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− 3 = one
हंसती, खिलखिलाती, बतियाती हुई लड़कियां
By फ़ुरसतिया on May 15, 2009
कल की पोस्ट में कुश ने सवाल किये थे, सवाल क्या मौज ली थी मुझसे। उनके सवाल थे-
आमतौर पर हम लोग पाठकों के सवालों के जबाब नहीं देते। सवाल कुछ सही में सवाल होते हैं कुछ चुहलबाजी। ब्लागिंग के तमाम दिग्गज बताते हैं कि पाठकों की प्रतिक्रियाओं के जबाब देना अच्छी आदत है। संवाद का एकालाप समाप्त करके दुतरफ़ा और जीवंत बनाने के लिये प्रतिक्रिया और जबाब देना अच्छी बात है लेकिन अक्सर ऐसा हो नहीं पाता है।
कुछ साथी ब्लागर इस मामले में बड़े अच्छे है कि वे टिप्पणी के जबाब में मेल करते हैं और अगर जरूरी हुआ तो जबाब भी देते हैं। अमित खासतौर से अपने ब्लाग पर आये हर कमेंट का जबाब देने की कोशिश करते हैं -खासकर अगर वह कोई सवाल हुआ तो। उनसे यह सीखना चाहिये।
कुश ने जो कहा -इसे मैं सेल्फ डीफेंस तो नहीं समझु ना ? वह मौज लेने वाली बात है। हमको शरारतन बुजुर्ग बताकर किनारे करने की कोशिश। हम इसे सफ़ल न होंने देंगे।
हम सेल्फ़ डिफ़ेन्स वाली बात पर पहिले ही एक शहीदाना अंदाज में बयान दे चुके हैं। इसे हमारा सेल्फ़ डिफ़ेन्स न समझा जाये।
रही बात आइसक्रीम चूसती हुयी आपस में बतियाती /मुस्कराती लड़कियों को देखने की तो हमने उनको उसी तरह देखा जैसे और तमाम चीजों को देखा। वे अच्छी/प्यारी लग रहीं थीं इसलिये भी उनको देखा और बताया।
इसी क्रम में हम कुश से पूछना चाहते हैं कि हमने और भी तमामचीजों लोगों/चीजों/ घटनाओं को देखने की बात कही लेकिन कुश ने लड़कियों को देखने की बात पर ही क्यों सवाल उठाया?
और वो मकई वाले बूढ़े से मुलाकात नहीं हुई। उन पर ज्ञानजी के कैमरे का कब्जा है। उन्हीं को दिखेगा। वैसे और तमाम बुजुर्ग दिखे शायद उनमें से ही कोई एक रहा होगा वह।
रविरतलामी जी कहते हैं-लगता है कि आप मेरा ब्लॉग तो कतई नहीं पढ़ते (अन्यथा आपको याद रहता, क्योंकि आपकी याददाश्त तो लाजवाब है?)
भाईजी ऐसा है आपका ब्लाग तो पढ़ते हैं लेकिन तमाम तकनीकी चीजों को हम ऐसे ही लापरवाही से देखते हैं। इस लापरवाही के पीछे यह एहसास भी काम करता है कोई भी परेशानी आयेगी तो आप तो हैं न! आपके रहते सुरक्षा का एहसास ही हमको लापरवाह बनाता है। इसके दोषी हम न हैं जी।
वैसे यह साफ़्टवेयर मजेदार है। खाली थोड़ा दोहराव सा होता है मशीनी उच्चारण में। डा.अनुराग की कामना ( उन नेत्रहीन अध्यापिका की जिज्ञासा का शायद समाधान विशेषग निकाल सके यही कामना करता हूँ) शायद फ़लीफ़ूत हो सके।
ताऊ ने कहा-अब इनमे बैठना तो छॊडिये..कही हड्डी पसली चटका गई तो फ़िर इस उम्र में जुडने वाली नही है. फ़िर हम कहां से ये फ़ुरसतनामें पढेंगें?
