http://web.archive.org/web/20140419215703/http://hindini.com/fursatiya/archives/611
दफ़्तर भी हम जैसे ही पहुंचते हैं, सबसे पहला काम वहां का ए.सी. बन्द करवाने का करते हैं। इसे बन्द करो ,पंखा चलाओ। घर में भी हमें जिस कमरे में भी हमें ए.सी.वाले कमरे से ज्यादा सुकुन देह कूलर वाला कमरा लगता है।
ए.सी. और कूलर की बात चली तो बतायें कि इसी साल हम लोगों ने एक ए.सी. लिया। हमारी सहमति न होने के बावजूद। हमें लगता रहा कि चार कमरों में से एक में ए.सी. लगना अपने घर के कमरों को हैव्स और हैव्स नाट वाले कमरों में बांटना होगा। ए.सी. वाला कमरा मंच पर बैठे जनप्रतिनिधियों की तरह वी.आई.पी. टाइप बन जायेगा। बाकी कमरे मंच के सामने खड़ी जनता की तरह।
लेकिन अंग्रेजों के जमाने के बने (1942) हमारे घर के कमरे रेलगाड़ी के डिब्बों की तरह बनें हैं। एक कतार में। एक के बाद दूसरा कमरा। जिस कमरे में ए.सी. लगा वह कमरा दूसरों से अलग-थलग सा हो गया। अगल-बगल के कमरों से कट गया। दूसरों की गर्मी
उस कमरे में न घुस आये इसलिये उस कमरे ने अपने को दूसरों से काट सा लिया।
मेरे देखते-देखते हमारे घर की कमरों की व्यवस्था मुक्त व्यवस्था से बंद व्यवस्था में तब्दील हो गयी। पहले सब कमरे खुले रहते थे ताकि एक की हवा दूसरे में आ-जा सके और अब कमरों की हवाओं में व्यवहार बंद हो गया है। अनबन हो गयी। संयुक्त परिवार की तरह रह रहे कमरे एकल परिवार में बंट से गये। मुआ ए.सी. जो न कराये।
आधुनिक विज्ञान ने आराम के जितने भी संसाधन दिये हैं वे किसी न किसी तरह आसपास के वातावरण के शोषण पर आधारित हैं। ए.सी. क्या करता है- कमरे भर की गर्मी अपने पिछवाड़े फ़ेंक देता है। अगर कमरा झकाझक मल्टीस्टोरी की तरह झकास ठंडा है तो कमरे का बाहर का हिस्सा तंदूर की तरह गर्मागर्म। कमरा ठंडाने के लिये धरती गर्मा रहे हैं हम।
मुझे कूलर हमेशा ए.सी. के मुकाबले गर्मी से राहत का बेहतर विकल्प लगता रहा है। पानी घूम-फ़िर कर हवा के सहयोग से आपको ठंडक पहुंचाता रहता है। ए.सी. की तरह न कमरे के साइज का झंझट है कि बड़ा कमरा तो बड़ा ए.सी.। ठंडी हवा फ़ेंक रहे हैं। जहां तक पहुंचे, जित्ती पहुंचे मस्त रहिये। मेरा तो पैगामें मोहब्बत है ,जहां तक पहुंचे- टाइप।
खैर ये तो नये मुल्ले के प्याज हैं। कुछ दिन में शायद ऐसा हो कि ए.सी. वाले कमरे में ही चद्दर ओढे़ लेटे रहने का मन करे।
भयंकर गर्मी के बावजूद गर्मी का एहसास कम होने का कारण शायद बचपन में देखी/झेली गयी गर्मी के बिम्ब दिमाग में सुरक्षित होना भी हो। मुझे याद है कि काफ़ी पहले गर्मी के दिनों में सड़क की कोलतार जगह-जगह पिघल-पिघल जाया करती थी। दोपहर में ठेला मजूर पैरों में जूट के बोरे बांध कर चलते ताकि गर्मी से पिघले कोलतार से जल न जायें। बच्चे लोग सड़क का कोलतार कोकाकोला या अन्य शीतल पेय के ढक्कनों में भर कर उसमें कोई कील लगाकर लट्टू बनाते। नचाते। घर में उन दिनों कोई पंखा-वंखा भी नहीं था। दोपहर में पसीने से तथपथ आराम से सोते रहते। बीच-बीच में हाथ वाला पंखा डुलाते रहते। इसी में राहत सामग्री सी कोई ठंडी हवा की लहर जो किसी पेड़ के आसपास लेटने से ही मिलती अनिर्वचनीय आनंद दे जाती।
