में टाइप किया जा सके और नेट पर उपलब्ध इतिहास से संबंधित सामग्री वे आडियो फ़ाइल में बदल सुनकर अपना ज्ञानार्जन कर सकें ताकि बच्चों को और बेहतर पढ़ा सकें।
कविता जी ने उनको वाचान्तर साफ़्टवेयर के बारे में बताया। शायद इससे उनकी बोलकर सुनने की जरूरत पूरी हो जाये लेकिन ऐसा साफ़्टवेयर क्या कोई है जो कि हिंदी में टाइप की हुई सामग्री को सुन सकने लायक आडियो फ़ाइल में बदल सके।
कार्यक्रम के बाद नाश्ता-पानी करके हम लोग पास ही में स्थित हिन्दुस्तानी अकादमी गये। वहां कविताजी की किताब हमने खरीदी जिस पर कविताजी ने अपने हस्ताक्षर भी किये।
वहीं से कविताजी ने सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी को फ़ोनियाया । कुछ देर में सिद्धार्थ अपनी मोहनी मुस्कान के साथ भये प्रकट कृपाला हुये।
मेरी पसंद
हम न हिमालय की ऊंचाई,नहीं मील के हम पत्थर हैं
अपनी छाया के बाढे़ हम,
जैसे भी हैं हम सुंदर हैं।
हम तो एक किनारे भर हैं
सागर पास चला आता है।
हम जमीन पर ही रहते हैं
अंबर पास चला आता है।
–वीरेन्द्र आस्तिक
इसे मैं सेल्फ डीफेंस तो नहीं समझु ना ?
कुछ लड़कियां आइसक्रीम चूसती हुयी आपस में बतिया/मुस्करा रहीं थी।
आप उन्हें क्यों देख रहे थे?
अमंत्रं अक्षरं नास्ति , नास्ति मूलं अनौषधं ।
अयोग्यः पुरुषः नास्ति, योजकः तत्र दुर्लभ: ॥
लिख कर रखने लायक श्लोक है..
वैसे गूगल ट्रांसलेटर सीता को sita नहीं करता.. इसके लिए तो quiilpad type कोई साईट काम करेगी ना.. ?
देखते है अब आगे क्या हुआ ?
अरे एक बात पूछना तो भूल ही गए.. आपको वो मकई वाला बुढा मिला या नहीं ?
दऊआ, हमका चीन्ह नहिं पायो ?
ऊई मिल्खा सिंह का रिक्शा जमा करे का टैम होत रहा,
एहि बित रिक्शा हन्न ऊआ जोति डारा ।
मुला फोटू नक्सा अऊर हवाल चकाचक दिहौ आय ।
ऐसे तो एक नहीं, कोई तीन-चार सॉफ़्टवेयर हैं. एक तो ऑनलाइन सेवा है. कुछ कड़ियाँ -
http://vozme.com/index.php?lang=hi
ये कड़ी रचनाकार के बाजू पट्टी में भी है. लगता है आप रचनाकार ध्यान से नहीं पढ़ते
तथा इस बारे में मेरी एक प्रविष्टि भी है -
http://raviratlami.blogspot.com/2007/01/blog-post_12.html
लगता है कि आप मेरा ब्लॉग तो कतई नहीं पढ़ते (अन्यथा आपको याद रहता, क्योंकि आपकी याददाश्त तो लाजवाब है?)
रिक्शे का अनुभव जोरदार रहा होगा… रिक्शे में फार्मूला वन रेस का मजा…क्या बात है ..
“रास्ता दिमाग से उतर गया था…” शुक्र है…
अब इनमे बैठना तो छॊडिये..कही हड्डी पसली चटका गई तो फ़िर इस उम्र में जुडने वाली नही है. फ़िर हम कहां से ये फ़ुरसतनामें पढेंगें?
रामराम.
मैने उसकी तख्ती मैं भरा “उल्लू का पठ्ठा” और उसने अपनी कम्प्यूटरीय मेटेलिक टोन में वही सुनाया!