इनपर बैठना छोड़ देंगे तो क्या फ़ुरसतनामें आयेंगे। सच तो यह है कि फ़ुरसतनामें का कच्चा मसाला यहीं से मिलता है। बकिया हड्डी-पसली तो घर बैठे चटक सकती है! मध्यवर्ग की दुनिया की सबसे ज्यादा हड्डियां बाथरूम में पिसलकर चटकी होंगी। है कि नहीं?
परसाईजी अपनी तमाम यात्रायें दिन में पैसेंजर ट्रेन में करते थे ताकि उनको अपने लेखन के लिये कच्चा मसाला मिल सके।
ज्ञानजी कहते भये-आपके ब्लॉग पर रविरतलामी का जयकारा लगायें तो आप जल भुन तो न जायेंगे!
हम खुदै रविरतलामी की जय बोलते हैं काहे से ब्लाग की दुनिया से परिचित हमें उन्होंने ही कराया। तो उनका जयकारा लगाकर आप हमारा की काम हल्का करेंगे!
आपने लिखा मैने उसकी तख्ती मैं भरा “उल्लू का पठ्ठा” और उसने अपनी कम्प्यूटरीय मेटेलिक टोन में वही सुनाया!इस पर एक सवाल है कि आपको उल्लू का पट्ठा ही सुनना क्यों पसंद आया?
कविताजी की फोटॊ को सिद्धार्थ और प्रमेन्द्र ने नृत्य मुद्रा में देखा। अब जब देख ही चुके और हंस भी चुके तो हम का कर सकते हैं इसलिए मुझे कोई एतराज नहीं है। कविताजी अपनी प्रतिक्रिया हैदराबाद पहुंचकर दें शायद!
बकिया चकाचक। शायद सवाल-जबाब का यह सिलसिला आगे भी चले। बताइये चलाया जाये कि बकवास है!
पुनश्च:
पार्क के ठीक पीछे से ,जहाँ से कीकर के पेडों का जंगल शुरु होता है कोई पुरानी भूली बिसरी , लाखौरी ईंटों की मेहराबदार दीवारों की काई लगी इमारत में बंदरों का एक जोडा खोंकियाता है । अधगिरी टूटी दीवार के सहारे टिका , खादी कुर्ते और नीली जींस में भूरी दाढी वाला वो चित्रकार शायद लडके और लडकी की ही तस्वीर बना रहा हो या फिर क्या पता उसका चित्त बंदरों के जोडे पर जुडा हो । सिगरेट की अनगिनत टोंटियों को एहतियातन समेटता वो मुस्कुराता है । उँगलियों को खोल बन्द करता आँखें मूँद लेता है । लडकी होंठों से उँगलियों के रस को पोछती है । लडके को देख हँस देती है । लडका इसबार हैरान नहीं होता । लडका इसबार सोचता भी नहीं । लडका इसबार लडकी को देखकर सिर्फ हँस देता है ।
प्रत्यक्षा
बुजुर्गियत को इस झांसे में आकर नकारना नादानी है।मीनाक्षीजी ने भी कहा- कुश के सवालों का जवाब ज़रूर दीजिएगा..हम भी जानना चाहते हैं….!!
इसे मैं सेल्फ डीफेंस तो नहीं समझु ना ?
कुछ लड़कियां आइसक्रीम चूसती हुयी आपस में बतिया/मुस्करा रहीं थी।
आप उन्हें क्यों देख रहे थे?