समीरलालजी 2006 से ब्लागिंग कर रहे हैं। अपने सहज और आकर्षक लेखन, व्यवहार और टिप्पणी नरेश होने के कारण उनका ब्लाग हिंदी ब्लाग जगत के सबसे अधिक पढ़े जाने वाले ब्लागों में शामिल है।
अगर यह मानें कि साल भर पहले ही उड़नतश्तरी पर काउंटर लगा तो और इस दौरान एक लाख लोगों ने इसे पढ़ा तो औसतन प्रतिदिन पढ़ने वालों की संख्या 274 हुई। यह भी तब है जब हम जैसे और लोग भी होंगे जो उड़नतश्तरी की पोस्टों को कई बार देखते हैं कि कौन क्या टिपियाया। इससे लगता है फ़िलहाल हिंदी ब्लागिंग के औसत पाठक बहुत कम हैं। जब उड़नतश्तरी जैसे पाठक प्रिय ब्लाग की पाठक संख्या इतनी सीमित है तो बाकी चिट्ठों क्या हाल होगा?
आज से ढाई साल पहले रविरतलामी जी ने टिपियाया था-जब आपकी पाठक संख्या प्रतिदिन दस हजार से ऊपर हो जाएगी तो फिर आप डॉलर गिनने लगेंगे. अभी तो हिन्दी में यह समय आने में दो-चार साल लगेंगे. परंतु शुरूआत करने में क्या बुराई है? बात हिंदी ब्लाग से आमदनी की थी । चार साल में ढाई तो निकल लिये भैया लेकिन मामला अभी हजारौ तक नहीं पहुंचा। दस हजार की कौन कहे?
इस सवाल के जबाब में मेरी शहीदाना अंदाज में की गयी टिप्पणी थी- नीलिमीजी ये जो आपका अंतरंग सवाल है जीतू, अनूप,रवि रतलामी अपने ही खड़े किए चिट्ठाजगत में अप्रासंगिक होने के खतरे के बारे में ये क्या सोचते हैं तो उसके पूछने का अवसर पता नहीं आपको कब मिले लेकिन बताने का मौका मिला है तो उसका उपयोग कर रहा हूं। पहली बात ये चिट्ठाजगत कोई केवल हमारी मिल्कियत या जायदाद नहीं है जो भरभरा के गिर जायेगी तो हम दर-बदर हो जायेंगे। रही बात अप्रासंगिक होने की तो हम लोग अप्रसांगिक तब हो जायेंगे जब हमसे बड़े तमाम सिरफिरे यहां जुट जायेंगे और हमसे बेहतर लिखेंगे, जीतेंन्द्र से बेहतर नारद और तमाम सुविधाऒं की चिंता-संचालन करेंगे, रवि रतलामी से ज्याद अपना लिखने के साथ-दूसरे का भी सबको पढ़वाते रहेंगे,दोस्तों-दुश्मनों की गालियां खाते हुये भी देबाशीष जैसे अकेले दम पर लगातार चार साल बिना किसी लाभ के इंडीब्लागीस जैसे आयोजन करने वाले आगे आ जायेंगे। हम तब अप्रासंगिक हो जायेंगे जब हमारे किसी भी काम की वकत खतम हो जायेगी और चिट्ठाजगत का हर सदस्य हमसे हर मायने में बेहतर होगा। जिस दिन ऐसा होगा वह दिन निश्चित तौर पर हमारे अप्रासंगिक हो जाने का दिन होगा और हमें उस दिन से खतरा नहीं है बल्कि ऐसे दिन का बेताबी से इंतजार है जब हम अप्रासंगिक होकर इस चिट्ठाजगत के लिये भूली-बिसरी बात भी न रह जायें। यह हमारे लिये खतरे का दिन नहीं खुशी का दिन होगा जब हमारी कोई जरूरत नहीं महसूस की जायेगी। हम तो पलक पांवड़े बिछाये अपने अप्रासंगिक होने की बाट जोह रहे हैं।
कल हमें लगा कि भगवती चरण वर्मा की कहानी दो बांके की तरह मेरे मन में कोई छुपा कोई देहाती कह रहा है- मुला स्वांग खूब भरयो।(लेकिन नाटक खूब किया)
हम अपने दर्द का एक तर्जुमान छोड़ आये.