मजे की बात है कि उसकी एमपी३ फाइल भी डाउनलोड की जा सकती है।
आपके ब्लॉग पर रविरतलामी का जयकारा लगायें तो आप जल भुन तो न जायेंगे!
बस पूरे वृत्तांत -२ में यही आकर्षक लगा ! बाकी हम इलाहाबाद में कुल फजीहत करा चुके हैं -आप तो गिरे नहीं हम गिर कर पैंट तक phatvaa चुके हैं !
रिक्शा सिविल लाईन्स से विज्ञान परिषद् तक गुरुत्व वेग से चलता है चालाक और सवार निमित्त मात्र रहते हैं -अब इस भौगोलिक तथ्य से आप परिचित हो भी तो कैसे ? इस बार भी नहीं हो पाए -बता दे रहा हूँ ! आगे सावधान रहिएगा पूरे रास्ते के ढलान पर ! कविता जी फिर आयेगीं और आप फिर जायेंगें ! विज्ञान परिषद् में जो एक बार घुस जाता है सात समुद्र पार से आता है बार बार -भले ही वहां कुछ नहीं है !
अनूपजी, ज्ञान जी द्वारा माइक्रों फाइनांस किए रिक्शे में बैठने के तो हम भी तलबगार हैं….
अंबर पास चला आता है।
इस में सब समा जाता है
आपका यह संस्मरण बड़ा ही रोचक आनंद दायक लगा.
अब आपलोग भी दुबारा देख कर बताएं। मैं तो घरवाली से सहमत हूँ।
श्लोक बहुत जमा!!
अब आगे की सुनायें..
कुछ भी हो आपके साथ घटी घटना अत्यन्त रोचक रही,आपकी लेखनी का यही आकर्षण मुझे आपकी रचनाओं के माध्यम से आपसे रूबरु होने का मौका देता है….
आशा है यह सिलसिला अनवरत चलता रहेगा…..
अनुनाद जी के ब्लॉग वाला श्लोक तो वाकई धांसू सा है!
वाकई मस्त है जी, गालियों का भी सही उच्चारण करता है, ही ही ही!!
रवि भाई का तकनीकी ज्ञान भी तो लाजवाब है !
और आपकी लेखन शैली विलक्षण !
एक से बढकर एक —
– लावण्या
बढि़या पोस्ट, आपका इलाहाबाद आना तो हुआ
नहीं मील के हम पत्थर हैं
अपनी छाया के बाढे़ हम,
जैसे भी हैं हम सुंदर हैं।
बहुत खूब…!
हम भी कभ कभी ऐसे रिक्शे वालों से कहते हैं कि ,“भईया आफिस ही पहुँचाना..हॉस्पटल नही”
और अपने शहर के रिक्शे का भी। कुल मिलाकर सभी जगह के रिक्शा चालक एक सा ही चलाते हैं
बाकी ये आईस्क्रीम वाले लोकेशन का पता हमका दिया जाए। अगले प्रवास में पहुंचेंगे जरुर उहां।
मजा आ गया आपकी यात्रा वृत्तांत को पढ़ के
सुना है आप फिर से इलाहाबाद आने वाले है
(ज्ञान जी की चाय की दूकान वाली पोस्ट पर भी ध्यान दीजियेगा
आपका वीनस केसरी
अनूप जी इस समय सम्भवत: चित्रकारी,चायपान, मेलजोल एवं सभागार में दिग्गजों के चित्रों का आनन्द ले रहे थे। बीच में उन्होंने हमें भी क्लिकाया भी यहाँ देख ही लिया है। धन्यवाद अनूप जी, आपने मेरे प्रात: के कार्यक्रम की इस लिखित रिपोर्ट का सुख दिया है, ब्लॊगजगत् में जिसके साक्षी केवल आप ही थे।
अमंत्रं अक्षरं नास्ति , नास्ति मूलं अनौषधं ।
अयोग्यः पुरुषः नास्ति, योजकः तत्र दुर्लभ: ॥