आमतौर पर हम लोग पाठकों के सवालों के जबाब नहीं देते। सवाल कुछ सही में सवाल होते हैं कुछ चुहलबाजी। ब्लागिंग के तमाम दिग्गज बताते हैं कि पाठकों की प्रतिक्रियाओं के जबाब देना अच्छी आदत है। संवाद का एकालाप समाप्त करके दुतरफ़ा और जीवंत बनाने के लिये प्रतिक्रिया और जबाब देना अच्छी बात है लेकिन अक्सर ऐसा हो नहीं पाता है।
कुछ साथी ब्लागर इस मामले में बड़े अच्छे है कि वे टिप्पणी के जबाब में मेल करते हैं और अगर जरूरी हुआ तो जबाब भी देते हैं। अमित खासतौर से अपने ब्लाग पर आये हर कमेंट का जबाब देने की कोशिश करते हैं -खासकर अगर वह कोई सवाल हुआ तो। उनसे यह सीखना चाहिये।
कुश ने जो कहा -इसे मैं सेल्फ डीफेंस तो नहीं समझु ना ? वह मौज लेने वाली बात है। हमको शरारतन बुजुर्ग बताकर किनारे करने की कोशिश। हम इसे सफ़ल न होंने देंगे।
हम सेल्फ़ डिफ़ेन्स वाली बात पर पहिले ही एक शहीदाना अंदाज में बयान दे चुके हैं। इसे हमारा सेल्फ़ डिफ़ेन्स न समझा जाये।
रही बात आइसक्रीम चूसती हुयी आपस में बतियाती /मुस्कराती लड़कियों को देखने की तो हमने उनको उसी तरह देखा जैसे और तमाम चीजों को देखा। वे अच्छी/प्यारी लग रहीं थीं इसलिये भी उनको देखा और बताया।
इसी क्रम में हम कुश से पूछना चाहते हैं कि हमने और भी तमाम
और वो मकई वाले बूढ़े से मुलाकात नहीं हुई। उन पर ज्ञानजी के कैमरे का कब्जा है। उन्हीं को दिखेगा। वैसे और तमाम बुजुर्ग दिखे शायद उनमें से ही कोई एक रहा होगा वह।
रविरतलामी जी कहते हैं-लगता है कि आप मेरा ब्लॉग तो कतई नहीं पढ़ते (अन्यथा आपको याद रहता, क्योंकि आपकी याददाश्त तो लाजवाब है?)
भाईजी ऐसा है आपका ब्लाग तो पढ़ते हैं लेकिन तमाम तकनीकी चीजों को हम ऐसे ही लापरवाही से देखते हैं। इस लापरवाही के पीछे यह एहसास भी काम करता है कोई भी परेशानी आयेगी तो आप तो हैं न! आपके रहते सुरक्षा का एहसास ही हमको लापरवाह बनाता है। इसके दोषी हम न हैं जी।
वैसे यह साफ़्टवेयर मजेदार है। खाली थोड़ा दोहराव सा होता है मशीनी उच्चारण में। डा.अनुराग की कामना ( उन नेत्रहीन अध्यापिका की जिज्ञासा का शायद समाधान विशेषग निकाल सके यही कामना करता हूँ) शायद फ़लीफ़ूत हो सके।
ताऊ ने कहा-अब इनमे बैठना तो छॊडिये..कही हड्डी पसली चटका गई तो फ़िर इस उम्र में जुडने वाली नही है. फ़िर हम कहां से ये फ़ुरसतनामें पढेंगें?
इनपर बैठना छोड़ देंगे तो क्या फ़ुरसतनामें आयेंगे। सच तो यह है कि फ़ुरसतनामें का कच्चा मसाला यहीं से मिलता है। बकिया हड्डी-पसली तो घर बैठे चटक सकती है! मध्यवर्ग की दुनिया की सबसे ज्यादा हड्डियां बाथरूम में पिसलकर चटकी होंगी। है कि नहीं?
परसाईजी अपनी तमाम यात्रायें दिन में पैसेंजर ट्रेन में करते थे ताकि उनको अपने लेखन के लिये कच्चा मसाला मिल सके।
ज्ञानजी कहते भये-आपके ब्लॉग पर रविरतलामी का जयकारा लगायें तो आप जल भुन तो न जायेंगे!
हम खुदै रविरतलामी की जय बोलते हैं काहे से ब्लाग की दुनिया से परिचित हमें उन्होंने ही कराया। तो उनका जयकारा लगाकर आप हमारा की काम हल्का करेंगे!
आपने लिखा मैने उसकी तख्ती मैं भरा “उल्लू का पठ्ठा” और उसने अपनी कम्प्यूटरीय मेटेलिक टोन में वही सुनाया!इस पर एक सवाल है कि आपको उल्लू का पट्ठा ही सुनना क्यों पसंद आया?