हमारी उम्र तो शायद सफर में गुजरेगी,
जमीं के इश्क में हम आसमान छोड़ आये.
किसी के इश्क में इतना भी तुमको होश नहीं
बला की धूप थी और सायबान छोड़ आये.
हमारे घर के दरो-बाम रात भर जागे,
अधूरी आप जो वो दास्तान छोड़ आये.
फजा में जहर हवाओं ने ऐसे घोल दिया,
कई परिन्दे तो अबके उडान छोड़ आये.
ख्यालों-ख्वाब की दुनिया उजड़ गयी ‘शाहिद’
बुरा हुआ जो उन्हें बदगुमान छोड आये.
-शाहिद रजा
गर्मी, पाठक और अप्रसांगिक होने के खतरे
By फ़ुरसतिया on May 6, 2009
गर्मी, कूलर, ए.सी.
गर्मी गजब की पड़ रही है। आजकल जिसे देखो यही कहकर बात शुरू करता है। लेकिन हमें ऐसा नहीं लगता। हमें लगता है कि गर्मी ससुर पड़ ही कहां रही है। पसीना निकल नहीं रहा है गर्मी का रोना शुरू हो गया। ई भी कोई बात है भला!दफ़्तर भी हम जैसे ही पहुंचते हैं, सबसे पहला काम वहां का ए.सी. बन्द करवाने का करते हैं। इसे बन्द करो ,पंखा चलाओ। घर में भी हमें जिस कमरे में भी हमें ए.सी.वाले कमरे से ज्यादा सुकुन देह कूलर वाला कमरा लगता है।
ए.सी. और कूलर की बात चली तो बतायें कि इसी साल हम लोगों ने एक ए.सी. लिया। हमारी सहमति न होने के बावजूद। हमें लगता रहा कि चार कमरों में से एक में ए.सी. लगना अपने घर के कमरों को हैव्स और हैव्स नाट वाले कमरों में बांटना होगा। ए.सी. वाला कमरा मंच पर बैठे जनप्रतिनिधियों की तरह वी.आई.पी. टाइप बन जायेगा। बाकी कमरे मंच के सामने खड़ी जनता की तरह।
लेकिन अंग्रेजों के जमाने के बने (1942) हमारे घर के कमरे रेलगाड़ी के डिब्बों की तरह बनें हैं। एक कतार में। एक के बाद दूसरा कमरा। जिस कमरे में ए.सी. लगा वह कमरा दूसरों से अलग-थलग सा हो गया। अगल-बगल के कमरों से कट गया। दूसरों की गर्मी
उस कमरे में न घुस आये इसलिये उस कमरे ने अपने को दूसरों से काट सा लिया।
मेरे देखते-देखते हमारे घर की कमरों की व्यवस्था मुक्त व्यवस्था से बंद व्यवस्था में तब्दील हो गयी। पहले सब कमरे खुले रहते थे ताकि एक की हवा दूसरे में आ-जा सके और अब कमरों की हवाओं में व्यवहार बंद हो गया है। अनबन हो गयी। संयुक्त परिवार की तरह रह रहे कमरे एकल परिवार में बंट से गये। मुआ ए.सी. जो न कराये।
आधुनिक विज्ञान ने आराम के जितने भी संसाधन दिये हैं वे किसी न किसी तरह आसपास के वातावरण के शोषण पर आधारित हैं। ए.सी. क्या करता है- कमरे भर की गर्मी अपने पिछवाड़े फ़ेंक देता है। अगर कमरा झकाझक मल्टीस्टोरी की तरह झकास ठंडा है तो कमरे का बाहर का हिस्सा तंदूर की तरह गर्मागर्म। कमरा ठंडाने के लिये धरती गर्मा रहे हैं हम।
मुझे कूलर हमेशा ए.सी. के मुकाबले गर्मी से राहत का बेहतर विकल्प लगता रहा है। पानी घूम-फ़िर कर हवा के सहयोग से आपको ठंडक पहुंचाता रहता है। ए.सी. की तरह न कमरे के साइज का झंझट है कि बड़ा कमरा तो बड़ा ए.सी.। ठंडी हवा फ़ेंक रहे हैं। जहां तक पहुंचे, जित्ती पहुंचे मस्त रहिये। मेरा तो पैगामें मोहब्बत है ,जहां तक पहुंचे- टाइप।
खैर ये तो नये मुल्ले के प्याज हैं। कुछ दिन में शायद ऐसा हो कि ए.सी. वाले कमरे में ही चद्दर ओढे़ लेटे रहने का मन करे।
भयंकर गर्मी के बावजूद गर्मी का एहसास कम होने का कारण शायद बचपन में देखी/झेली गयी गर्मी के बिम्ब दिमाग में सुरक्षित होना भी हो। मुझे याद है कि काफ़ी पहले गर्मी के दिनों में सड़क की कोलतार जगह-जगह पिघल-पिघल जाया करती थी। दोपहर में ठेला मजूर पैरों में जूट के बोरे बांध कर चलते ताकि गर्मी से पिघले कोलतार से जल न जायें। बच्चे लोग सड़क का कोलतार कोकाकोला या अन्य शीतल पेय के ढक्कनों में भर कर उसमें कोई कील लगाकर लट्टू बनाते। नचाते। घर में उन दिनों कोई पंखा-वंखा भी नहीं था। दोपहर में पसीने से तथपथ आराम से सोते रहते। बीच-बीच में हाथ वाला पंखा डुलाते रहते। इसी में राहत सामग्री सी कोई ठंडी हवा की लहर जो किसी पेड़ के आसपास लेटने से ही मिलती अनिर्वचनीय आनंद दे जाती।
हिंदी ब्लाग के पाठक
कल समीरलालजी ने सूचना दी कि उनके काउंटर के मुताबिक एक लाख लोगों ने उनके ब्लाग को उलट-पुलट लिया। बड़ा अच्छा लगा। सबके साथ हम भी बधाई टिका आये। फ़िर बाद में हमने दुबारा पोस्ट देखी। उसके मुताबिक उन्होंने अपने ब्लाग पर काउंटर करीब साल भर बाद लगाया था। ठीक से याद नहीं है उनको।समीरलालजी 2006 से ब्लागिंग कर रहे हैं। अपने सहज और आकर्षक लेखन, व्यवहार और टिप्पणी नरेश होने के कारण उनका ब्लाग हिंदी ब्लाग जगत के सबसे अधिक पढ़े जाने वाले ब्लागों में शामिल है।
अगर यह मानें कि साल भर पहले ही उड़नतश्तरी पर काउंटर लगा तो और इस दौरान एक लाख लोगों ने इसे पढ़ा तो औसतन प्रतिदिन पढ़ने वालों की संख्या 274 हुई। यह भी तब है जब हम जैसे और लोग भी होंगे जो उड़नतश्तरी की पोस्टों को कई बार देखते हैं कि कौन क्या टिपियाया। इससे लगता है फ़िलहाल हिंदी ब्लागिंग के औसत पाठक बहुत कम हैं। जब उड़नतश्तरी जैसे पाठक प्रिय ब्लाग की पाठक संख्या इतनी सीमित है तो बाकी चिट्ठों क्या हाल होगा?