कविताजी की फोटॊ को सिद्धार्थ और प्रमेन्द्र ने नृत्य मुद्रा में देखा। अब जब देख ही चुके और हंस भी चुके तो हम का कर सकते हैं इसलिए मुझे कोई एतराज नहीं है। कविताजी अपनी प्रतिक्रिया हैदराबाद पहुंचकर दें शायद!
बकिया चकाचक। शायद सवाल-जबाब का यह सिलसिला आगे भी चले। बताइये चलाया जाये कि बकवास है!
पुनश्च:
- सुबह मेरी पसन्द में प्रत्यक्षा जी के लेख के साथ उनका चित्र भी लगाया था लेकिन पता नहीं किस कारण केवल चित्र दिखा और लेख गायब हो गया। अभी फ़िर प्रयास किया तो दोनों में से एक ही लग रहा। सो लेख दे रहे हैं। उनकी पोस्ट आप यहां देख सकते हैं- चित्र समेत!
- हमारे इलाहाबाद के किस्से आप सिद्धार्थ त्रिपाठी के यहां देख सकते हैं। आज उन्होंने फ़ुरसतिया उवाच पोस्ट किया है।
मेरी पसंद
लडकी हँस देती है जाने किस बात पर । लडकी हँसती है हमेशा जाने किस बात पर । लडका हैरानी से देखता है उसे । ऐसी तो हँसने वाली कोई बात नहीं कही फिर लडकी हँसी क्यों । जब भी लडकी हँसती है लडका हैरान हो जाता है । मैं कोई जोकर हूँ क्या , कुछ कुछ नाराज़गी से कहता है । लडकी कुछ और हँसती है ,संतरा छीलती है , बिखरे बालों को कानों के पीछे समेटती है । लडका सिर्फ देखता है और सोचता है । लडकी पूछती है ,क्या कर रहे हो ? लडका कहता है , सोच रहा हूँ । लडकी इस बार नहीं हँसती । लडकी इसबार हैरान हो जाती है , मेरे साथ हो फिर भी सोच रहे हो ?पार्क के ठीक पीछे से ,जहाँ से कीकर के पेडों का जंगल शुरु होता है कोई पुरानी भूली बिसरी , लाखौरी ईंटों की मेहराबदार दीवारों की काई लगी इमारत में बंदरों का एक जोडा खोंकियाता है । अधगिरी टूटी दीवार के सहारे टिका , खादी कुर्ते और नीली जींस में भूरी दाढी वाला वो चित्रकार शायद लडके और लडकी की ही तस्वीर बना रहा हो या फिर क्या पता उसका चित्त बंदरों के जोडे पर जुडा हो । सिगरेट की अनगिनत टोंटियों को एहतियातन समेटता वो मुस्कुराता है । उँगलियों को खोल बन्द करता आँखें मूँद लेता है । लडकी होंठों से उँगलियों के रस को पोछती है । लडके को देख हँस देती है । लडका इसबार हैरान नहीं होता । लडका इसबार सोचता भी नहीं । लडका इसबार लडकी को देखकर सिर्फ हँस देता है ।
प्रत्यक्षा
20 responses to “हंसती, खिलखिलाती, बतियाती हुई लड़कियां”
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कुश की जय हो.
सब ठीक ठाक तो है..दो चार लाईन कोई उनकी रचना की भी ले लेते…तो अच्छा लगता !!
रामराम.
@ ओस की बूंद, लड़कियां चीज नहीं है| लेकिन आपने जिसकी तरफ़ इशारा किया वह मैंने सुधार दिया। आभार!
-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
नीरज
लेकिन आपकी झोली में तो कुछ ज्यादा ही मजेदार आइटम भरे पड़े हैं। सच में आनन्द आ गया। जय हो मौज लेने वालों की।
हमारे नाचने की कल्पना से इत्ते लोग हँस लिए, प्रसन्न वदन भए, यह कौनो छोटी खुशी की बात है जी?
और आप काहे हमारे पुष्टि करने के लिए रुके रहे, आप तो साक्षात उस क्षण उहाँ थे। चित्र लेने वाले आपही के कैमरे का कोऊनो कमाल अऊर कारीगिरी लगती है हमहुँ को तो।
कैमरे के अंजर-पंजर जाँचे जाएँ। कारस्तानियों की तफ़्तीश हो।