आज से ढाई साल पहले रविरतलामी जी ने टिपियाया था-जब आपकी पाठक संख्या प्रतिदिन दस हजार से ऊपर हो जाएगी तो फिर आप डॉलर गिनने लगेंगे. अभी तो हिन्दी में यह समय आने में दो-चार साल लगेंगे. परंतु शुरूआत करने में क्या बुराई है? बात हिंदी ब्लाग से आमदनी की थी । चार साल में ढाई तो निकल लिये भैया लेकिन मामला अभी हजारौ तक नहीं पहुंचा। दस हजार की कौन कहे?
अप्रसांगिक होने का डर
कल ऐसे ही पुरानी पोस्टें देखते-देखते नीलिमा की एक पोस्ट फ़िर से देखी। उसमें नीलिमा का एक सवाल था-कभी अवसर मिला तो जानना चाहूंगी कि जीतू, अनूप, रवि रतलामी आदि को कैसा लगता है जब उन्हें एक दिन अपने ही खड़े किए चिट्ठाजगत में आप्रासंगिक हो जाने का खतरा दिखाई देता होगा।इस सवाल के जबाब में मेरी शहीदाना अंदाज में की गयी टिप्पणी थी- नीलिमीजी ये जो आपका अंतरंग सवाल है जीतू, अनूप,रवि रतलामी अपने ही खड़े किए चिट्ठाजगत में अप्रासंगिक होने के खतरे के बारे में ये क्या सोचते हैं तो उसके पूछने का अवसर पता नहीं आपको कब मिले लेकिन बताने का मौका मिला है तो उसका उपयोग कर रहा हूं। पहली बात ये चिट्ठाजगत कोई केवल हमारी मिल्कियत या जायदाद नहीं है जो भरभरा के गिर जायेगी तो हम दर-बदर हो जायेंगे। रही बात अप्रासंगिक होने की तो हम लोग अप्रसांगिक तब हो जायेंगे जब हमसे बड़े तमाम सिरफिरे यहां जुट जायेंगे और हमसे बेहतर लिखेंगे, जीतेंन्द्र से बेहतर नारद और तमाम सुविधाऒं की चिंता-संचालन करेंगे, रवि रतलामी से ज्याद अपना लिखने के साथ-दूसरे का भी सबको पढ़वाते रहेंगे,दोस्तों-दुश्मनों की गालियां खाते हुये भी देबाशीष जैसे अकेले दम पर लगातार चार साल बिना किसी लाभ के इंडीब्लागीस जैसे आयोजन करने वाले आगे आ जायेंगे। हम तब अप्रासंगिक हो जायेंगे जब हमारे किसी भी काम की वकत खतम हो जायेगी और चिट्ठाजगत का हर सदस्य हमसे हर मायने में बेहतर होगा। जिस दिन ऐसा होगा वह दिन निश्चित तौर पर हमारे अप्रासंगिक हो जाने का दिन होगा और हमें उस दिन से खतरा नहीं है बल्कि ऐसे दिन का बेताबी से इंतजार है जब हम अप्रासंगिक होकर इस चिट्ठाजगत के लिये भूली-बिसरी बात भी न रह जायें। यह हमारे लिये खतरे का दिन नहीं खुशी का दिन होगा जब हमारी कोई जरूरत नहीं महसूस की जायेगी। हम तो पलक पांवड़े बिछाये अपने अप्रासंगिक होने की बाट जोह रहे हैं।
कल हमें लगा कि भगवती चरण वर्मा की कहानी दो बांके की तरह मेरे मन में कोई छुपा कोई देहाती कह रहा है- मुला स्वांग खूब भरयो।(लेकिन नाटक खूब किया)
मेरी पसंद
जहां भी खायी है ठोकर निशान छोड़ आये,हम अपने दर्द का एक तर्जुमान छोड़ आये.
हमारी उम्र तो शायद सफर में गुजरेगी,
जमीं के इश्क में हम आसमान छोड़ आये.
किसी के इश्क में इतना भी तुमको होश नहीं
बला की धूप थी और सायबान छोड़ आये.
हमारे घर के दरो-बाम रात भर जागे,
अधूरी आप जो वो दास्तान छोड़ आये.
फजा में जहर हवाओं ने ऐसे घोल दिया,
कई परिन्दे तो अबके उडान छोड़ आये.
ख्यालों-ख्वाब की दुनिया उजड़ गयी ‘शाहिद’
बुरा हुआ जो उन्हें बदगुमान छोड आये.
-शाहिद रजा
बहुत ही रोचक चर्चा, जिसमें मैं अपनी नानी के गाँव चैनपुर(मवैया, जिला : उन्नाव) पहुँच ही गया। वो डोलना की ठंडाती गर्म हवा में सूखते पसीने का सुख भूलते नही बनता। और जिस बारीकी से चित्रण किया है बचपन की यादों का तो मैं सिर्फ यही कहूँगा कि आजकल जो हमारी गोद में खेल रहे हैं वो बच्चे किसी व्यव्सथा का हिस्सा हैं बच्चे नही धमाचौकड़ी मचाते हमारी तरह।
सादर,
मुकेश कुमार तिवारी
कई परिन्दे तो अबके उडान छोड़ आये.
बहुत सही कहा. हा ए.सी. की शुरुआत मे ऐसा ही लगता है. पर बाद मे चद्दर छोड के रजाई ओढ कर सोने लगता है आदमी. आप भी लग गये काम से अब तो.:) वैसे ए.सी. मे पोस्ट ठेलन बहुत उम्दा होता है.
रामराम.
मैं लम्बे समय से आपके बारे में सुनता रहा हूं। यहां सुनने का अर्थ है दूसरी पोस्टों में आपकी बातें। पढ़ी गई बातें।
आपको पढ़ा पहली बार है। हर एक पैराग्राफ में इतनी बातें घुसी हैं। जहां रुक गए वहीं प्याज की परतें उतरने लगती हैं। एसी के साथ हैव और हैव नॉट का चिंतन, प्रासंगिकता के साथ हिन्दी का चिंतन और दो बांके भी,
कोशिश करुंगा कि अब से आपको नियमित पढूं। आपके ब्लॉग पर। चिठ्ठा चर्चा में तो पढ़ता रहा ही हूं।
दूसरे प्रकार का फेटीग नजर आने लगा है!
अप्रसांगिक होने का डर- जब कोई हरिवंश राय बच्चन को ये कह कि मिलवाये कि ये अमिताभ बच्चन के पिता हैं तो पिता को बुरा नहीं लगता, अच्छा लगता है.
अप्रासंगिक होने का डर यदि बातचीत में है तो अन्तर में भी कहीं ठहरा ही होगा । आपके जवाब ने खासा प्रभावित किया इस सन्दर्भ में । धन्यवाद ।
जमीं के इश्क में हम आसमान छोड़ आये.
“बेहद खुबसूरत पंक्तियाँ मन को भा गयी”
regards
आप और अप्रासंगिक? कभी नहीं.
बाकी चकाचक चिंतन है. हम हिंदी ब्लॉगिंग से ज्यादा ही आशा लगाए है, दस हजार रोज की हीट दूर की कौड़ी है.
kal ek bargad ko dekha tha, jo jis beej se nikala tha use munh chidha raha tha ki dekho ab kaun poonchh raha hai. aur vo beej muskurate hue nisshabd hi khush tha ki bargad ab kitna vishaal, chhayadar aur harabhara hogaya hai, kitne hi log us ke neeche chhaya paa rahe haiN, kitne hi panchhi us me ghar basa rahe haiN, kitni hi panharineN vaha sukh dukh baNt rahi haiN….!
asal me baad me maine dekha ki beej aur baragad dono hi khush the, ek paa kar aur dene vale ko chhota samajh kar aur dusara de kar aur paane vale ko khush samjh kar.
are vaah kavita ban gayi to, inter maar kar atukanta kavita kah kar post kar dun kya apane blog par ??
“भयंकर गर्मी के बावजूद गर्मी का एहसास कम होने का कारण शायद बचपन में देखी/झेली गयी गर्मी के बिम्ब दिमाग में सुरक्षित होना भी हो। मुझे याद है …..
…
… इसी में राहत सामग्री सी कोई ठंडी हवा की लहर जो किसी पेड़ के आसपास लेटने से ही मिलती अनिर्वचनीय आनंद दे जाती।
———–
SBAI TSALIIM
और उससे जन्मा
ठकुरासीपन-
एसी में रह कर
जान ही जायेंगे ..
और तब शायद,
शोर गुल वाले कमरे
रास नहीं आयेंगे….
नेता हैं
संसद में रहेंगे..
जनता के पास
क्यूँ जायेंगे.
——-
-आंकड़े तो आंकड़े हैं.
क्या क्या गिनें और कैसे कैसे.
जिस दिन कुछ लिखो नया..
हजारा लगाता है,
अगले दिन २०० रह जाता है,
तीसरे दिन १०० भी
मुश्किल से पाता है और
चौथे दिन भी नया कुछ न लिखा..
तो खुद की यात्रा छोड़,
सिफर ही हाथ आता है.
——
आप की पसंद
हर बार की तरह
इस बार भी
कर गई मन प्रसन्न!!
—-
बाकी तो आपकी जय हो..दो दो बार जो हमारी पोस्ट पढ़े हैं.
“जमीं के इश्क में हम आसमान छोड़ आये”-शाहीद रजा के इस मिस्रे पर करोड़ों वाह-वाह!!!!
अप्रासंगिक ? और आप? सवाल ही नहीं उठता
सही है कि हिंदी ब्लागिंग के औसत पाठक बहुत कम है। हम उडन तश्तरी के कुछ सौ फालोअर से विभोर हैं जबकि अंग्रेज़ी लेखिका शोभा डे के लगभग ८०० फालोअर हैं। तो यह है विश्व की सबसे अधिक बोली जानेवाली भाषाओं में से एक ‘हिंदी’की शोचनीय स्थिति:(
अरे दादा, मुझसे अनजाने में इतनी बेहतरीन रचना को अनदेखा कर देने का पाप होते होते रह गया । हे राम, यह कैसे हुआ होगा, भला ? ईश्वर उस सुधी पाठक को लम्बी उम्र दे, जिसने आज की ” चिट्ठाचर्चा पर टिप्पणियों में ” इसका लिंक दे रखा है ।
कलम कापी लेकर पढ़े जाने वाला सँदर्भ है, यह तो ! बुकमार्क कर लिया है, टिप्पणी भले माडरेट हो जाय, पढ़ने पर रोक थोड़ेई है ?
नहीं नहीं, अपने पर जिन ले लीजो,
ऎंवेंईं मन भर आया, सो निकल गया इस बेलगाम कीबोर्ड से…
चंदन कुमार मिश्र की हालिया प्रविष्टी..जय हे गांधी ! हे करमचंद !! (कविता)